प्रवचन पीयूष [प्रथम भाग]

[स्वामी नंदनाचार्य और स्वामी निर्मलानन्द]

आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सर्वेश्वर के सृष्टि की ओर दृष्टि करने से इस विषय की परिपुष्टि हो जाती है कि सृष्टि-विकास-क्रम सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर हुआ है। पूर्व का पदार्थ पश्चात् के पदार्थ से सूक्ष्म होता है और सूक्ष्म अपने से स्थूल में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। उदाहरणार्थ हम स्थूल जगत के पाँच तत्त्वों-गगन, पवन, अनल, जल और स्थल पर विचार करें।
इन पाँच तत्त्वों में सबसे पूर्व का आकाश तत्त्व मानना अनिवार्य होता है; क्योंकि अवकाश के बिना किसी वस्तु का रहना असंभव है। यही हेतु है कि आकाश अपने बाद के चार तत्त्वों-अनिल, अनल, जल और स्थल में व्यापक होकर इन सबसे ऊपर अवस्थित है। इसी भाँति अनिल तीन तत्त्वों-अनल, जल और स्थल में, अनल दो तत्त्वों-जल और स्थल में तथा जल मात्र स्थल में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है।
इस विषय को अति सरलतापूर्वक हम इस प्रकार समझ सकते हैं। थोड़ी-सी मिट्टी को पानी में घोलकर एक शीशे के गिलास में रख दें। कुछ घंटों के बाद हम देख पाएँगे कि मिट्टी का अंश गिलास के पेंदे में जमा है और उसके ऊपर वारि विराजित है। इसका मतलब यह नहीं कि अहि में अप नहीं है, बल्कि क्षिति में अप व्यापक होकर अपना अस्तित्व ऊपर भी रखता है।
इस दृष्टि से आकाश से पूर्व पदार्थ का उसमें व्यापक होकर उससे ऊपर रहना अस्वाभाविक नहीं। अब हमें देखना है कि व्योम के पूर्व का क्या-क्या पदार्थ है तथा वह कैसा-कैसा है? संत सुन्दरदासजी ने इसकी क्रमिक अभिव्यंजना बड़ी उत्तमता से की है; यथा-
“ भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे, अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर, सुन्दर कहत है ।।”
यह संत-वचन सोचने के लिए बाध्य करता है कि परमात्म-स्वरूप कैसा होगा- स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वा उसके भी परे सूक्ष्मतम होगा?
सद्ग्रंथों में परमात्म-स्वरूप की उपमा कहीं गगन से, तो कहीं पवन से दी गई है; यथा- मण्डलब्राह्मणोपनिषद् के चतुर्थ ब्राह्मण में पाँच आकाशों की चर्चा करते हुए ऋषि ने पंचम आकाश की ओर संकेत किया है।
संत कबीर साहब इससे पूरे सहमत हैं, वे कहते हैं-
“ नौबत घरत है रैन दिन सुन्न में,
कहै कबीर पिउ गगन गाजै।”
गुरु नानकदेवजी कृत प्राण संगली भाग-1 में हम इस प्रकार पाते हैं-
“ गगनंतरि गगन गवन करि फिरै ।
जाय त्रिवेणी मंजनु करै ।।
सहज निरंतर धरै धिआनु ।
नानक ऐसा ब्रह्म गिआनु ।।”
महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
“ प्रभु वरनन में आवै नाहीं ।
अकथ अनामी अहैं सब माहीं ।।
प्रति परमाणु अणु लघु दीर्घ सर्व तनु ।
प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।।”
कठोपनिषद्, अध्याय-2, वल्ली-5, श्लोक- 10 में यम ने नचिकेता को उपदेश दिया है-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रति रूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ पवन प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
हम देखते हैं-फुटबॉल में हवा का रूप गोला- कार, गाड़ी के चक्के में चक्राकार और लम्बे बैलून में लम्बाकार होता है। तो प्रश्न होता है-हवा का रूप गोलाकार है, चक्राकार है अथवा लम्बाकार? वास्तव में हवा का रूप इन सब रूपों से भिन्न अरूप है।
इसी भाँति परम प्रभु परमात्मा सब रूपों में व्यापक रहकर सबसे भिन्न अरूप है, अव्यक्त है। इस विषय में संतों की भरपूर वाणियाँ हैं। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ वाणियाँ उपस्थित की जाती हैं-
“ है सबमें सब ही तें न्यारा ।
जीव जन्तु जल थल सब ही में, शब्द वियापत बोलनहारा ।।”
-संत कबीर साहब
“ एक महि सरब सरब महि एका,
एह सतगुर देखि दिखाई ।
जिनि कीए खंड मण्डल ब्रह्मण्डा,
सो प्रभु लखनु न जाई ।।”
तथा-
“ बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुरु ज्ञान बताई ।
जन नानक बिन आपा चीन्हे मिटै न भ्रम की काई ।।”
-गुरु नानक देवजी
“ प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।”
-गो0 तुलसीदासजी
“ फूलि रह्यो सब ठाँव तो धरनि अकास में ।
सो त्रिभुवन पतिनाथ निरखि लियोआप में ।।”
-संत केशवदासजी
“ फूल माहिं ज्यों वास काठ में अगिन छिपानी ।
खोदै बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।।
दूध मँहै घृत रहै छिपी मिंहदी में लाली ।
ऐसे पूरण ब्रह्म कहूँ तिल भर नहिं खाली ।।”
-संत पलटू साहब
हम इन आँखों से फूल को देखते हैं; किन्तु उसमें व्यापक वास को नहीं। काठ को देखते हैं, किन्तु उसमें व्यापक आग को नहीं। पृथ्वी को देखते हैं; किन्तु उसमें अन्तर्निहित पानी को नहीं। मेंहदी को देखते हैं; किन्तु उसके अन्दर छिपी लाली को नहीं।
इसी भाँति बाह्य जगत की वस्तुओं को हम देखते हैं; किन्तु उसमें व्यापक ब्रह्म को नहीं। हमारी नेत्र-शक्ति इतनी क्षीण है कि जागतिक सभी वस्तुओं को भी कहाँ देख पाते हैं? क्या गगन और पवन को इस नयन से हम निहार सकते हैं? यदि नहीं तो विश्व में व्यापक ब्रह्म को इन नेत्रें से ग्रहण करने की भावना कितनी भ्रामक है!
हमारा सुप्रसिद्ध ग्रंथ सामवेद स्पष्ट कहता है-
“ ओ3म् स योजत उरुगायस्य
जूतिं वृथा क्रीड़न्तं मिमिते न गावः ।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो
दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।”
अर्थात् इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करनी, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता, वह तो इन्द्रियातीत है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना के अवसर पर दिनांक 15-06-2003 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2003 ई0)

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आदरणीय साधकगण तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग जेल की कथा सुन रहे थे। हमलोग भी जेल में हैं। वह जेल क्या है? जेल का बहुत बड़ा आहाता होता है। उस आहाते के अन्दर बहुत-से कमरे होते हैं। एक-एक कमरे में एक-एक कैदी रहता है। उसी तरह यह विश्व ब्रह्माण्ड एक कारागार है और हमलोगों का एक-एक शरीर एक-एक कमरा है। उस एक-एक कमरे में एक-एक जीव कैदी की तरह रह रहा है। जब कैदी कैद में हो, तो वह सुखानुभव कैसे कर सकता है? परतंत्रता में दुःख तो स्वाभविक है। जो कथा आपने सुनी, उसमें तो कैदी की अवधि पूरी हो गई थी, लेकिन हमलोगों की जेल की अवधि कब पूरी होगी, कोई ठिकाना नहीं है! जबतक साधना नहीं करेंगे, तबतक पूर्ण होनेवाली भी नहीं है। इसीलिए हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा ।
मन निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा ।।”
जेल को छोड़ो, कारागार से निकलो। इस कारागार से निकलने के लिए क्या करना होगा? आप जितने साधकगण एकत्र हुए हैं, मन-निग्रह के समर क्षेत्र में साधना करने के लिए उपस्थित हुए हैं। अब हटना नहीं होगा, डटना होगा।
हमलोग साधना में सफलता चाहते हैं। एक कृषक खेती में सफलता चाहता है, व्यापारी व्यापार में सफलता चाहता है, विद्यार्थी पढ़ाई में सफलता चाहता है, युद्ध के मैदान में डटा हुआ एक सिपाही भी सफलता चाहता है। जो कोई भी कुछ काम करते हैं, उसमें वे सफलता चाहते हैं। लेकिन यह सफलता मिलेगी कब? भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि इसके लिए पाँच चीजों की आवश्यकता होती है-(1) कर्ता, (2) क्षेत्र, (3) साधना, (4) कार्यान्वयन और (5) अज्ञात।
कर्ता सुयोग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, तब तो ठीक है। अगर कर्ता अयोग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल नहीं हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, पर उसके पास साधन ही नहीं हो, तो भी सफलता नहीं मिलेगी। अगर वह साधना सम्पन्न भी हो, लेकिन समुचित ढंग से कार्यान्वयन नहीं कर रहा हो, तब भी सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता सुयोग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन सम्पन्न हो और कौशल से कार्यान्वयन कर रहा हो; ये चार चीजें जब एकत्रित हो जाती हैं, तो पाँचवीं चीज है-अज्ञात अर्थात् प्रभु-कृपा, वह मिल जाती है। गोस्वामीजी ने कहा-
“ जो तेहि पंथ चलइ मन लाई ।
तो हरि काहे न होहि सहाई ।।”
जैसे दूध को हमलोग औंटते हैं, तो औंटते-औंटते हम उसका खोआ भले ही बना लें, पर दही नहीं बना सकते। दही तभी बना सकते हैं, जब दूध में थोड़ा जामन पड़ेगा। उसी तरह हम कितना भी कुछ कर लें, जबतक गुरु-कृपा-रूप जामन उसमें नहीं आएगा, तबतक दही नहीं जमेगा, साधना में सफलता नहीं मिलेगी।
आप साधकगण घरवार, परिवार, रोजगार; सब छोड़कर यहाँ आए हैं। आपलोगों का सारा समय इसमें ही रहना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि कहीं दूसरी जगह मन का योग न हो। मन भगाता है, समेटिए।
“ जहँ जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण ।
फेरि फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
साधना में सफलता के लिए श्रम और धैर्य की भी आवश्यकता होती है। किसी पत्थर को टुकड़ा करना है। हम उस पत्थर पर चोट दे रहे हैं, पर नहीं टूट रहा है। वह पत्थर तब टूटेगा, जब उसमें 100 चोट लगेगी। 2-4-10-20 चोट देते हैं, नहीं टूटता है। देते-देते 80-90 चोट देते हैं, सोचते हैं कि कहाँ टूट रहा है? आप 99 चोट दे चुके, तब भी नहीं टूट रहा है। अब निराशा होती है कि यह हमसे नहीं टूटेगा। लेकिन अब वह केवल एक चोट खोज रहा है। जैसे ही हम एक चोट और मारते हैं कि फट से पत्थर दो टुकड़ा हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि आपने जो 99 चोट दी, वह व्यर्थ गया। अगर 99 चोट नहीं देते, तो सौवीं चोट लगती कैसे? इसलिए वह 99 चोट भी ठीक ही पड़ा। इसी तरह साधना करते रहिए, करते रहिए, तिल दरवाजा टूटेगा और हम प्रकाश में जाएँगे। गुरु महाराज कहते हैं-
“ तिल दरवाजा टूटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी
खूब जोर बरजोर से ।।”
जबतक जोर और बरजोर नहीं करेंगे, तिल दरवाजा कैसे टूटेगा? ईसा मसीह ने कहा है- ‘खटखटाओ खुलेगा, माँगो मिलेगा।’ उसी दरवाजा को खटखटाना है। खटखटाते रहने से कभी-न-कभी खुलेगा अवश्य।
हमारे ध्यानाभ्यास में आलस्य और गुणावन; ये दो बड़े विघ्न हैं। सबसे पहली बात है कि हम बैठने के लिए सीखें। जबतक हम ठीक तरह से बैठने के लिए नहीं सीखेंगे, हमारी आगे की प्रगति नहीं हो सकती है। रामचरितमानस में लिखा है-
“ गिरि सुमेरु उत्तर दिशि दूरी ।
नील सैल एक सुन्दर भूरी ।।
तहँ बसि हरिहिं भजहिं जिमि कागा ।
सो सुनु उमा सहित अनुरागा ।।”
सुमेरु पर्वत के उत्तर नीलगिरि पर्वत पर कागभुशुण्डिजी रहते थे। वह सुमेरु कहाँ है? आपकी पीठ की रीढ़ जो है, वही है सुमेरु। इसी के उत्तर यानी ऊपर में आँख बंद करके देखिए, अंधकार है। इस नीलगिरि में हमारा मन कागभुशुण्डि-कौआ बना हुआ है। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ वायस पलिअहि अति अनुरागा ।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।।”
जिस तरह सुग्गे को लोग पिंजड़े में पालते हैं, उसी तरह कौआ को पिंजड़ा में पालिए और बढ़िया-बढ़िया भोजन, खीर-मिठाई खिलाइए; लेकिन जब उसे पिंजड़ा से निकाल दीजिए, तो वह कौआ खराब चीजों पर ही चोंच लगाएगा। उसी तरह हमारा मन इस शरीर-रूप पिंजड़ा में बंद तो है, लेकिन जब उड़ता है, तो खराब चीजों पर ही बैठता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा-‘जबतक हम साधना नहीं करेंगे, हमारा मन पवित्र नहीं होगा।’ बोलने के लिए हम लंबा-लंबा लेक्चर, बड़ा-बड़ा व्याख्यान दे सकते हैं, लेकिन हमारा मन बार-बार कहाँ जाता है? परमहंसजी ने कहा कि आप देखते हैं, गिद्ध और चील आकाश में सबसे ऊपर उड़ता है, लेकिन उतनी ऊँचाई पर उड़ने पर भी उसकी नजर लाश पर रहती है। जहाँ कहीं लाश देख लिया, चील और गिद्ध आकर बैठ जाते हैं। उसी तरह लंबी-लंबी बातें हम कितनी भी क्यों न कहें, लेकिन अगर साधना से हमारा मन परिमार्जित नहीं है, तो वह विषय-रूपी लाश पर ही जाएगा। उस ओर से हम अपने मन को हटाएँ, तभी भगवद्भजन बनेगा। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ पहले यह मन काग था, करता जीवन घात ।
अब तो हंसा हुआ, मोती चुगि चुगि खात ।।”
कागभुशुण्डि ने कौन-सी साधना की कि कागा से हंस बन गए-इतने बड़े संत हो गए? परम पूज्य गुरुदेव ने जो साधना आपलोगों को बतलाई है, वही साधना वे भी करते थे। मनोयोगपूर्वक करते थे; करते-करते इतने बड़े हो गए कि भगवान शंकर भी उनके सत्संग में जाते थे।
“ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिँ सुनहिं अनेक विहंगा ।।”
कागभुशुण्डि पाकड़ वृक्ष के नीचे जप-रूपी यज्ञ करते थे। आपलोग भी मानस जप करते हैं। जप अगर ठीक-ठीक हो, तो शास्त्र कहता है-‘जपात् सिद्धिः।’ जप में भी सिद्धि हो जाती है। कागभुशुण्डिजी कहते थे-‘आम छाँह कर मानस पूजा।’ मानस जाप के बाद आपलोग भी मानस ध्यान करते हैं, लेकिन एकाग्रतापूर्वक कीजिए। जबतक एकाग्रतापूर्वक जाप नहीं हो जाता, तो मानस ध्यान क्या होगा? जाप ऐसा चाहिए कि जाप और आपके बीच कुछ नहीं रहे। इतने दिनों से हमलोग मानस जाप, मानस ध्यान और दृष्टियोग कर रहे हैं। विचार करें कि कहाँ तक पहुँचे हैं? अगर प्रगति नहीं हुई, तो क्यों? हमारी नींव मजबूत नहीं है। पहले हमलोग नींव को मजबूत करें। पहले इतना जप करें, उसी में इतना समय लगावें कि नींव मजबूत हो जाए, तब आगे बढ़ें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि इतनी देर मानस जप, इतनी देर मानस ध्यान और इतनी देर दृष्टियोग करना है।
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।”
आजकल वर्षा के कारण गंगा का पानी बहुत गंदा हो गया है। अपनी परछाईं उसमें दिखलाई नहीं पड़ती है। जब पानी साफ हो जाएगा, तो उसमें हम अपनी परछाईं देख सकेंगे। उसी तरह जबतक हमारा मन अपवित्र है, जबतक गुरु का शुद्ध रूप हमारे अंदर नहीं आ रहा है; हमारा मानस ध्यान ठीक-ठीक नहीं बन रहा है। शुद्ध मन में ही प्रभु का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इसलिए जाप ठीक-ठीक होने पर जब मानस ध्यान करेंगे, तो सुरत निर्मल हो जाएगी और तब विन्दु का ज्ञान होगा। महर्षि मेँहीँ-पदावली में आप पढ़ते होंगे-
“ प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान ।
हो स्त्रुति निर्मल हो विन्दु ज्ञान ।।”
जब हमारा मानस जाप ठीक नहीं हुआ, मानस ध्यान ठीक नहीं हुआ, फिर हमारा दृष्टियोग कैसे बनेगा? जबतक मोटे-मोटे अक्षरों को लिखने का अभ्यास हम नहीं करें, तबतक महीन अक्षरों को लिखने की योग्यता कैसे होगी? मोटे-मोटे अक्षरों को जब लिखने में अभ्यस्त हो जाएँगे, तब महीन अक्षर भी लिख सकेंगे। उसी तरह मानस जप और मानस ध्यान के ठीक अभ्यास के बाद ही विन्दु ध्यान संभव है। यह विन्दु ज्ञान कैसे होगा?
“ दोउ नैना बिच सन्मुख देख ।
इक विन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख ।।”
दृष्टि की दोनों धारें-दोनों रेखाएँ जहाँ मिलेंगी, वहाँ विन्दु उत्पन्न होगा। जब विन्दु उत्पन्न होगा, तो मन का पूर्ण सिमटाव होगा।
शरीर और संसार में बड़ा संबंध है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। स्थूल-सूक्ष्म की संधि पर स्थित विन्दु पर जब कोई पूर्ण सिमटाव करके बैठ जाता है, तो यह पिण्ड छूट जाता है। पिण्डदान करने से बड़ा पुण्य होता है। लोग पिण्डदान करने के लिए तीर्थ में जाते हैं, पर वास्तविक पिण्ड दान तो यह है। शरीर को पिण्ड कहते हैं और दृष्टि साधन करके उस विन्दु से जाकर जुड़ गए, तो पिण्ड का ज्ञान नहीं रहता है, यही पिण्डदान हो गया। इस पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। पिण्ड से लोग ब्रह्मांड में जाते हैं। स्थूल शरीर का भान नहीं रहता, स्थूल संसार का भी भान नहीं रहता। स्थूल शरीर से हम छूट गए, स्थूल संसार से भी छूट गए। स्थूल से सूक्ष्म में जाने पर वहाँ विविध शब्द होते हैं, उनको अनहद शब्द कहते हैं यानी जिसकी गणना की हद या सीमा नहीं है। फिर-
“ अनहद में धुन सत लौ लाय ।
भव जल तरिबो यही उपाय ।।”
अनहद ध्वनि में अनेक प्रकार के शब्द हैं। उन शब्दों में सत्शब्द को पकड़ना है। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
‘सत शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में ।’
वह सत्शब्द सबसे पीछे मिलता है। पहले अनहद ध्वनि मिलती है। उसको पकड़कर आगे बढ़ते हैं, तो कारण शरीर छूट जाता है, कारण संसार छूट जाता है। फिर महाकारण शरीर छूट जाता है, महाकारण संसार छूट जाता है। जो सत्ध्वनि को पकड़ लेते हैं, तो स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चारो जड़ावरण छूट जाते हैं। तब ‘चेतन चोला बना अमोला’-उस चेतन चोला में प्रवेश कर जाते हैं। जड़मंडल से चेतनमंडल में प्रवेश कर जाते हैं। वह शब्द कहाँ से आया है? वह परम प्रभु परमात्मा से आया हुआ शब्द है। शब्द में अपने केन्द्र की ओर खींचने का गुण होता है। उस आदिशब्द को पकड़ेंगे, तो परम प्रभु परमात्मा तक जाएँगे। स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार; इन सबको पार करके जीव पीव मिलकर एक हो जाएगा। तब-‘पार गमन ही सार भक्ति है, लो यहि हिय में धार।’ यही तो असली भक्ति है। इसी के लिए गुरु महाराज का उपदेश है-
“ मन निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा ।।
वक्त नहीं है ऐ वीरो अब, गाफिल होकर सोने का ।
विन्दु राह से निकल बहादुर, तम मंडल टपना होगा ।।”
रास्ता वही है, छेद वही है, लेकिन उस छेद का भेद गुरु ही बतलाएँगे। जब उनकी कृपा होगी, तभी उस भेद को जानकर हम साधना के द्वारा स्थूल शरीर और संसार से बाहर निकल सकते हैं, उस पार जा सकते हैं। जब स्थूल से पार हो जाएँगे, तब-
“ दामिनि दमकै चंदा चमकै, सूर्य तपै जोति मंडल ।
इस मंडल से आगे वीरो, और तुम्हें बढ़ना होगा ।।
शब्द मंडल में सार शब्द ध्वनि, गुरुगम होकर धर लेना ।
जगत खेल को इसी युक्ति से, सुन ‘मेँहीँ’ तजना होगा ।।”
संसार-रूपी जो जेल है, कारागार है, वह तभी छूटेगा, जब सारशब्द को पकड़ लेंगे।
इसी के लिए आप साधकगण यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं, घर-द्वार छोड़कर यहाँ आए हैं। यहाँ आकर भी अगर वही बातें करते हैं, तो दुनियादारी छूटी कहाँ? ‘आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।’ इसलिए मन को चंचल नहीं कीजिए। मनोयोगपूर्वक साधना कीजिए। किसी से बातें कीजिए, तो ज्ञान- ध्यान की ही बातें कीजिए। अपने को इस तरह के वातावरण में रखिएगा, तो ध्यान में बल मिलेगा। बस, इतना कहकर मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना के अवसर पर दिनांक 22-06-2003 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2003 ई0)

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आदरणीय कुलपति महोदय, विभागाध्यक्ष महोदय, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यह संसार मर्त्यलोक है। यहाँ प्रतिदिन असंख्य प्राणी जन्म लेते और मरते हैं। किन्तु हम उन सबकी जयन्ती नहीं मनाते हैं। जो कोई व्यक्ति-विशेष होते हैं, हम उनकी जयन्ती मनाते हैं। आज श्रावण शुक्ला सप्तमी को हमलोग गो0 तुलसीदासजी महाराज की जयन्ती मनाने के लिए यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं। आखिर उनमें क्या विशेषताएँ थीं? क्यों वे भी हमलोगों की तरह चौदह इन्द्रियों (पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण की इन्द्रियाँ) वाले साधारण मानव थे? नहीं। मानव नहीं, वे महामानव थे। महामानव ही नहीं, वे नररूप में हरि थे। हरि कहने में भी हमको संकोच होना चाहिए; क्योंकि स्वयं हरि ने अपने श्रीमुख से शबरी को उपदेश देते हुए कहा था-
‘मो तें अधिक सन्त करि लेखा ।’
अर्थात् वे हरि से भी विशेष-संत थे। ऐसे संत की जयन्ती मनाने के लिए हमलोग समवेत हुए हैं। जिज्ञासा हो सकती है कि संत हरि से भी विशेष कैसे? उत्तर में निवेदन है कि जिस अयोध्याजी में भगवान श्रीराम का अवतरण हुआ था, वहीं एक संत हुए पलटूदास। उन्होंने कहा है-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।
संतन किया विचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र विचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण तें न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।”
संतों ने अंधेरे में टटोलकर नहीं, बल्कि ज्ञान का दीपक लेकर उन्होंने तैंतीस कोटि देवताओं को देखा। उन सबमें से उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश; इन तीनों को खोजकर अलग किया। इन त्रिदेवों में से एक हरि को निकाल लिया। पुनः उन्होंने इसपर सोच-विचार किया। सोचने-विचारने पर निष्कर्ष क्या निकला? भगवन्त सगुण होते हैं और संत जन तीनों गुणों से परे-निर्गुण होते हैं, इसलिए ये उनसे श्रेष्ठ हैं। ऐसे ही श्रेष्ठ संत थे-गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज।
इनका अवतरणकाल संघर्षमय था। सामाजिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक, सभी क्षेत्र अस्त-व्यस्त थे। देश में राजनीतिक उथल-पुथल मची थी। विदेशी लोग तलवार की नोंक पर धर्मान्तर कर रहे थे। वैदिक धर्म-संप्रदायों के बीच चौड़ी खाई हो रही थी। कोई कहते कि हम शैव, तो कोई कहते कि हम गाणपतय। कोई कहते कि हम वैष्णव, तो कोई कहते शाक्त। सभी अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय दृष्टि से देखा करते थे। परस्पर घृणा और द्वेष की अग्नि जल रही थी। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इन चौड़ी होती खाइयों को पाटने का स्तुत्य कार्य किया। उन्होंने शैव को समझाया कि आप कहते हैं शैव श्रेष्ठ है, शैव बनो; यह अच्छी बात है। पर आपको वैष्णव से विरोध नहीं होना चाहिए। आप जानते हैं कि सती ने राम की परीक्षा लेने के लिए जब सीता का रूप धारण किया था और शिवजी समाधि में सब जान गये थे, तब उन्होंने सती का परित्याग कर दिया और प्रतिज्ञा की कि राम हमारे इष्ट हैं, उनकी भार्या बनने के कारण सती हमारी पूज्या हो गयी। इसे अब बायीं ओर नहीं, सामने बिठाऊँगा और वैसा ही किया। शिवजी रामनाम का जप और उनके रूप का मानस ध्यान भी करते थे।
“ रामनाम शिव जापन लागे ।
जानी सती जगत्पति जागे ।।”
तथा-
‘जो महेश मन मानस हंसा ।’
गोस्वामीजी वैष्णव को समझाते हैं कि जब सीता-हरण के पश्चात् लंका जाने के लिए समुद्र पर सेतुबंध का निर्माण किया गया, तो श्रीराम ने शिवलिंग स्थापित कर उसकी विधिवत् पूजा की थी। अतएव शिवजी आदरणीय हैं।
“ लिंग थापि करि विधिवत पूजा ।
शिव समान प्रिय और न दूजा ।।”
कोई कहते हैं कि शिव बड़े और गणेश छोटे हैं, तो गोस्वामीजी उन्हें समझाते हैं कि जब शिव का विवाह नहीं हुआ था, उसी समय से गणेशजी की पूजा होती है। शिव और पार्वती ने भी अपने विवाह में गणेशजी की पूजा की थी।
“ मुनि अनुशासन गणपतिहि, पूजे शंभु भवानि ।
सुनि अचरज करहिं जनि, सुर अनादि जिय जानि ।।”
इस प्रकार उन्होंने विभिन्न मतवादों के बीच समन्वय करके सामाजिक समरसता कायम की। एक सामाजिक, धार्मिक सुधारक की भूमिका निभाते हुए उन्होंने साधना द्वारा अपने अंदर सर्वव्यापक राम की अनुभूत किया। उनकी जयन्ती के अवसर पर मैं उनके जीवन-परिचय पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालना चाहूँगा।
प्रयाग के बाँदा जिले में राजापुर गाँव में एक प्रतिष्ठित धर्मपरायण ब्राह्मण आत्माराम दूबे रहते थे। उन्हीं के पुत्र के रूप में संवत् 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन इनका जन्म हुआ। जन्म के समय इनके मुख में बत्तीसो दाँत थे और ये देखने में पाँच वर्ष के से लगते थे। माता हुलसी इन्हें देखकर जरूर हुलसी; किन्तु पंडितों की राय जानकर दुःखी हो गयी। पंडित ने कहा कि अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण इसके माता-पिता के भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। फलस्वरूप माता-पिता को बच्चे का परित्याग करना पड़ा। माता हुलसी ने अपनी दाई चुनियाँ को नवजात शिशु सौंप दिया और दूसरे दिन ही संसार से चल बसी। चुनियाँ स्नेहपूर्वक बच्चे का पालन करने लगी, पर जब बालक पाँच वर्ष का हुआ, तो वह भी परलोक सिधार गयी। बालक अनाथ हो गया, कोई देखभाल करनेवाला नहीं था। कहते हैं अनाथों के नाथ दीनानाथ होते हैं। माता पार्वती स्वयं आकर उसे खिलाने-पिलाने लगी, उसकी देखभाल करने लगी। कुछ बड़े हुए तो इन्हें श्री नरहर्यानन्द का संग मिला। उन्होंने इनका नाम ‘रामबोला’ रखा। कुछ समय बाद इन्हें पंडितों का संग हुआ और ये काशी चले गये। वहाँ इन्होंने वेद-वेदान्त का अध्ययन किया और स्वंय पंडित हो गये। अब युवावस्था आ गयी। वासना जागृत हुई। इन्होंने रत्नावली नाम की रूपवती कन्या से विवाह कर लिया। ये पत्नी में इतने आसक्त हुए कि उससे अलग नहीं रह पाते थे। कुछ दिनों पत्नी ससुराल में रही। फिर उसका भाई आया और बहन को ले जाने का आग्रह करने लगा, पर ये पत्नी को ले जाने देना नहीं चाहते थे। एक बार ये कहीं बाहर गये थे कि इनकी पत्नी का भाई उसे लेकर चला गया। जब ये घर लौटते हैं, तो देखते हैं कि पत्नी नहीं है। बड़े विकल हुए। मन में ठान लिया कि अभी ससुराल चलना चाहिए। चलते-चलते रात हो गयी। बरसात का समय था, नदी उफन रही थी। नदी में नाव नहीं थी, उस समय अंधेरा इतना हाथों-हाथ नहीं सूझ रहा था। और जबतक उस पार नहीं जाएँगे, तो पत्नी से भेंट कैसे होगी। इधर-उधर देखते हुए कुछ उपाय सोचने लगे। इतने में उन्होंने किनारे से एक लाश देखी। मन में हुआ कि लकड़ी है। उसी का अवलंब लेकर तैरते हुए किसी प्रकार उस पार पहुँच गये। ससुराल पहुँचते-पहुँचते रात अधिक हो गयी। सब खा-पीकर सो चुके थे। सभी दरवाजे बंद थे, पर इन्हें अपनी पत्नी से मिलना था। झाँककर देखा कि एक खिड़की खुली है। मन में हुआ कि इसी होकर कमरे में प्रवेश कर जाएँ। पर कुछ अवलंब तो चाहिए। देखा कि एक रस्सी लटकी हुई है। उसी को पकड़कर कमरे के भीतर चले गये। अचानक पत्नी रत्नावली की नींद टूटी। इन्हें देखकर विस्मित हो गयी। पूछती है कि इतनी रात में आप अंदर कैसे आए? इन्होंने उत्तर दिया-इसी खिड़की से रस्सी के सहारे अंदर आया हूँ। पत्नी ने रोशनी जलाकर देखा कि यह तो रस्सी नहीं, साँप है। फिर पूछती है कि आपने नदी कैसे पार की? इन्होंने कहा कि एक लकड़ी का टुकड़ा मिल गया, उसी के सहारे नदी को पार किया। नदी किनारे जाकर देखती है कि लकड़ी का टुकड़ा नहीं है, यह तो लाश है। रत्नवली ने उलाहने के स्वर में कहा कि आपको लाज आनी चाहिए। मेरे हाड़-मांस के शरीर से जितना प्रेम है, उतना यदि प्रभु राम में होता तो आपका उद्धार हो जाता।
“ अस्थिचर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति ।
तैसी जो श्रीराम महँ, होती न भवभीति ।।”
पत्नी की बात सुनकर उनके मन में ठेस लग गयी। जैसे सूखी हुई दियासलाई पर काठी घिसने से भक् से जल उठती है, उसी तरह इनके पूर्वजन्म का सोया संस्कार ठोकर लगने से जग गया। वहाँ से चले। साधु-संतों का संग किया। संत-सद्गुरु नरहरि दासजी के दर्शन हुए। उनसे इन्होंने राम-कथा सुनी और दीक्षा ली। गुरु का उनपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि जो गो की गुलामी में मस्त थे, वे गो के स्वामी हो गये। पहले ‘गो’ अर्थात् इन्द्रियों के गुलाम थे, अब वे गोस्वामी अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी हो गये। संसार की चाहना मिट गयी और वे भगवद् आनंद में लीन रहने लगे।
दुनिया के जो बादशाह होते हैं, उनको दुनिया की चाह होती है। लेकिन जो संत होते हैं, उनको कोई चाह नहीं होती है। इसलिए वे शांहशाह होते हैं।
“ चाह गयी चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज शाहंशाह हो गये। उन्होंने बहुत-से ग्रंथों की रचना की, जिनमे रामचरितमानस और विनय-पत्रिका; इन दो ग्रंथों का उच्च स्थान है। इन दो ग्रंथों में भी रामचरितमानस इतना लोकप्रिय हुआ कि भारत का शायद ही कोई वैदिक घर हो, जिसमें रामचरितमानस नहीं हो। देश को कौन कहे, इसकी प्रतिष्ठा विदेशों में भी हो गई। रूस जैसे नास्तिक देश में भी यह प्रवेश कर गया है। रामचरितमानस में लौकिक और पारलौकिक; दोनों जीवन में हम सुख से कैसे रहें, इसकी बहुत अच्छी विवेचना की गयी है। भाई-भाई कैसे रहें, पति-पत्नी कैसे रहें, पिता-पुत्र कैसे रहें, गुरु-शिष्य का संबंध कैसा हो, राजा-प्रजा का व्यवहारा कैसा हो; इन सब बातों का रामचरितमानस में सुंदर ढंग से चित्रण किया गया है। इन कथा प्रसंगों के अतिरिक्त रामचरितमानस में अध्यात्म के निगूढ़ तत्त्वों की विवेचना भी की गयी है। भगवान श्रीराम जब सीताजी का उद्धार करके अयोध्या में राजगद्दी पर बैठते हैं तो गुरु, ब्राह्मणों और प्रजाओं को बुलाकर उपदेश देते हैं। वे कहते हैं-
“ जौं परलोक इहाँ सुख चहहू ।
सुनि मम बचन हृदय दृढ़ गहहू ।।”
अर्थात् आपलोग यदि इहलोक और परलोक दोनों में सुख चाहते हैं, तो मेरी बातों को सुनकर उसे हृदय में धारण में कीजिए। संसार में जबतक हम हैं, हमारे राज्य में आपलोग हैं, तबतक आपको कोई तकलीफ नहीं, किसी प्रकार का कष्ट नहीं।
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
रामराज काहू नहिं व्यापा ।।”
लेकिन जब एक दिन शरीर छूट जाएगा, तब आपलोग जहाँ जाएँगे, वहाँ भी आप सुखपूर्वक रहें, मैं इसके लिए उपाय बतलाता हूँ।
“ सरल सुखद माग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान स्त्रुति गाई ।।”
हे भाई! कोई कठिन मार्ग नहीं है, बल्कि सरल और सुखद है। यह मेरी भक्ति है, जिसे वेद और पुराणों में गाया है। वह भक्ति क्या है? प्रभु का नाम लीजिए और प्रभु के रूप का ध्यान कीजिए। किसी भी इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और आत्मस्वरूप होते हैं। जबतक भक्त अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का लाभ होता। भक्ति करें कैसे, इस संबंध में उपदेश के अंत में भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
साधारणतः इसका अर्थ इस प्रकार किया जाता है-भगवान श्रीराम सबसे हाथ जोड़कर कहते हैं कि मैं आपसे एक गुप्त मत कहता हूँ। वह यह है कि बिना शंकर का भजन किए कोई मेरा भक्त नहीं बन सकता, मेरी भक्ति नहीं पा सकता। लेकिन इस अर्थ के साथ गूढ़ार्थ छिपा हुआ है। भगवान राम ने तो यह कह दिया कि बिना शंकर भजन किए कोई मेरी भक्ति नहीं पा सकता है; लेकिन भगवान श्रीराम ने यह नहीं बतलाया कि किस शंकर की और किसी तरह से भक्ति की जाए। लोग कहेंगे कि हम तो एक ही शंकर को जानते हैं। लेकिन शंकर एक ही नहीं है। यह भी समझना चाहिए। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग; ये चार युग होते हैं। सतयुग में भी शंकर थे, त्रेता में भी शंकर थे, द्वापर में भी शंकर थे; लेकिन कलियुग में कौन शंकर हैं, हम नहीं जानते। अब समझने की बात यह है कि-
“ ब्रह्माण्ड निकाया निरमित माया,
रोम-रोम प्रति वेद कहै ।”
भगवान के एक-एक रोम में एक-एक ब्रह्मांड है। गिन लीजिए, शरीर में कितने रोएँ हैं और इस प्रकार कितने ब्रह्मांड हुए। प्रत्येक ब्रह्मांड में एक ब्रह्मा, एक विष्णु और एक शिव रहते हैं। जब विचार कीजिए कितने शिव हुए।
पौराणिक कथा है कि एक बार अखिल ब्रह्मांड के समस्त शिवों की सभा हुई। उसमें एक सिर के शिव आए, दो सिर के शिव आए, तीन सिर के शिव आए। पाँच, दस, बीस और सौ सिर के शिव आए। यहाँ तक कि हजार और लाख सिर के शिव भी आए। सभी शिवों ने मिलकर नृत्य किया और इतना नृत्य किया कि उतने शिवों के नेत्रें से जो प्रेमाश्रु धारा प्रवाहित हुई, उसी से गंगाजी का अवतरण हुआ।
सतयुग में देव और दानव ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था। समुद्र के मंथन से अमृत का घड़ा निकला। देवगण चाहते थे कि हम अमृत पीएँ और राक्षसगण चाहते थे कि हम अमृत पीएँ। दोनों में लड़ाई हो गयी। विष्णु भगवान ने झगड़ा मिटाने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया। मोहिनी का इतना सुंदर रूप था कि उसे देखकर सभी आसक्त हो गये। मोहिनी ने कहा कि सब बैठ जाओ। मैं सबको अमृत पिलाऊँगी। देवताओं को एक तरफ बैठा दिया गया और दानवों को दूसरी तरफ। देवताओं को अमृत पिला दिया गया और राक्षस बेचारे देखते ही रह गये। अमृत बँट जाने के बाद भगवान शंकर आए और कहा कि हमारे हिस्से का अमृत कहाँ है? भगवान विष्णु ने कहा कि अमृत तो बँट गया। तब फिर से समुद्र मथा गया, पर उससे विष निकला। भगवान शंकर से कहा गया कि आपके हिस्से में तो यही है। अब शिव क्या करे, शिव विष को पीने लगे। जब कंठ तक विष आ गया, तो उनके मन में हुआ कि अगर विष नीचे उतरा, तो ‘राम-नाम सत’ हो जाएगा। नीचे उतारना नहीं है। उन्होंने विष को कंठ में ही रख लिया। विष के प्रभाव से कंठ नीला हो गया। इसलिए उनका नाम ‘नीलकंठ’ हो गया। उन्होंने विष्णु भगवान से कहा कि भगवन् आपने जो मोहिनी का रूप धारण किया था, जिसपर सभी मोहित हो गये थे, वह रूप कैसा था, सो मुझे दिखलाइए। भगवान विष्णु ने कहा कि उस समय आवश्यकता पड़ी थी, इसलिए वैसा रूप धारण किया था। वह देखने योग्य नहीं है, मत देखिये। शिवजी जिद्द करने लगे कि वह रूप दिखलाइये। अब भगवान शंकर के बहुत आग्रह करने पर भगवान विष्णु को उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने मोहिनी का रूप धारण किया। वह रूप इतना सुन्दर था कि भगवान शंकर उसपर आकृष्ट हो गये। मोहिनी भागती जा रही है और ये पीछा करते जा रहे हैं। मोहिनी जहाँ-तहाँ छिप रही है, ये वहाँ-वहाँ उसे खोज रहे हैं। वह दौड़ रही है, ये भी दौड़ रहे हैं। एक बार भगवान शिव की पकड़ में वह आ गयी; लेकिन फिर भी किसी तरह वह फिसलकर भाग गयी। फिर भी ये उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं। होते-होते ये इतने कामासक्त हो गये कि इनका शुक्र स्खलित हो गया, तब कहीं होश हुआ। ये हो गये सतयुग के शिव।
अब त्रेता के शिव को देखें। त्रेता में शिवजी ने समाधि लगायी और ऐसी समाधि लगी कि टूटे ही नहीं। उनकी समाधि को भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया। कामदेव ने उनकी समाधि को भंग किया। शिवजी ने क्रोधभरी आँखों से कामदेव को देखा, तो वह जलकर भस्म हो गया। रामचरितमानस में लिखा है-
“ तब शिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयेउ जरि छारा ।।”
सतयुग के शिव तो काम के वशीभूत हो गये थे और त्रेता के शिवजी काम को जलाकर भस्मीभूत करते हैं।
द्वापर में आ जाइए। देखें कि द्वापर के शिवजी कैसे थे? अर्जुन ने तपस्या की और भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर वरदानस्वरूप पाशुपतास्त्र देते हुए कहा, तुमको कौरवों से युद्ध करना है। ये पाँचों अमोघ वाण लो। जिसपर छोड़ोगे, वह बच नहीं सकेगा और तुम्हारे शिविर की सुरक्षा मैं स्वयं करूँगा। समय आया और महाभारत युद्ध हुआ। कौरवों की हार हुई। कौरव दल में केवल अश्वत्थामा, कृपाचार्य और दुर्योधन ही बचे रहे। अंभ-भंग दुर्योधन बेचारा छिपा हुआ था। कौरवों की हार से अश्वत्थामा का हृदय बदला लेने की आग से जल रहा था। इधर भगवान श्रीकृष्ण पांडवों से कहते हैं कि युद्ध तो समाप्त हो गया, चलो आराम करें। पाँचों पाण्डव को साथ लेकर वे नदी किनारे विश्राम करने के लिए चले गये। रात में अश्वत्थामा आता है। भगवान शंकर शिविर की रखवाली कर रहे थे। उनके विशाल शरीर पर जटाएँ थीं, मुँह से आग की ज्वाला निकल रही थी। हाथ में तीर-धनुष एवं त्रिशूल धारण किये हुए थे। उनका यह विराट रूप अत्यन्त भयंकर था। अश्वत्थामा ने उन्हें देखकर उनके ऊपर तीरों की वर्षा शुरू की; लेकिन उनके शरीर पर तीरों का कोई असर नहीं हुआ। तलवार का आघात किया, पर सब निष्फल ही रहा। अश्वत्थामा बहुत प्रकार के यत्न करके थक गया; लेकिन भगवान श्ांकर अविचल रहे। वहाँ एक यज्ञ अग्नि जल रही थी। कोई अन्य उपाय नहीं देखकर अश्वत्थामा उसमें जाकर बैठ गया और भगवान शंकर का नाम लेने लग गया। भगवान शंकर प्रसन्न हुए और उसे अपनी तलवार देकर उसके शरीर में स्वयं प्रवेश कर गये। पांडवों के शिविर में जितने सोये हुए थे, उसने सबका संहार कर दिया। जो शिवजी शिविर के रक्षक थे, वही भक्षक हो गये। ये हैं द्वापर के शिवजी। अब आप विचारें कि आप किस शिवजी की पूजा करेंगे? सतयुग के शिव की, त्रेता के शिवजी की, या द्वापर की शिव की? कलियुग में तो कोई स्थूल सगुण साकार भगवान शंकर दीखते नहीं।
तब जो भगवान श्रीराम कहते हैं, ‘औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।’ ये कौन शंकर हैं? और उन शंकर की पूजा कैसे की जाए? यह राज की बात है। जबतक संत सद्गुरु नहीं मिलेंगे, इसका ज्ञान नहीं होगा।
“ बिन गुरु भवनिधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि शंकर सम होई ।।”
(गो0 तुलसीदासजी)
‘संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।’
यदि इसका आशय यह लिया जाए कि भगवान शंकर के भक्त ही रामभक्त हो सकते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि जो शंकर भक्त नहीं होंगे, वे रामभक्त नहीं हो सकते, किन्तु रामचरितमानस के विविध प्रसंगों से यह विदित होता है कि शंकर को चुनौती देनेवाले लक्ष्मण, हनुमान और अंगद आदि राम के अनन्य भक्त माने जाते हैं।
राम, लक्ष्मण और सीता के वन-गमन के पश्चात् जब भरतजी ननिहाल से अयोध्या आए और उनको यहाँ की सभी बातों की जानकारी मिली, तो वे राजपाट छोड़, सेना के साथ ले भगवान राम को वापस लाने के लिए जंगल चले। इधर लक्ष्मणजी को पता चला कि भरतजी ससैन्य जंगल आ रहे हैं, तो उनके मन में हुआ कि भरतजी हम दोनों भाइयों को मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहते हैं, इसलिए सेना के साथ आ रहे हैं। उस समय आक्रोश में आकर लक्ष्मणजी कहते हैं-
“ जौं सहाय कर संकर आई ।
तो मारउँ रन राम दुहाई ।।”
अर्थात् राम की दुहाई देकर कहता हूँ कि यदि भगवान शंकर भी भरत की सहायता के लिए आ जाएँ, फिर भी मैं रण में उन्हें मारूँगा। सीता-हरण के पश्चात् जब राम-रावण का युद्ध आरंभ हुआ, तो लक्ष्मणजी ने मेघनाद से कहा था-
“ जौं सत संकर करहि सहाई ।
तदपि हतऊँ रघुवीर दुहाई ।।”
अर्थात् मेघनाद! एक नहीं, यदि सौ शंकर भी तुम्हारी रक्षा करेंगे, तब भी मैं तुम्हें राम की दुहाई से मारूँगा।’ रावण के प्रति हनुमान का वचन है-
“ संकर सहस विष्णु अज तोही ।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।”
रावण के प्रति अंगद का कथन है-
“ जौं खल भयसि राम कर द्रोही ।
ब्रह्म रूद्र सक राखि न तोही ।।” उपर्युक्त चुनौतियाँ तो भगवान राम के भक्तों ने दी हैं। अब हम यह देखें कि सुग्रीव से मैत्री के बाद भगवान श्रीराम स्वयं उससे क्या कहते हैं-
“ सुनु सग्रीव मैं मारिहउँ, बालिहि एकहि बान ।
ब्रह्म रूद्र सरनागतहु, गए न उबरिहिं प्रान ।।”
इन प्रसंगों को पढ़कर मन में प्रश्न उदित होना स्वाभाविक है कि एक ओर तो शंकर-भजन के बिना राम-भक्ति नहीं हो सकती और दूसरी ओर शंकर-शरण जाने पर भी राम के हाथ मरण अवश्यम्भावी होता है, यह कैसी बात? आखिर, शंकर कौन और उनके भजन का तात्पर्य क्या है? समझना आवश्यक है।
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
यद्यपि गोस्वामीजी ने रामचरितमानस के बालकांड और उत्तरकांड से पग-पग पर संत- सद्गुरु की महिमा गाई ही है, तथापि प्रत्येक कांड में भी गुरु-गुण गाते वे अघाते नहीं। यथा-
“ बंदउँ गुरु पद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबिकर निकर ।।”
(बालकांड)
आप अयोध्याकांड में देखें, गोस्वामीजी ने गुरु की चरण-धूलि की वंदना की है-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।”
अरण्यकांड में नवधा-भक्ति का उपदेश करते हुए भगवान श्रीराम शबरीजी से कहते हैं-‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’ किष्किन्धाकांड के अंतर्गत है-
“ भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद रितु पाइ ।
सदगुरु मिलें जाहिं जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।।”
सुन्दरकांड में भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-
“ सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बालहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगि ही नास ।।”
लंकाकांड के समरांगण में श्रीराम ने विभीषण को उपदेश दिया है-
“ कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा ।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।।”
उत्तरकांड के लिए तो कहना ही क्या, उसमें गुरु-महिमा का भरपूर वर्णन मिलता है। यथा-
“ करनधार सदगुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
‘बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु ।’
“ जे सठ गुरु सन इरिषा करहीं ।
रौरव नरक कोटि जुग परहीं ।।”
आदि जब भगवान श्रीराम रावण का संहार कर, सीता का उद्धार कर 14 वर्षों के बाद अयोध्या आते हैं, तो पुत्र को देखकर माँ कौशल्या विह्वल हो जाती है। अपने दोनों भुजाओं में उन्हें समेटकर गोद में बिठा लेती है और उनके अंगों को सहलाते हुए कहती हैं कि बेटा! तुम्हारा शरीर तो कमल से भी अधिक कोमल है। तुमने उस दुर्दान्त राक्षस रावण को कैसे मारा, जिसका त्रिभुवन पर अधिकार था, तीनों लोक जिसके डर से थर-थर काँपते थे? तो भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे ।
तिनकी कृपा दनुज रन मारे ।।”
यह तो कुलगुरु वशिष्ठजी की महिमा है, उन्हीं की कृपा से रावण का संहार हुआ।
संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं, ‘गुरु की महिमा अधिक है गोविन्द तें।’ एक भक्तिन हुई सहजोबाई। वह कहती हैं-
“ राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।”
संत चरणदासजी महाराज उनके गुरु थे। अंत में व कहते-कहते कह देती हैं-
“ चरणदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
आवागमन के चक्र से छूटने के लिए गुरु तो उपदेश करते ही हैं, हम यह भी देखें कि इस संबंध में भगवान शिव क्या कहते हैं, हमें किसी शिव की आराधना करनी चाहिए।
एक बार ब्रह्माजी शिवजी के पास गये और उनसे कहा, ‘संसार मे लोग दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रितापों से संतप्त होते रहते हैं, इससे छुटकारा पाने के लिए क्या उपाय है, सो आप बतलाइये। भगवान शंकर ने कहा-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात् विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
ब्रह्माजी पुनः पूछते हैं कि इस तरह आपकी उपासना तो हो गयी, पर राम उपासना- विष्णु की उपासना कहाँ हुई? भगवान शंकर उत्तर देते हैं-
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात् विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
इस तरह जो विन्दु और नाद की उपासना करते हैं, वे शक्ति और शिव की तथा लक्ष्मी और विष्णु की भी उपासना कर लेते हैं। यह शरीर ही शिवालय है। यह शरीर ही ठाकुरबाड़ी है। इसको जितना पवित्र बनाकर रख सकें, उतना ही अच्छा है। साधना के द्वारा शरीर के अंदर ही आत्मदर्शन होगा, परमात्म-दर्शन होगा; जीवन कल्याणमय हो जाएगा। अभी आपलोगों ने भगवान श्रीराम और भगवान शिव के उपदेशों का सार सुना। गो0 तुलसीदासजी की जयन्ती के अवसर पर हम भी यह व्रत लें कि भगवान की आज्ञा का हम पालन करेंगे। उनकी आज्ञा के पालनार्थ हमें किसी सच्चे गुरु की शरण में जाकर साधना की क्रिया सीखनी चाहिए और तदनुकूल अभ्यास करना चाहिए। इस तरह हमारा इहलोक तथा परलोक दोनों कल्याणमय होगा। अगर हम सद्गुरु धारण नहीं करते हैं, तो क्या होगा? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ रविपंचक जाके नहीं, ताहि चतुर्थी नाहिं ।
तेहि सप्तक घेरे रहै, कबहुँ तृतीया नाहिं ।।”
जिसको रविपंचक नहीं है यानी रवि का पाँचवाँ दिन गुरुवार नहीं है यानी गुरु नहीं है, ‘ताहि चतुर्थी नाहिं’। रवि का चौथा दिन बुधवार अर्थात् उसको सुबुद्धि नहीं होगी। परिणाम क्या होगा? ‘तेहि सप्तक घेरे रहे’, रवि का सातवाँ दिन-शनिवार अर्थात् उसको शनि ग्रह घेरे रहेगा। ‘कबहुँ तृतीया नाहिं’। उनके जीवन में रवि का तीसरा दिन मंगलवार अर्थात् मंगल-कल्याण नहीं आएगा। इसलिए इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ। जो मुझसे कोई श्रेष्ठ होंगे, उनको मैं प्रणाम करता हूँ, जो आशीर्वाद लेने योग्य हैं, उनको मैं आशीर्वाद देता हूँ। और मैं सबको धन्यवाद देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 4-8-2003 ई0 को भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर, में तुलसी जयन्ती के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2003 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जिस सभा में आपलोग बैठे हुए हैं, यह संतमत-सत्संग की सभा है। इस संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर की भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती की है-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति यशगान करने को कहते हैं। ईश-स्तुति में ईश्वर के यश का गान होता है, ईश्वर के स्वरूप की महिमा बतलाया जाती है। ईश्वर के स्वरूप की, ईश्वर के सद्गुणों की चर्चा होती है। जब हम ईश्वर की प्रशंसा करते हैं, यशगान करते हैं, तो ऐसा नहीं कि इससे ईश्वर हमपर प्रसन्न हो जाएँ, तो जो हम माँगेगे, हमको दे देंगे। लेकिन जो उनकी निन्दा करते हैं, उनका तो वे विनाश कर देंगे; किन्तु ऐसी बात नहीं है। वस्तुतः हमारी प्रशंसा से न तो वे प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से वे खिन्न होते हैं। बल्कि हम जो उनकी स्तुति गाते हैं, प्रशंसा करते हैं, उससे मन शुद्ध होता है, पवित्र होता है और उनकी ओर हमारा आकर्षण होता है, झुकाव होता है। हमारे सामने यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थान की प्रशंसा करता है, उसके सद्गुणों का, उसकी विशेषता का वर्णन करता है, तो मन में स्वतः उत्कंठा होती है कि वे इतने अच्छे व्यक्ति हैं, उनसे भेंट हो जाती, तो कितना अच्छा होता। जैसे-कौरव- सभा में युधिष्ठिर के सामने वारणावत की प्रशंसा की गयी, तो वे वहाँ चले गये। अथवा व्यासदेव ने युधिष्ठिर से कहा कि हिमालय में धन है, तो वे वहाँ जाकर, वहाँ से धन लाकर यज्ञ किए। इसी प्रकार यदि कोई किसी के संबंध में कहता है कि उसमें अमुक-अमुक अवगुण है, दुर्गुण भरे पड़े हैं, उनके विचार अच्छे नहीं हैं, व्यवहार अच्छा नहीं है, तो ऐसा सुनकर हमारे मन में उसके प्रति घृणा होती है, विकर्षण होता है। जिस तरह किसी के सद्गुणों को सुनकर उस ओर आकर्षण होता है, श्रद्धा होती है और किसी के दुर्गुणों को सुनकर उस ओर से विकर्षण होता है, घृणा होती है; उसी तरह ईश्वर का यशगान करके ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा बढ़ती है, विश्वास बढ़ता है, प्रेम बढ़ता है। जिससे हमारा प्रगाढ़ प्रेम होगा, उससे मिलने के लिए, उसके लिए सब कुछ करने के लिए हम तैयार हो जाएँगे। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
“ जाने बिनु न होय परतीती ।
बिन परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेश जल कै चिकनाई ।।”
अर्थात् परमात्मा में हमारी श्रद्धा हो, उनसे मिलने के लिए हम उनकी ओर बढ़ें, इसलिए हम उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति के बाद प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना कहते हैं-विनम्रतापूर्वक कुछ माँग लेने को। संत को छोड़कर ऐसा कोई हृदय नहीं है, जिसमें कुछ-न-कुछ माँग नहीं हो। मात्र संत के हृदय में ही माँग नहीं होती, कोई चाह या इच्छा नहीं होती है।
“ चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए, सोइ शाहंशाह ।।”
-संत कबीर साहब
छोटे से लेकर बड़े तक सबके मन में चाहना होती है। अब प्रश्न उदय होता है-अगर हमारे अंदर माँग है, तो कितनी है? यदि गणना करें, तो ठिकाना नहीं मिलेगा, अंत ही नहीं होगा। जैसे समुद्र में लहरें उठती रहती हैं, वैसे ही मन में इच्छाओं की लहरें उठती रहती हैं-यह चाहिए, वह चाहिए। जितना मिलता जाता है, उतनी ही माँग बढ़ती जाती है। न मालूम कितना चाहिए।
संतों ने कहा-तुमको अगर माँगना ही है, तो जरा सोच-समझकर माँगो। तुम बादशाह के दरबार में जाओ। बादशाह तुमको पूछे कि तुमको क्या चाहिए और तुम कहो कि पाव भर रसगुल्ला खिला दीजिए, तो बादशाह से पाव भर रसगुल्ले की माँग बुद्धिमत्ता नहीं, ज्ञानहीनता ही कही जाएगी। वहाँ सोच-समझकर माँगना होगा। उसी तरह जो परम प्रभु परमात्मा से कुछ देनेवाले हैं, उनसे माँगने के पहले सोच-समझकर निर्णय कर लो। कबीर साहब ने कहा-
“ क्या माँगौं कछु थिर न रहाई ।
देखत नैन चल्यो जग जाई ।।”
यदि हम सांसारिक वस्तु की माँग करते हैं, तो वह संसार में रह जाएगी। संसार की कोई वस्तु हमारे साथ जानेवाली नहीं है। किसी ने कहा कि कुछ बाल-बच्चे माँग लो। तो उससे पूछा-कितने बाल-बच्चे माँगोगे? दो-चार, बीस-पचीस, कितना चाहिए तुम्हें? क्या तुम जानते हो-
“ एक लाख पूत सवा लाख नाती ।
जा रावण घर दिया न बाती ।।”
भगवान बुद्ध का जमाना था। उनकी एक बड़ी भक्तिन शिष्या थी-विशाखा। उसको एक पोता था, वह मर गया। पोता के मर जाने के कारण बेचारी विकल हो गयी। भींगे वस्त्र रोती-रोती भगवान के चरणों में आई और करुण-क्रंदन करने लग गई। उसके क्रंदन को देखकर भगवान बुद्ध ने पूछा,‘विशाखा! तुमको क्या हो गया, तुम इस तरह विकल क्यों हो?’ विशाखा ने उत्तर दिया,‘भन्ते! क्या बतलाऊँ, एक ही पोता था, वह चल बसा। उसी के दुःख से मैं दुःखी हूँ।’ भगवान बुद्ध ने कहा,‘विशाखा! एक पोता के लिए तुम इतना विकल हो रही है? तुमको मालूम है कि इस श्रावस्ती नगर की आबादी कितनी है?’ विशाखा ने कहा,‘एक करोड़ की।’ भगवान ने पूछा,‘मैं अगर तुमको एक करोड़ पोते दे दूँ, तो तू प्रसन्न हो जाएगी?’ विशाखा बोली,‘हाँ भगवन्! तब तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहेगा।’ भगवान बुद्ध ने पुनः पूछा,‘विशाखा! अच्छा, एक बात बतलाओ कि श्रावस्ती में कभी कोई मरते भी हैं?’ उसने उत्तर दिया,‘भगवन्! जहाँ एक करोड़ की आबादी है, वहाँ पाँच-दस रोज ही मरते हैं।’ भगवान बुद्ध ने कहा,‘विशाखा! जरा सोचो, तुम्हारे एक करोड़ पोते हों और पाँच-दस रोज मरें, तो तेरी क्या हालत होगी।’ विशाखा ने कहा,‘ भगवान्! मैं अब समझ गयी, मुझको पोता नहीं चाहिए।
कोई कहते कि बाल-बच्चे नहीं माँगो, तो धन- दौलत ही माँग लो। परन्तु धन-दौलत, सोना-चाँदी कितना माँगोगे? अरे! ‘सोने का महल रूपे का छाजा, छोड़ चले नगरी के राजा।’ संत कबीर साहब ने कहा है। जिसका महल ही सोने का था, वह प्रतापी रावण उसे छोड़कर प्रलाप करते चला गया। हनुमानजी लंका गये और एक दिन में जलाकर भस्म कर दिये। तब क्या माँगो? गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ सुत वित लोक ईषणा तीनी ।
केहि कर मति इन्ह कृत न मलीनी ।।”
लोगों के मन में तीन चीजों की चाहनाएँ उठती हैं-संत (संतान) मिले, वित्त (धन) मिले और लोक में पद-प्रतिष्ठा मिले। लेकिन ये तीनों मन को मलीन करनेवाले हैं। तो क्या माँगो? गो0 तुलसीदासजी अपना विचार देते हैं, वे कहते हैं-‘जग जाँचिये काहु न’ संसार में किसी से कुछ मत माँगो। वे कितना देंगे? जितनी उसकी क्षमता है, उसी के अंदर वे दे सकते हैं, वह सीमित है। और वह क्षमता आई हुई कहाँ से है? परम प्रभु परमात्मा से। हमलोगों के घरों में छत के ऊपर पानी की टंकी बनी रहती है। टंकी से पानी के नल का संबंध रहता है। हम नल खोलते हैं और पानी लेते हैं। लेकिन टंकी में पानी कहाँ से आता है? जहाँ बोरिंग है। बोरिंग से टंकी में पानी सप्लाय होता है और टंकी से हम पानी लेते हैं। यदि हमारे नल का सीधा सम्पर्क बोरिंग से हो, तो कैसा रहेगा? अरे! टंकी कभी खाली भी हो सकती है; लेकिन बोरिंग का पानी कभी खाली होता नहीं। जितने देवी-देवता हैं, वे सब एक-एक पानी टंकी के समान हैं, उनकी क्षमता सीमित है। इसलिए अगर संबंध जोड़ना है, तो बोरिंग से जोड़िये। अर्थात् परम प्रभु परमात्मा से जोड़िये, जो कभी घटनेवाला या सूखनेवाला नहीं है। इसी दृष्टिकोण को अपनाकर गोस्वामीजी कहते हैं कि संसार में किसी से कुछ नहीं माँगो। यदि तुम्हारी इच्छा कुछ याचना करने की है, कुछ माँगने की है तो,‘जाँचिए जौं जग जानकी जानहिं जाँचिए जी’। जो जग की जान है, उनसे याचना कीजिए। अर्थात् परम प्रभु परमात्मा से उन्हीं की याचना कीजिए। यदि उनसे उनकी ही याचना करते हैं, तो परिणाम क्या होगा? ‘जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाय।’ अर्थात् जिससे एक बार याचना कर लेने पर फिर कभी भी याचना करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। याचना का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है।
एक पौराणिक कथा सुनाऊँ-कौरव और पाण्डव का युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया था। दोनों दलों के लोग अपनी-अपनी सेना का संगठन कर रहे थे। कौरव और पाण्डव दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण का सहयोग चाहते थे। दुर्योधन की पुत्री से भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र का विवाह हुआ था। दुर्योधन ने पहले ही भगवान को खबर दे रखी थी कि हम आपसे मिलने के लिए आ रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण उनके स्वगातार्थ के लिए सोने की कुर्सी रखवाकर स्वयं पलँग पर चादर ओढ़कर सो गये। यद्यपि अर्जुन ने भी भगवान को अपने आने की खबर दी थी, तथापि उनके बैठने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। जब दुर्योधन वहाँ गये, तो देखते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण चादर ओढ़कर सोये हुए हैं और उनके सिरहाने की ओर बगल में एक कुर्सी रखी हुई है, वे उसपर बैठ गये। पश्चात् अर्जुन वहाँ पहुँचे। वे भगवान के पाँव के नीचे बैठ गये। यह देखकर दुर्योधन मन-ही- मन जलने लग गया कि इसको अपनी प्रतिष्ठा का कोई ख्याल नहीं है, मान-मर्यादा का कोई विचार नहीं। इसी बीच भगवान अपनी चादर हटाते हैं। कोई सोकर जागेगा, तो पहले पैर की ओर देखेगा। पैर की ओर अर्जुन बैठे हुए थे, अतएव भगवान की नजर पहले अर्जुन पर पड़ी। उन्होंने अर्जुन से कुशल समाचार पूछकर उनके आने का कारण पूछा। अर्जुन ने उत्तर दिया-आप तो जानते ही हैं कि हम दोनों भाइयों में युद्ध होना निश्चित हो गया है। अतएव मैं आपकी सहायता पाने के लिए यहाँ आया हूँ। इतने में दुर्योधन कहते हैं कि मैं तो पहले से आया हूँ। भगवान ने कहा-आप भी आए हुए हैं! अच्छा कहिए, क्या समाचार है, कैसे आए? दुर्योधन ने भी वही बात कही कि युद्ध में आपसे सहयोग के लिए आया हूँ। भगवान ने कहा-देखिए, हमारे बड़े भाई साहब कह गये हैं कि कौरव और पाण्डव दोनों ही अपने कुटुम्ब हैं, किसी एक तरफ से युद्ध करना उचित नहीं है। पक्षपातवाली बात हो जाएगी। इसलिए मैं युद्ध नहीं करूँगा। अवश्य ही मैं अपनी नारायणी सेना दे सकता हूँ। किन्तु बात यह है कि एक तो मैंने पहले अर्जुन को देखा है और दूसरी बात यह है कि अर्जुन आपसे छोटे भी हैं, इसलिए पहले अर्जुन ही माँग करे, यही ठीक है। जिस किन्हीं की तरफ मैं रहूँगा, युद्ध नहीं करूँगा। दूसरी ओर रहेगी मेरी नारायणी सेना। अर्जुन बताए कि वे क्या लेना चाहते हैं-मुझको अथवा नारायणी सेना को। अब दुर्योधन का मन घबड़ाने लगा। वे सोचने लगे कि अगर कहीं इसने नारायणी सेना माँग ली, तो केवल कृष्ण को लेकर हम क्या करेंगे; क्योंकि ये तो युद्ध करेंगे नहीं। अर्जुन ने कहा-भगवन्! आप युद्ध कीजिए अथवा नहीं कीजिए, वह आपकी मर्जी है; लेकिन मैं तो आपको ही लूँगा, नारायणी सेना नहीं चाहिए। यह सुनकर दुर्योधन की चिन्ता दूर हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-अर्जुन! सोच-समझकर बोलो। अर्जुन-मैंने जो कुछ कहा है, सोच-समझकर ही कहा है, आपही चाहिए मुझे। आप युद्ध नहीं कीजिएगा, कोई बात नहीं; लेकिन आप मेरे रथ का सारथी बनकर मेरा मार्गदर्शन कीजिएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार की और नारायणी सेना दुर्योधन को मिल गयी। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के पक्ष में हो गये और नारायणी सेना ने युद्ध में दुर्योधन का साथ दिया। विजय किसकी हुई? यतो धर्मस्ततो जयः, जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है। भगवान की कृपा से पाण्डवों की जीत हुई। राज-पाट, धन-दौलत सब कुछ मिल गया। भला, जिनको भगवान ही मिल गये, उनको मिलने के लिए और बाकी क्या रह गया। उस तरह माँगना हो तो परमात्मा से परमात्मा को ही माँगो। फिर तो विजय ही विजय है, कुछ भी पाने के लिए बाकी नहीं रह जाएगा। इसीलिए संत तुलसीदासजी कहते हैं-
“ जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाय,
जो जारता जोर जहाँनहि जी।”
जो समस्त संसार को जला रही है, वह याचना ही जलकर समाप्त हो जाए, परमात्मा से ऐसी याचना करो। अर्थात् प्रभु से प्रभु का ही माँगो और कुछ माँग मत करो। तीसरी बात है उपासना। उप+आसन अर्थात् प्रभु की निकटता प्राप्त करना। कोई कह सकते हैं कि क्या, प्रभु हमसे दूर हैं, वे तो सर्वव्यापी हैं, सर्वत्र हैं, तो फिर उनकी निकटता कैसी? बात तो सत्य है कि प्रभु आपके निकट ही हैं; लेकिन समस्या तो विकट यह है कि निकट रहते हुए भी आप उनको पहचानते हैं, देखते हैं? ‘हरदम प्रभु रहे संग कबहुँ भव दुख न टरै।’ आपके घर में हीरे की खान हो और आपको पता ही नहीं हो, तो आप क्या आपका दुःख, आपकी दरिद्रता दूर हो सकती है? नहीं। उसी तरह जहाँ हम हैं, वहीं पर परम प्रभु परमात्मा हैं; लेकिन हमको पता नहीं है कि वे कहाँ हैं, कैसे हैं? इसीलिए दुःखी हैं, कभी तृप्ति नहीं होती, कल्याण नहीं होता। संत कबीर साहब ने कहा-
‘सबके निकट दूर सबहीं तें।’
कोई कहे कि सबसे निकट और सबसे दूर भी-ये दोनों तरह की बातें कैसे हो सकती हैं? उत्तर में निवेदन है-जिन्होंने पहचान लिया, उनके लिए निकट ही है, दूर नहीं है। किन्तु जिन्होंने पहचाना नहीं, उनके लिए दूर है। तब जहाँ पहचान होगी, वहाँ हमें जाना होगा। हम कहाँ हैं और प्रभु कहाँ हैं? महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
“ तुम उतरि पर्यो तम माँहिं, पीव निःशब्द में ।
याते परि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।”
तुम अंधकार में पड़े हुए हो और प्रभु की पहचान निःशब्द में होगी। इसीलिए वहाँ चलना है। दूरी कितनी है? तो संत कबीर साहब कहते हैं-
“ लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार ।
कहौ संतो क्यों पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।”
रास्ता बड़ा लम्बा है। कितना लम्बा है? इसकी कुछ माप तो होगी! गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-‘जेहि मारग के गणे जाय न कोसा।’
आजकल किलोमीटर की माप है। गुरु नानकदेवजी महाराज के जमाने में कोस की माप थी। वे कहते हैं-वह मार्ग इतना लंबा है कि उसके कोस की गणना ही नहीं हो सकती है। रास्ते में चलते हुए भूख-प्यास लगे, तो क्या खाएँगे-पीएँगे? वे कहते हैं कि ‘हरि के नाम सदा संगि तोषा।’ प्रभु का जो नाम है वही पाथेय है।
यम ने नचिकेता से कहा था कि रास्ता कैसा है-क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति। (कठोपनिषद्) अर्थात् जिस प्रकार क्षूरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज भी यही बात कहते हैं-
‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।’
तलवार की धार से भी पतला और बाल की नोंक से भी महीन। ऐसे रास्ते से चलना है। कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। यदि जाना अति आवश्यक है, तो कैसी भी कठिनाई वा समस्या क्यों न हो, जाना पड़ता है। मान लीजिए अमुक ट्रेन से हमको जाना है और बर्फ गिर रही है, बहुत ठंढ पड़ रही है, तो क्या हम घर में बैठे रह जाएँगे? कितनी भी ठंढ पड़ रही हो अथवा कड़ाके की गर्मी पड़ रही हो, लू चल रही हो, फिर भी जाना यदि आवश्यक है, तो जाते ही हैं। उसी प्रकार जबतक प्रभु के पाास जाएँगे नहीं, उनको पाएँगे नहीं, शांति मिलेगी नहीं, आवागमन का चक्र छूटेगा नहीं। दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रितापों से जो संतप्त होते रहते हैं, उनसे हम मुक्त हो सकते नहीं। इसलिए जाना तो पड़ेगा। जिज्ञासा हो सकती है-कहाँ से जाएँगे? उत्तर में निवेदन है-जो जहाँ बैठा रहता है, वहाँ से ही चलता है। आप कहाँ बैठे हुए हैं, आँखें बंद करके देखिए; क्योंकि हम शरीर के बाहर कहीं लटके हुए तो नहीं हैं। हम अपने शरीर के अंदर हैं। बाहर की चीजों को हम आँखें खोलकर देखते हैं, तो जो भीतर की चीज है, उसको देखने के लिए क्रिया उलटनी पड़ेगी। अर्थात् आँखें बंदकर देखना होगा। आँखें बंदकर देखते हैं, तो पाते हैं कि कुछ नहीं सूझता है। संतजन कहते हैं कि जरा ठीक से देखो, तो सूझेगा। जब हम ठीक-ठिकाने से देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि अंधकार है, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। संतजन कहते हैं, अरे भाई! अंधकार में क्या चीज सूझेगी। इसी अंधकार में तुम हो और यहीं से तुमको चलना है। कैसे चलेंगे? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर ।।”
तुम्हारी वृत्तियाँ संसार में फैली हुई हैं, इसिलए तुम प्रभु से दूर हो। अपनी बिखरी हुई धाराओं को समेटो। जब पूर्ण सिमटाव हो जाएगा, तो ‘आठो पहर हजूर’ वाली बात की प्रत्यक्षता हो जाएगी। परमात्मा को सतत नजदीक पाओगे। पूर्ण सिमटाव कैसे होता है? विन्दु ध्यान में पूर्ण सिमटाव होगा। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होता है, तब अंधकार से प्रकाश में जाना होता है। प्रकाश में पहले अनहद नाद मिलता है, फिर अनाहत नाद। वही अनाहद नाद परमात्मा से मिलाता है। यही सूक्ष्म उपासना है। पर सूक्ष्म उपासना की योग्यता प्राप्त करने के लिए पहले स्थूल उपासना करनी पड़ती है। जैसे हमलोग पढ़ने के लिए जब विद्यालय जाते हैं, तो पहले मोटे-मोटे अक्षरों को लिखते हैं और सरलाक्षरों को पढ़ते हैं। पीछे लिखते-लिखते महीन अक्षर लिखते हैं और संयुक्ताक्षर पढ़ते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे बाह्यजगत् की विद्या सीखने के लिए भी आरंभ पहले मोटे अक्षरों से और सरलाक्षर से ही करते हैं; उसी तरह भीतर की विद्या पढ़ने के लिए भी हमको पहले मोटी भक्ति करनी होगी। संतों ने बतलाया कि पहले मानस जप करो और मानस ध्यान करो। जिन सज्जनों को उपासना की ये स्थूल और सूक्ष्म विधियाँ ज्ञात हैं, वे उनका नियमित रूप से अभ्यास करें और जो नहीं जानते हैं, उन्हें चाहिए कि किन्हीं सच्चे सद्गुरु का शरण में जाकर उस ज्ञान को जानें और करें। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 4।34
उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 25-1-2004 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 2004 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
नरतन की उपादेयता भोगों की बहुलता में नहीं, भगवद्-भक्ति की मादकता में है। ईश्वर-भक्ति में मात्र मानव का ही नहीं, प्राणिमात्र का हित निहित है। इसलिए इस संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है।
संतों ने ईश्वर की उपासना में दो साधनाएँ बतलाई हैं-जप और ध्यान। जप के चार प्रकार हैं-वाचिक जप, उपांशु जप, श्वास जप और मानस जप। इसी तरह ध्यान के यद्यपि सगुण और निर्गुण; ये दो भेद हैं, तथापि उसको चार भागों में विभक्त किया गया है-स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान, सूक्ष्मतर ध्यान और सूक्ष्मतम ध्यान। जैसे दृढ़ नींव के बिना सुदृढ़ और सुन्दर सदन नहीं बन सकता, उसी प्रकार सुदृढ़ जप के बिना ध्यान-रूप भव्य-भवन नहीं बन सकता। इसलिए संतों ने आरंभ में जप पर जोर दिया। यह पूर्ववर्ती साधना है और ध्यान परवर्ती। इस जप-ध्यान की चर्चा नवीन नहीं है, बल्कि प्राचीनकाल से संतों की वाणियों और सच्छास्त्रें में चली आ रही है। महर्षि पतंजलि अपने योगाशास्त्र में कहते हैं-‘जपात् सिद्धिः।’ जप सर्वसिद्धियों का सोपान है। त्रेता युग में जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम परम भक्तिन शवरी के आश्रम पधारे थे, तब उन्होंने उनको नौ प्रकार की भक्ति बतलाई थी, जिसमें मंत्र जप को पाचवाँ स्थान दिया।
“ मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।”
-रामचरितमानस
द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बतलाया-‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।’ अर्थात् यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ। (गी0 10। 25) भगवान शंकर स्वयं जप करते थे और सत्संग करने के लिए कागभुशुण्डिजी के यहाँ जाया करते थे। कागभुशुण्डिजी भी जप करते थे।
एक बार भगवान शंकर समाधि में थे। सतीजी प्रतीक्षा कर रही थी कि ये कब समाधि से उतरेंगे। बहुत प्रतीक्षा के बाद भगवान शंकर जप करते हुए अपनी समाधि से सामान्य अवस्था में आते हैं।
“ राम नाम शिव जापन लागे ।
जानी सती जगतपति जागे ।।”
-रामचरितमानस
रामचरितमानस में कागभुशुण्डिजी के लिए भी लिखा है कि वे पाकड़ वृक्ष के नीचे बैठकर जप-रूपी यज्ञ किया करते थे। ‘जाप यज्ञ पाकरि तर करई’ जब हम जोर से मंत्र का उच्चारण करते हैं, जिसको और लोग भी सुनते हैं, वह वाचिक जप कहलाता है। उपांशु जप में स्वर इतना धीमा होता है कि होठ हिलते हैं, जिभ्या हिलती है, लेकिन अधिक-से-अधिक अपना ही कान सुन सकता है, दूसरे का नहीं। श्वास जप में श्वास के आने और जाने के साथ जप किया जाता है और मानस जप में मन से ही मंत्रवृत्ति होती है। संतमत में मानस जप की अधिक चर्चा है। वाचिक और उपांशु जप गौण हैं तथा श्वास जप का स्थान नगण्य है। संतों की वाणियों में श्वास जप की महिमा इस तरह गाई गई है-
“ कहता हूँ कहि जात हूँ, कहूँ बजाये ढोल ।
श्वासा खाली जात है, तीन लोक को मोल ।।
ऐसे महँगे मोल का, एक श्वास जो जाय ।
तीन लोक नहिं पटतरे, काहे धूल मिलाय ।।”
एक श्वास की इतनी कीमत है, वह तीनों लोक या चौदहो लोक पर आधिपत्य कर सकता है। (कबीर साहब के वचन में कहीं-कहीं तीन लोक की जगह चौदह लोक लिखा है।) हमलोग प्रतिदिन इक्कीस हजार छः सौ श्वास लेते हैं। गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं कि अगर प्रत्येक श्वास में जप किया जाए, तो स्वाभाविक ही अनहद ध्वनि की अनुभूति होने लग जाएगी।
“ छः सौ सहस इकीसो जाप ।
अनहद उपजै आपे आप ।।”
कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर माला काठ की, बहुत जतन का फेर ।
माला श्वास उसाँस की, जामें गाँठ न मेर ।।”
लोग जो काठ की माला पर जप करते हैं, उसमें एक सौ आठ दाने रहते हैं। एक तरफ से एक-एक करके गिनना शुरू करते हैं, अंत में एक समेरु रहता है। गिनते-गिनते जब सुमेरु के पास पहुँचते हैं, तो वहाँ से उलटते हैं, सुमेरु को लाँघते नहीं हैं। इस तरह उस माला पर मंत्र जपते हुए गिनते चले जाते हैं। हजार जपें, लाख जपें या जितना जपें, उसी माला पर हिसाब रहता है। संत कबीर साहब कहते हैं-काठ की जो माला है, उसमें बहुत हेर-फेर है-उलटाओ-पलटाओ, पर सुमेरु को लाँघो नहीं। एक तो मन मनका पर रहता है, फिर गिनने पर रहता है और मंत्र पर भी लगाना पड़ता है। इस प्रकार मन कई भागों में बँट जाता है, एकाग्रता नहीं आती। पुनः वे कहते हैं-
“ माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुँह माँहि ।
मनुवाँ तो दहु दिस फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।”
लेकिन जो श्वास जप है। उसमें दाना गिनने का काम ही नहीं है, बल्कि गुरु नानकदेवजी ने कहा है कि-
“ तसवी एक अजूब है, जामै हरदम दाना ।
कुंज किनारे बैठिकै, फेरा तिन जाना ।।”
जो माला श्वास की है, उसमें गाँठ-मेरु नहीं है, जितना जपना चाहें, जपते जाइए। संत सुन्दरदासजी महाराज ने कहा-
“ स्वासो स्वास राति दिन सोहं सोहं होइ जाय ।
याहि माला बारंबार दृढ़ कै धारतु है ।।
देह परे इन्द्री परे अंतः करण परे ।
एकही अखंड जाप ताप कूँ हरतु है ।।
काठ की रुद्राच्छ की रु सुतहू की माला और ।
इनके फिराये कछु कारज सरतु है ।।
सुन्दर कहत ता तें आत्मा चैतन्य रूप ।
आपको भजन सो तो आपही करतु है ।।”
पंजाब के एक महात्मा बुल्लेशाह ने श्वास जप के विषय में इस प्रकार कहा-
“ सोहं हंसा लागलि डोर ।
सुरति निरति चढु मनवाँ मोर ।।”
हमलोग श्वास लेते हैं। श्वास लेने में ध्वनि होती है-‘सो’ और जब छोड़ते हैं, तब होती है-‘हम्’। इस प्रकार सोऽहम् का जप तो ध्वनि होती है-‘सो’ और जब छोड़ते हैं, तब होती है-‘हम्’। इस प्रकार सोऽहम् का जप तो दिन-रात होता ही है। ‘सो’ का अर्थ होता है-वह अर्थात् परमात्मा। ‘सोऽहम्’ अर्थात् जो परमात्मा हैं, वही हम हैं। हम उस प्रभु के अभिन्न अंश हैं। महर्षि मेँहीँ-पदावली में हम पढ़ते हैं-
‘जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये ।’
एक महात्मा हुए स्वामी ब्रह्मानन्दजी, उन्होंने कहा- “ प्रति पल, प्रतिक्षण, प्रति श्वास में ‘हरि’ यानी सब दुःखों को हरण करनेवाले प्रभु का स्मरण करो।”
‘छन-छन पल-पल घड़ी-घड़ी, नर स्वासे से सुमिरो हरी हरी।’ श्वास जप की विधि यह है कि हमलोग जो श्वास लेते और छोड़ते हैं, इसी के साथ मंत्र जप करने के लिए बतलाया जाता है। वाचिक जप से उपांशु जप में अधिक एकाग्रता आती है और उपांशु जप से श्वास जप में अधिक एकाग्रता आती है। श्वास जप करने के लिए संत कबीर साहब भी कहते हैं-
“ यह मन तो है हस्ती मस्ती काया मिऋी की ।
स्वास स्वास में नाम सुमिर ले अवधि घटे तन की ।।”
यह मन बड़ा चंचल है। हाथी के समान मदमस्त है, पर यह शरीर क्षणभंगुर है। मिट्टी का कच्चा बर्तन कितने समय तक रहेगा? उस पर पानी पड़ जाए, तो वह शीघ्र समाप्त हो जाता है। हमलोगों का शरीर भी कच्ची मिट्टी के घड़े के समान है। कब गल जाएगा, कब बेकार हो जाएगा, कोई ठिकाना नहीं है। इसलिए प्रत्येक श्वास में प्रभु का सुमिरन- स्मरण करो।
कुछ वर्ष पूर्व मैं कार से मुजफ्रफरपुर की यात्र कर रहा था। रास्ते में मैंने देखा कि सड़क के किनारे ताजे फूल-मालाओं से सजी हुई एक नई कार उलटी हुई है। लोगों से पूछा कि क्या बात है? लोगों ने बतलाया कि रात में लड़के का विवाह हुआ था। दहेज में यह कार मिली थी। वह अपनी पत्नी को लेकर अपने घर जा रहा था। गाड़ी पर उसकी पत्नी का भाई था और उस लड़के का मित्र भी था। गाड़ी उलट गई और चारो का ‘राम नाम सत्त’ हो गया। वही गाड़ी पड़ी हुई है। समझिए, जिस लड़के और लड़की का विवाह हुआ था, वे दोनों उस कार में क्या-क्या सपने संजोए हुए जा रहे होंगे, लेकिन ‘मन की मनही महिं रही’ वाली बात चरितार्थ हो गई। इस शरीर का कोई ठिकाना नहीं है। इसलिए संतों ने कहा कि भगवद्भजन करो। गुरु महाराज की वाणी में आया है-
‘गुरु जाप जपन साँचो तप सकल काज सारणं ।’
अगर एकाग्रतापूर्वक सही ढंग से मानस जप कर लेते हैं, तो फिर आगे की साधना सरल हो जाती है, लेकिन मंत्र को किस तरह जपो, इस पर कहते हैं-
“ अति पावन गुरु मंत्र मनहिं मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।”
संतों ने गुरु-प्रदत्त मंत्र में भी मानस जप पर विशेष जोर दिया है। कोई-कोई कहते हैं कि ‘हम भगवान का नाम लेते ही हैं, गुरु-मंत्र की क्या जरूरत है?’ ऐसे लोग गुरु-मंत्र की महिमा नहीं जानते हैं। उदाहरणार्थ एक औषधि होती है-‘गंधक।’ वह पंसारी की दूकान में मिलती है और वैद्यराजजी के यहाँ भी मिलती है। जो गंधक पंसारी के यहाँ मिलती है, उस गंधक को यदि खाया जाए, तो समूचे शरीर में घाव निकल आएगा और वैद्यराजजी के यहाँ की गंधक को यदि खाया जाए, तो शरीर में जितने घाव हैं, सब समाप्त हो जाएँगे। दोनों गंधक ही हैं, फिर दोनों में अंतर क्या है? पंसारी के यहाँ जो गंधक मिलती है, वह कच्ची होती है और वैद्यराजजी के यहाँ की जो गंधक होती है, वह शोधी हुई होती है। उसी तरह जो व्यक्ति अपने मन से जप करते हैं, वह कच्ची गंधक के समान होता है और संतों ने साधना करके जिस मंत्र को सिद्ध कर लिया है, शोध लिया है, वह मंत्र जब हमको देते हैं, तब उस मंत्र के जप से हमारे मन के रोग दूर होते हैं। जिस तरह वृक्ष की जड़ में पानी डालने से संपूर्ण वृक्ष हरा-भरा हो जाता है, उसी तरह एक गुरु की पूजा से सबकी पूजा हो जाती है।
“ एके साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फले अघाय ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
“ पात पात कै सींचवो, बरी-बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।”
अपने को बुद्धिमति चतुर समझनेवाली माई पकौड़ी बनाने लग जाए और एक-एक करके सारी पकौड़ियाँ बना ले। फिर उसमें एक तरफ से एक-एक पकौड़ी में नमक देना शुरू करे, तो परिणाम क्या होगा? किसी पकौड़ी में नमक कम हो जाएगा, किसी में अधिक हो जाएगा और कोई पकौड़ी छूट भी जाएगी। वास्तव में जो बुद्धिमती माई होती है, वह तो बेशन में ही नमक डाल देती है। अब छोटी पकौड़ी बनाइए या बड़ी पकौड़ी बनाइए, सबमें समान रूप में नमक चला जाएगा। उसी तरह एक गुरु की भक्ति में सबकी भक्ति हो जाती है। जिस तरह हाथी के पद-चिह्न में सभी प्राणियों के पद-चिह्न समा जाते हैं, उसी तरह एक गुरु की भक्ति में सभी देव-देवियों की भक्ति हो जाती है, क्योंकि-
“ देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभु ।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत सभू ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
जप के बाद ध्यान की बारी आती है। ध्यान में पहले स्थूल-ध्यान अर्थात् इष्ट के रूप का मानस ध्यान किया जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज का वचन है-
अंतरि गुरु आराधाणा जिह्वा जपि गुर नाउ ।।
नेत्री सतिगुर पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।
सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाइअै ठाउ ।।
कहु नानक किरपा करे जिसनो एक वथु देइ ।।
जग महि ऊतम काढ़ी अहि बिरले केई केइ ।।
और भी,
“ गुर की मूरति मन महिं धिआनु ।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु कै चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि इष्ट के रूप में गुरु को ग्रहण करो और उनको परब्रह्म परमात्मा जान करके उनके रूप का ध्यान करो। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ गुरु ही को धरि ध्यान, नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट, पूजन गुरु ही थपो ।।”
गुरु-मंत्र का जप करो, गुरु-रूप का ध्यान करो। लेकिन अगर तुमने आपा नहीं दी, अहंकार का त्याग नहीं किया, मन में अहम् रखे रहे, तो अध्यात्म-पथ पर आगे नहीं बढ़ सकते। कबीर साहब कहते हैं-
“ अहं अग्नि हृदय जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको यम न्यौता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
हमलोगों को कोई निमंत्रण देता है, तो हमलोग क्या करते हैं? सीधे उन्हीं के घर पहुँच जाते हैं। उसी तरह यदि गुरु से मान पाने की इच्छा रखेंगे, तो सीधा यमराज के घर जाएँगे। इसलिए अहंकार को त्यागकर गुरु-प्रदत्त मंत्र का मानस जप करो और गुरु के पवित्र रूप का मानस ध्यान करो। इससे एकाग्रता होगी और चित्तवृत्ति का सिमटाव होगा। फिर सूक्ष्म ध्यान दृष्टि-योग की क्रिया है। इसके द्वारा साधक अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित होता है। जहाँ विभिन्न प्रकार के नादों की अनुभूति होती है। यह है सूक्ष्मतर ध्यान। गुरु निर्देश के द्वारा जब उन अनेक नादों में सारशब्द को पकड़कर आगे बढ़ते हैं, तो इस सूक्ष्मतम ध्यान के द्वारा निःशब्द में पहुँचकर परमात्मा की अपरोक्ष अनुभूति हो जाती है। यहाँ अन्तस्साधना की इतिश्री है।
आरम्भिक साधना के लिए क्रियावान शुद्धाचारी एक इष्ट को पकड़िए। मान लीजिए कि गंगा के किनारे सैकड़ों नावें लगी हैं और हमें गंगाजी पार करनी है, तो इस किनारे की एक नाव से दूसरी नाव पर और दूसरी नाव से तीसरी नाव पर, इस प्रकार नाव से नाव पर अगर हम चढ़ते चले जाएँ, तो परिणाम क्या होगा? इसी पार में हम रह जाएँगे। उचित तो यह है कि उन नावों में कौन-सी नाव मजबूत है और यह भी देखिए कि किस नाव का नाविक कुशल है, उस नाव पर बैठिए और पार हो जाइए। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ नरतन भव बारिधि कहँ बेरो ।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ।।
करनधार सद्गुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
संसार-रूपी समुद्र को पार करने के लिए यह मनुष्य-शरीर नाव के समान है और परम प्रभु परमात्मा की अनुकम्पा अनुकूल वायु है। सुन्दर सुदृढ़ नाव मिल जाए, अनुकूल वायु मिल जाए, लेकिन उसका खेवनेवाला कुशल नहीं हो, तो परिणाम क्या होगा? भँवर में पड़कर नाव कहीं डूब जाएगी या चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाएगी। हम बीच मझधार में ही रह जाएँगे। संत पलटू साहब ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
“ भव सिन्धु के पार जो चाहिये जान को ,
केवट भेदी तलास कीजै ।
घाट औ वाट के भेद का महरमी ,
उसी के नाव पर पाँव दीजै ।।
शब्द की नाव पर चढ़ै जो धाय के ,
जाय वाहि पर नहिं पाँव भीजै ।
दास पलटू कहै कौन मल्लाह है ,
पार भवसिन्धु तब उतरि लीजै ।।”
जो संत सद्गुरु होते हैं, वे ही पार लगा सकते हैं। अपने से पार नहीं लगेगा। इसलिए सच्चे सद्गुरु से जप-ध्यान की सही विधि सीखनी चाहिए। पापों से बचते हुए जीवन-यापन के लिए कुछ-कुछ पवित्र कमाई करें और भजन-सत्संग करते रहें, अवश्य कल्याण होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 01-02-2004 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर2004 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
मैं आपलोगों से जो कुछ कहूँगा, वह कोई नयी बात नहीं होगी, बल्कि पुरानी होगी। वे बातें आपलोग पूर्व में भी कई बार सुन चुके हैं, फिर भी उसकी पुनरावृत्ति की जाए, इसकी क्या आवश्यकता? आवश्यकता इसलिए होती है, कभी-कभी देखा जाता है कि ऐन मौके पर बड़े-से-बड़े व्यक्ति भी ज्ञान को भूल जाते हैं। जैसे हनुमानजी अपने बल विक्रम को भूल गये थे, तो जाम्बवान ने उनको याद दिलाया। भगवान बुद्ध ने कहा था,‘स्मरण के लिए न दोहराना धब्बा है।’ किसी बात की स्मृति बनी रहे, इसलिए उनकी पुनरावृत्ति आवश्यक होती है।
रामचरितमानस एक विलक्षण ग्रंथ है, जिसमें इहलौकिक और पारलौकिक दोनों लोकों में सुखमय जीवन जीने की कला बतलायी गई है। इस ग्रंथ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञानों का समावेश है। जो कोई तदनुकूल अपना आचरण कर पायेंगे, उनका उभय लोक कल्याणमय होगा, इसमें संशय का स्थान नहीं है। रामचरितमानस को कोई षट् संवाद कहते हैं और कोई अष्ट संवाद कहते हैं। इसमें याज्ञवल्क्यजी और भारद्वाजजी के संवाद हैं। याज्ञवल्क्यजी वक्ता हैं और भारद्वाजजी श्रोता हैं। भगवान शंकर और पार्वतीजी का संवाद है। भगवान शंकर वक्ता हैं और पार्वतीजी श्रोता हैं। इसी प्रकार काकभुशुण्डिजी और गरुड़जी का संवाद है। काकभुशुण्डिजी वक्ता हैं और गरुड़जी श्रोता हैं। इन छहों के बीच संवाद है, इसलिए इसको षट् संवाद कहते हैं। पर अष्ट संवाद क्यों कहते हैं? छह के बाद और दो जोड़ दीजिए अर्थात् गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं और हमलोग सुनते हैं। इसलिए यह अष्ट संवाद भी है। अभी जो प्रसंग पाठ हुआ, वह काकभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं।
वेदान्त दर्शन में ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है-श्रवण ज्ञान, मनन ज्ञान, निदिध्यासन ज्ञान और अनुभव ज्ञान। ईश्वर के संबंध में हम सुनते हैं, यह है श्रवण ज्ञान। श्रवण ज्ञान के आधार पर उसका हम मनन करते हैं, यह है मनन ज्ञान। श्रवण- मनन के आधार पर किसी से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर उसकी प्राप्ति के लिए जो हम अभ्यास करते हैं, उसे निदिध्यासन ज्ञान कहते हैं। यानी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम जो प्रयास करते हैं, अंतस्साधना करते हैं, उससे प्राप्त साधनाकालिक ज्ञान निदिध्यासन ज्ञान है। और साधना करके जब उसकी पूर्णता प्राप्त करते हैं, आत्मसाक्षात्कार करते हैं, वह अनुभव ज्ञान कहलाता है। अनुभव ज्ञान के पूर्व के जो तीन प्रकार के ज्ञान हैं, वे परिपक्व ज्ञान नहीं है, कच्चा ज्ञान है, अधूरा ज्ञान है। श्रवण ज्ञान से मनन ज्ञान की योग्यता विशेष होती है। मनन ज्ञान से निदिध्यासन की योग्यता विशेष होती है और अनुभव ज्ञान के संदर्भ में तो कहना ही क्या? उससे बढ़कर कुछ होता ही नहीं है। श्रवण ज्ञान की उपमा संतों ने सामान्य अग्नि से दी है, मनन ज्ञान को बिजली के समान, निदिध्यासन ज्ञान को बड़वानल के समान और अनुभव ज्ञान को महाप्रलय की अग्नि के समान बतलाया है। मतलब यह कि जैसे सामान्य अग्नि वर्षा के जल से समाप्त हो जाती है, उसी तरह श्रवण ज्ञान है। हमसे जो अधिक सुने हुए हैं, वे हमको कुछ समझा देंगे, तो हमारा ज्ञान बदल जाएगा, समाप्त हो जाएगा। उसके ज्ञानरूप वर्षा के जल के सामने हमारा ज्ञान कुछ भी नहीं रहेगा। लेकिन श्रवण करके जिन्होंने अच्छी तरह मनन कर लिया है, उसका ज्ञान बिजली के समान होता है। यानी जिस तरह आकाश में बिजली चमकती है, उस बिजली को सामान्य जल बुझा नहीं सकता, उसी तरह मनन ज्ञान को कोई श्रवण ज्ञानवाला समझाना चाहे, तो उसपर उसका प्रभाव नहीं होगा। मनन ज्ञान में भी जिन्होंने जितना मनन किया है, उसकी मननशक्ति उतनी बढ़ी हुई होती है, तब एक दूसरे से वह प्रभावित हो सकता है। मनन ज्ञान में भी भेद होता है। किसी समय कुछ वादियों को एक सम्मेलन हुआ। कुछ वादियों का कहने का अर्थ है-अद्वैतवादी, द्वैतवादी, त्रैतवादी, द्वैताद्वैती, शुद्धाद्वैती, विशिष्टा द्वैती आदि की एक सभा हुई; उसमें सभी वक्ताओं ने अपने-अपने प्रवचन सुनाये। जिनको जितना ज्ञान था, कहा। उन सबमें द्वैतवादी और अद्वैतवादी; इन दोनों का प्रवचन बड़ा प्रभावकारी रहा। ऐसा हुआ कि अद्वैतवादी के प्रवचन से द्वैतवादी प्रभावित हो गया और द्वैतवादी के प्रवचन से अद्वैतवादी प्रभावित हो गया। अद्वैतवादी सोचने लगा कि द्वैतवादी ठीक है और द्वैतवादी सोचने लगा कि अद्वैतवादी ही ठीक है। फलतः जो अद्वैतवादी था, वह द्वैतवादी बन गया और जो द्वैतवादी था, वह अद्वैतवादी बन गया। यह मनन ज्ञान की बात है। लेकिन निदिध्यासन ज्ञान उससे बढ़कर होता है, उसको बड़वानल की संज्ञा दी गयी है। बड़वानल समुद्र में रहता है। विभिन्न नदियों का पानी उसमें जाता है। अगर बड़वानल नहीं हो, तो नदियाँ उमड़-घुमड़कर गाँव-बस्तियाँ को समाप्त कर देती हैं; उसी तरह वह कितनी तबाही मचा दे, ठिकाना नहीं। लेकिन बड़वानल जल को संतुलित रखता है। समुद्र में जितना अधिक जल होता है, उसको वाष्प बना देता है। वह वाष्प ऊपर चला जाता है। लेकिन बड़वानल समुद्र के समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता है। उसी तरह निदिध्यासन करते हैं, साधना करते है, उनका ज्ञान बड़वानल के समान होता है। वे संसार को मर्यादित ढंग से रहेंगे, शिष्टाचार जानेंगे, सदाचार जानेंगे, शुच्याचार जानेंगे, उनमें बड़े-छोटे का ज्ञान होगा। कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान होगा, विधि-निषेध को जानते हुए वे विधि को करेंगे और निषेध से दूर रहेंगे।
मान लीजिए जैसे किसी व्यक्ति के संबंध में हम सुनते हैं और उसपर विचारते हैं। फिर उस व्यक्ति से मिलने के लिए चलते हैं। जबतक उससे मिलते नहीं हैं, तबतक विविध प्रकार की बातें मन में आती रहती है। लेकिन जब हम उस व्यक्ति से मिल लेते हैं, साक्षात्कार हो जाता है, बातचीत हो जाती है, रहनी-गहनी देख लेते हैं, तो उसके संबंध में अनुभव ज्ञान हो जाता है। काकभुशुण्डिजी अपने अनुभव की बात कहते हैं-
“ निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा ।।”
यह क्लेश क्या है? दैहिक क्लेश, दैविक क्लेश और भौतिक क्लेश। इन तीनों प्रकार के क्लेशों का निःशेष सर्वेश की भक्ति से होता है। देह से उत्पन्न जैसे-सर्दी, खाँसी, ज्वर आदि। विविध प्रकार के रोग, दैहिक क्लेश हैं। प्राणी से प्राणी को जो कष्ट होता है; जैसे-बिच्छू का डंक मारना, साँप का काट लेना आदि भौतिक ताप कहलाते हैं। और अकस्मात् दुर्घटना हो जाए, फिसलकर गिर गए, गाछ पर से गिर गये, इसमें जो कष्ट होता है; यह दैविक कहलाता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज्य काहुहि नहीं व्यापा ।।”
अर्थात् राम के राज में चले जाओ, तब जो तीनों ताप हैं, वे संतापित नहीं करेंगे, उससे मुक्त हो जाओगे। गोस्वामीजी की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भेषज भक्ति ,
भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी ।
संत भगवन्त अंतर निरन्तर नहीं किमपि ,
मति विमल कह दास तुलसी ।।”
संसार से उत्पन्न हुए तीनों कठिन रोगों की औषधि भक्ति है। आत्मदर्शी भक्त वद्य है। संत और भगवन्त में सदा कुछ भी भेद नहीं है। हे तुलसीदास! यह निर्मल बुद्धिवाले कहते हैं।
“ सद्गुरु बैद बचन बिस्वासा ।
संयम यह न विषय कै आसा ।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी ।।”
(रोगी को) सद्गुरु-रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो और संयम यह हो कि विषय की आशा न रह जाए। इन रोगों के लिए राम की भक्ति संजीवन जड़ी है और श्रद्धा से भरी हुई बुद्धि की अनुपान है।
“ एहि विधि भलेहि सो रोग नसाहीं ।
नाहि त जतन कोटि नहीं जाहीं ।।”
इस प्रकार भले ही वे रोग नष्ट होते हैं, नहीं तो करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जाते।
भगवान श्रीराम और रावण के युद्ध का प्रसंग आपलोग जानते हैं। मेघनाद का वाण जब लक्ष्मणजी केा लगा, तो वे मूर्च्छित होकर मृतवत् हो गये। रामदल में हाहाकार मच गया। एक वैद्य थे-सुषेण। वे रावण पालित लंका में रहते थे। हनुमानजी उनके पास गये। हनुमानजी के मन में हुआ कि इनको नींद से अभी जगावें और ये नींद से नहीं उठें, तब क्या होगा? अगर यदि किसी प्रकार इनको जगाकर कंधे पर उठाकर ले चलें, तो वहाँ यदि कहें कि दवाई तो घर में ही छूट गई, तो यह भी ठीक नहीं होगा। अंततः सोच-विचारकर उन्होंने उनके घर को ही उठा लिया और रामदल में जहाँ लक्ष्मणजी थे, वहाँ ले आए। सुषेण वैद्य ने बतलाया कि उत्तर पहाड़ पर जाकर वहाँ से कुछ जड़ियाँ लानी होगी। उन्होंने चार प्रकार की जड़ियाँ और जड़ियों की पहचान बतलायीं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि संजीवनी बुटी के नीचे विशेष प्रकार का प्रकाश होता रहता है। रावण को यह बात मालूम हो गयी। रावण ने अपना दूत भेजकर वहाँ सभी वृक्षों के नीचे प्रकाश कर दिया। हनुमानजी वहाँ पहुँच गये। अब वे उखाड़ें तो कौन-सी जड़ी? पहचान नहीं पाए। वे वहाँ से पहाड़ ही उठाकर ले आये। वैद्य ने उससे चार प्रकार की जड़ियों को पहचानकर निकाला। एक जड़ी का नाम था विशल्यकरणी, दूसरी जड़ी का नाम था अस्थि- संचारिणी, तीसरी जड़ी का नाम था सुवर्णकरणी और चौथी जड़ी का नाम था संजीवनी। लक्ष्मणजी के शरीर में जितने शल्य लगे हुए थे, तीर लगे हुए थे, विशल्यकरणी जड़ी सुँघा देने पर सभी शल्य झड़ गये। ऑपरेशन करके निकालने की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी जड़ी अस्थि- संचारिणी सुँघाने से जितनी हड्डियाँ टूट गयी थीं, उनपर प्लास्टर करने की कोई आवश्यकता नहीं, सभी जुड़ गयीं। हड्डियाँ तो जुड़ गयी; लेकिन घाव का दाग तो रह ही गया। तब सुवर्णकरणी जड़ी सुँघा दी गयी। जैसे लक्ष्मणजी का शरीर सोने के समान चमकता था, उसी तरह पूर्ववत् चमकने लग गया। सब कुछ तो हो गया, पर जान तो आई नहीं। संजीवनी जड़ी सुँघाई गई तो सचेत होकर लक्ष्मणजी उठकर बैठ गये। ये चार प्रकार की जड़ियाँ हैं। जिनमें अंतिम जड़ी हुई संजीवनी, जो जीवन का संचार करती है। उसी तरह मानव जीवन के लिए मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान रूपी चार जड़ियाँ हैं। ये चारो जड़ियाँ ईश्वर-भक्तिरूप पावन पर्वत के अंतर्गत हैं। गोस्वामीजी के शब्दों में-‘रघुपति भगति संजीवन मूरी।’ अर्थात् ईश्वर- भक्तिरूपी संजीवनी जड़ी है। संतमत वही संजीवनी जड़ी बतलाता है। ईश्वर की भक्ति करेा, तुम्हारी मुक्ति हेागी, परम कल्याण होगा। वह भक्ति कैसी? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति सब कोई करै, भरमना न टरै,
भक्ति जंजाल दुख द्वन्द्व भारी ।
ब्रह्म चीन्है नहीं भरम पूज फिरै,
हिय के नैन क्यों फोरि डारी ।।”
वे कहते हैं-भक्ति तो सब कोई करते हैं। यानी कुछ-न-कुछ भगवान का नाम तो सब कोई लेते हैं; किन्तु उनका भ्रम दूर नहीं होता। परिणाम क्या होता है? ‘भक्ति जंजाल दुःख द्वन्द्व भारी’ हो जाता है। क्यों? इसलिए कि जो ब्रह्म है, परमात्मा है, उसको तो जानते नहीं, भ्रम की पूजा में लगे रहते हैं। संत कबीर साहब की ही वाणी है-
“ अनगढ़िया देवा कौन करै तेरी सेवा ।
गढ़े देव को सब कोई पूजै, नित ही लावै सेवा ।
पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ता को न जानै भेवा ।।”
जो मानव कृत यानी मनुष्य के द्वारा बनाया हुआ देवता है, उसे तो सब कोई पूजते हैं। पर, जो अनगढ़िया देव है, जिसको किसी ने बनाया नहीं है, बल्कि जिसने सबको बनाया है, उस पूर्ण और अखंड परमात्मा के रहस्य को नहीं जानने के कारण उसे कोई पूजता नहीं है। जबतक ‘हिय के नैन’ अर्थात् आत्मदृष्टि नहीं मिलेगी, उस परमात्मा को नहीं पहचान सकते। जैसे इन स्थूल आँख से बाहर की वस्तुओं-स्थूल पदार्थों को देखते हैं, उसी तरह सूक्ष्म दृष्टि-दिव्य दृष्टि से सूक्ष्म पदार्थों-परमात्मा की दिव्य विभूतियों को देखेंगे। और जब हम जड़विहीन हो जाएँगे, तब हमें आत्मदृष्टि मिलेगी और उसी दृष्टि से हमें अपने स्वरूप का ज्ञान होगा, आत्मदर्शन होगा। तब जीव-पीव मिलकर एक हो जाएगा। परम कल्याण हो जाएगा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 25-2-2004 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2004 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस के पाठ के अंतर्गत मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के उपदेशों को सुना। प्रसंग इस प्रकार है कि चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात् सीताजी का उद्धार कर भगवान अयोध्या पधारते हैं और राज्य सिंहासन पर आसीन होते हैं। राज्य संचालन के क्रम में वे एक दिन अपनी प्रजा के साथ गुरुजन, पुरजन, सज्जन आदि को आमंत्रित कर उपदेश करते हुए कहते हैं-
“ सुनहु सकल पुरजन मम बानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुसासन मानै जोई ।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई ।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।।”
हे नगरवासियो! मेरी बातें सुनिये। मैं हृदय में ममता लाकर कुछ नहीं कहता और न अनीति की बात कहता हूँ। मेरी बातों में प्रभुता भी नहीं है। मेरी बातों को सुनिये और यदि अच्छी लगे, तो उसे भय और संकोच को छोड़कर ग्रहण कीजिए।
“ बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ।।”
आपलोगों को यह बहुत बड़ा भाग्य है कि मनुष्यका शरीर मिला है। यह मनुष्य का शरीर कैसे मिलता है? अब इस विषय पर प्रकाश डालते हैं-
“ आकर चारि लच्छ चौरासी ।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा ।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।।
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ।।”
चार खानियों में चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं। उन चौरासी लाख प्रकार की योनियों में कष्टों को झेलते हुए जब जीव आकुल-व्याकुल हो जाता है, तो अकारण ही स्नेह करने वाले परम प्रभु परमात्मा उसको मनुष्य का शरीर देते हैं। आगरा में एक संत हुए राधास्वामी साहब उन्होंने कहा-
“ यह तन दुर्लभ तुमने पाया।
कोटि जनम भटका जब खाया ।।
अब याको बिरथ मत खोओ ।
चेतो छिन छिन भक्ति कमाओ ।।
भक्ति करो तो गुरु की करना ।
मारग शब्द गुरु से लेना ।।
शब्दमार्गी गुरू न होवे ।
तो झूठी गुरुवाई लेवे ।।”
करोड़ों जन्म में भटकते-भटकते अब मनुष्य शरीर मिला है, इसे व्यर्थ मत जाने दो। शब्दमार्गी गुरु से युक्ति जानकर ईश्वर की भक्ति करो। पंजाब में एक संत हुए, गुरु नानकदेवजी महाराज, वे कहते हैं-
“ नहिं ऐसो जनम बारम्बार ।
का जानी कछु पुन्य प्रगटो, तेरो मानुखा अवतार ।।
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष से फल टूटि पड़िहैं, बहुरि न लागत डार ।।”
यह मनुष्य-शरीर बारम्बार मिलने को नहीं है। तुम्हारे किसी पुण्य के कारण प्रभु की कृपा हो गयी और तुमको उन्होंने मनुष्य का शरीर दे दिया। इस मनुष्य शरीर को पाकर तुम्हारी स्थिति क्या है? विचारो-सोचो, ‘घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार।’ वे कहते हैं-एक ओर तो घट रहा है और दूसरी ओर बढ़ रहा है। यानी क्षण-क्षण घटने और बढ़ने का कार्य चल रहा है। अर्थात् जिस दिन किसी का जन्म होता है, वह उसका प्रथम दिन होता है। मान लीजिए कि कोई सौ बरस की आयु लेकर इस संसार में आया। जिस दिन उसकी उम्र पाँच साल की हो गयी, तो उसके माता-पिता कहने लग गये कि हमारा बच्चा पाँच साल का हो गया। लेकिन समझने की बात यह है कि जो बच्चा सौ साल का जीवन लेकर आया था, उसमें उसके पाँच साल घट गए, पंचानबे साल ही बाकी बचे। जिस दिन उसकी उम्र दस साल की हुई, तो उसके माता-पिता समझने लगे कि हमारा बच्चा दस साल का हो गया; लेकिन सौ में से दस साल घट गए। जब वह पचीस साल का हुआ, तो उसके जीवन के पचहत्तर साल बाकी बचे; क्योंकि पचीस घट गए। इसी तरह आयु घटती जाती है और उम्र बढ़ती जाती है। इसीिलिए गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं- ‘घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार।’ जो समय बीत जाता है, कितना भी प्रयत्न करने पर वह फिर लौटता नहीं है। हम एक बार जिस दिन के जिस जल में डुबकी लगा लेते हैं, उस जल में हम दूसरी बार डुबकी नहीं लगा सकते; क्योंकि वह जल तो निकलकर आगे चला जाता है। तुरत दूसरा जल वहाँ आता है, जिसमें हम डुबकी लगाते हैं। उसी तरह हमारे जीवन के क्षण बीतते चले जा रहे हैं, बीतते चले जा रहे हैं। जो बीत गया, वह फिर आने को नहीं है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि जिस वृक्ष से कोई फल टूटकर नीचे गिर जाता है, किसी भी उपाय से वह फल उस डाल में नहीं लग सकता है। उसी तरह जीवन के जितने क्षण हमारे बीत गये हैं, वह फिर दुबारा आने को नहीं है। इसलिए हमारा जो बचा हुआ जीवन है, इसके लिए हम सोचें, विचारें और जो कर्तव्य करना चाहिए, वह करें। प्रभु ने कृपा करके हमको मानव तन दिया है। मानव किसको कहते हैं? मननशील प्राणी को मानव कहते हैं। एक जानवर किसी खेत में चरने के लिए जाता है। खेतवाला देखता है, तो उसको डंडे मारकर भगाता है। जानवर भाग जाता है और वह व्यक्ति भी चला जाता है। फिर थोड़ी देर के बाद ही वह जानवर फिर उसी खेत में जाकर चरने लग जाता है और फिर डंडे की मार खाता है। बार-बार उस खेत में जाता है और डंडे खाता है। उसी तरह हम बार-बार इस संसार में आते हैं, आवागमन के चक्र में पड़ते हैं, दैहिक, दैविक, भौतिक संताप से हम संतप्त होते हैं, मानसिक व्यथा से व्यथित होते हैं, सभी प्रकार के कष्टों को हम सहते हैं, फिर भी हम वही कर्म करते हैं, जिससे हमको इस संसार में आना पड़ता है और दुःख उठाना पड़ता है, तो क्या यह मानवता है? आप मननशील प्राणी हैं, मनन कीजिए कि आप कौन हैं? आप शरीर नहीं, शरीरी हैं, ऐसा सच्छास्त्र कहता है। संत वचन है, इसपर विचार कीजिए-
“ को मैं आया कहाँ से, कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता, याको कहिए विचार ।।”
आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं? शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएँगे? आपकी माताजी कौन हैं? आपके पिताजी कौन हैं आदि। इन बातों पर भी कभी विचार किया है? यदि नहीं तो ‘मैं कौन हूँ’ इसको जानिए। आप देह नहीं हैं, देह आपकी है। एक बंग-भाषा-भाषी महात्मा की अनमोल वाणी का अनुशीलन कीजिए।
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि
के आमि आमाते आछे कि रतन ।
कौन शक्ति बले बेड़ाय चले बले
कार अभावे हवे देह अचेतन ।।
देह माँझे आछि प्राणेर संचार,
तहा तेई बली आमी वा आमार ।
प्राण गेले चले हवे शवाकार
केवाकार कोथा रवे धन जन ।।”
हम हैं, हम हैं-यह हम कहते हैं; लेकिन इतनी उम्र हो गयी, कभी अपने से भेंट हुई कि हम कौन हैं? नारी अपने पति को पहचानती है, पुरुष अपनी पत्नी के पहचानते हैं, पुत्री को पहचानते हैं, कुटुम्ब परिवार को पहचानते हैं, धन-संपत्ति को पहचानते हैं, मकान और दुकान को पहचानते हैं; इन सबको पहचानते हैं; लेकिन हम कौन हैं, इसकी पहचान नहीं है। इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा! हम इस शरीर और संसार में आ गये हैं और एक-न- एक दिन शरीर को छोड़ना है, फिर संसार भी छूटेगा। लेकिन जाना कहाँ है? हमलोग इस संसार में जहाँ कहीं के लिए यात्र करते हैं, पहले ही विचार लेते हैं, सोच लेते हैं कि यहाँ से अमुक जगह जाने में इतने घंटे लगेंगे और इस सवारी से हमको जाना है। हम उसकी व्यवस्था कर लेते हैं और यह भी सोचते हैं कि रास्ते में हम अमुक जगह भोजन करेंगे, पहुँचते-पहुँचते हम वहाँ पहुँच जाएँगे। लेकिन जब हमारा शरीर छूटेगा, तब हम कहाँ जाएँगे? कितने महीने या वर्षों का समय लगेगा? रास्ते में हम कहाँ-कहाँ रुकेंगे? रास्ते में क्या खाएँगे- पीएँगे? कैसे रहेंगे? इस संबंध में कभी सोचा है? शरीर छूटने के बाद का रास्ता कितना लंबा है, कभी सोचा है? गुरु नानकदेवजी महाराज अपने अनुभव की बात कहते हैं-
“ जा मारग के गणे जाय न कोसा ।
तहँ हरि के नाम सदा संगि तोषा ।।”
वह इतना लंबा रास्ता है कि उसका कोस गिना नहीं जा सकता। गुरु नानकदेवजी महाराज के जमाने में किलोमीटर नहीं था, कोस का प्रचलन था, इसलिए उन्होंने कोस शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही कहा है कि उस रास्ते के लिए भगवद्भजन, प्रभु का नाम ही पाथेय है। अब संत कबीर साहब की वाणी सुनिये। उनका वचन कितना मर्मस्पर्शी है-
“ आये हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बांधे जाय जंजीर ।।”
शरीर छूटने के बाद इस संसार से जायेंगे तो सब; लेकिन एक सिंहासन पर चढ़कर जाएँगे और एक बँधे हुए जाएँगे। अर्थात् एक सुख से जाएँगे और सुख के स्थान में रहेंगे। और दूसरे दुःख से जाएँगे और दुःख के स्थान में रहेंगे। सुख से कौन जाएँगे और दुःख से कौन जाएँगे? सुख के स्थान में कौन रहेंगे और दुःख के स्थान में कौन रहेंगे? जब हम कुरानशरीफ पढ़ते हैं तो उसमें तीन बातें पाते हैं। सूरे फातिहा में लिखा है-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला। मुझे वह रास्ता दिखा, जिसपर तुम्हारी मेहर हुई है। मुझे वह रास्ता मत दिखा, जिसपर तुम गुस्सा हुआ और न भटके हुए का।
अब विचारने का विषय यह है कि अल्लाह परवरदिगार जो कि निहायत मेहरवान हैं, कृपालु हैं, दयालु हैं, वे क्या अपनी संतान में से किसी को स्वर्ग, किसी को नरक और किसी को नजात देंगे; ऐसा क्यों? इसपर हम विचार करें।
बात एसी है कि जो बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं, वर्जित कर्मों को करते हैं, उनको वे दोजख की आग में जलाते हैं। जो विहित कर्मों को करते हैं, शुभ कर्मों को करते हैं, वे वहिश्त में भेजे जाते हैं। वहाँ पर उसको आनंद का बाग मिलता है। इन दोनों के परे एक पद है, जिसको नजात कहते हैं, मुक्ति कहते हैं, उसे प्राप्त करने की जो साधना है, उसको कहते हैं-सगलेनसीरा और सुलतानुलज-कार’ जो कोई उसे करते हैं, वे नजात में जाते हैं और सभी दुःखों-बंधनों से छूट जाते हैं। रामचरितमानस में लिखा है-
“ एक पिता के विपुल कुमारा ।
होइ पृथक गुन शील अचारा ।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ।।
कोउ सर्वज्ञ धर्मरत कोई ।
सब पर पितहिं प्रीति सम होई ।।”
अर्थात् एक पिता के कई पुत्र होते हैं। सबके स्वभाव और कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं, फिर भी पिता का स्नेह सबके ऊपर समान रहता है। पुनः उसी रामचरितमानस में ऐसा लिखा है-
“ जद्यपि प्रभु के राग न रोषा ।
ग्रहइ न पाप पुन्य नहि दोषा ।।
तदपि करहिं सम विषम बिहारा ।
भक्त अभक्त विषम अनुसारा ।।”
भगवान श्रीराम कहते हैं कि अगर तुम स्वर्ग की कामना करते हो, तो स्वर्ग-सुख सब दिन रहनेवाला नहीं है। ‘स्वर्गउ स्वल्प अंत दुःख दाई ।’ अंत में वह भी दुःख देनेवाला है। इसलिए स्वर्ग, नरक से अपने को ऊपर ले जाओ। मोक्ष प्राप्त कर लो। काक- भुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं-
“ नरक सरग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी ।।”
इस शरीर में हम रहते हैं। मृत्यु के समय जब इस शरीर से निकलने लगते हैं, तो निकलने के तीन रास्ते हैं-एक अंधकार रास्ता है, दूसरा प्रकाश का रास्ता है और तीसरा शब्द का रास्ता है। अंधकार होकर जाना नरक में जाने का रास्ता है, दूसरा प्रकाश होकर जाना स्वर्ग में जाने का रास्ता है और तीसरा शब्द होकर जाना नजात या मोक्ष में जाने का रास्ता है। संतवाणी है-
“ अति दुर्लभ है तन मानुष को,
यह पारस ज्ञान विचारिये जी ।
गुरु मंत्र दियो जो दया करिके,
सोइ स्वास में स्वास उचारिये जी ।।
प्रभु प्रीति की ज्वाल प्रज्वाल करो,
और पाप के बीज को जारिये जी ।
दुःखभंजन नाम निरंजन का,
कबहूँ मति भूल बिसारिये जी ।।”
और संत कबीर साहब कहते हैं-
“ बार बार नर देह नहीं यह बीर रे ।
चेत सकै तो चेत कहै कबीर रे ।।”
इस मनुष्य-शरीर की उपयोगिता जानो। नर-तन की उपयोगिता विषय भोगों की बहुलता में नहीं, भगवद्भजन की मादकता में है। हमें मनुष्य-शरीर मिला है, तो हममें मनुष्य का गुण भी होना चाहिए। अपने सुख के लिए जो दूसरे को दुःख नहीं देता, वह है मानव। अपने सुख के लिए जो दूसरे को दुःख देता है, वह है दानव। दूसरे को सुख देने के लिए जो दुःख सहता है, वह देवता है। और, दूसरे के दुःख देने के लिए जो दुःख सहता है, उसकी संज्ञा ही नहीं है।
कहने के लिए हम सब मानव हैं; लेकिन व्यवहार में मानव-मानव में भेद है। किसी विद्वान ने कहा है कि मानव चार प्रकार के होते हैं। कोई मानव बेर के समान, कोई शिला के समान, कोई नारियल के समान और कोई अंगूर के समान होते हैं। कैस? बेर के ऊपर भाग में थोड़ा गुद्दा रहता है। ऊपर से तो मुलायम होता है, पर भीतर में कड़ी गुठली होती है। उसी तरह कुछ लोग ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें बोलते हैं; लेकिन उनके भीतर कपट भरा होता है। गोस्वामीजी के शब्दों में वे इस तरह के होते हैं-
“ बोलहिं वचन मधुर जिमि मोरा ।
खाहिं महा अहि हृदय कठोरा ।।”
और, संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खायेगा, साहब के दरबार ।।
एक कहै दूजी कहै, दो दो कहै बनाय ।
ये दो मुख का बोलना, घना तमाचा खाय ।।”
दूसरे प्रकार के व्यक्ति के लिए कहा गया है कि वे शिला अर्थात् पत्थर के समान होते हैं। उनकी बोली भी पत्थर-जैसी और हृदय भी कठोर पत्थर के जैसा होता है। तीसरे प्रकार के व्यक्ति होते हैं-नारियल के समान। नारियल का ऊपरी भाग बहुत कड़ा होता है; लेकिन उसके भीतर के भाग में देखिये-साफ, स्वच्छ शीतल जल से भरा होता है। उसी तरह कुछ व्यक्ति भले ही कड़ी बात बोल दें; लेकिन उनका भीतर बड़ा मुलायम होता है, शीतलता लिए हुए होता है। जैसे माँ कभी-कभी अपने बच्चे को फटकार देती है, एक-दो थप्पड़ भी लगा देती है; लेकिन उसका हृदय बच्चे के लिए बहुत मुलायम रहता है। सदा उसके कल्याण के लिए ही सोचती और करती है। चौथे प्रकार के व्यक्ति होते हैं अंगुर के समान अर्थात् भीतर और बाहर दोनों ही ओर मुलायम, उनका वचन मधुर होता है और हृदय निश्छल।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य-शरीर ‘सुर दुर्लभ’ अर्थात् देवताओं को भी दुर्लभ है, पर तुमको यह सुलभ है। यह ‘साधन धाम’ है, इस शरीर में जो साधना करो, सफलता मिलेगी। यही शरीर है-कोई चौकीदार बना हुआ है, तो कोई थानेदार बना हुआ है। कोई डी-एस-पी बना हुआ है, तो कोई एस-पी-। कोई डी-आई-जी- बना हुआ है, तो कोई आई-जी-। कोई एम-एल-ए- है, तो कोई एम-पी- है। कोई प्रधानमंत्री है, तो कोई राष्ट्रपति। यही शरीर है-कोई मास्टर है, तो कोई वकील है, कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है। इसी शरीर में लोग बड़े-बड़े संत-महात्मा हुए, जिन्होंने साधना करके परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त किया। यह मनुष्य-शरीर अनमोल है। जो इस शरीर का मोल जानते हैं, वे अनमोल हो जाते हैं और जो इस शरीर का मोल नहीं जानते, वे अन मोल (बेमोल) होकर रह जाते हैं। यह शरीर साधन धाम है। ‘शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्’ इस मनुष्य-शरीर के अंदर सभी साधन हैं, जिस तरह की साधना करेंगे, उस तरह का फल मिलेगा। मोक्ष या नजात का रास्ता भी इसी में है। अगर हम आँखें बंद करके देखते हैं और अंधकार मालूम पड़ता है, तो समझ लीजिए नरक का रास्ता हमारे लिए खुला हुआ है। अगर हम अंतस्साधना करते हैं और अंतःप्रकाश मिलता है, तो वहिश्त को यानी स्वर्ग जाने का रास्ता है। और संत सद्गुरु के बताये हुए अनुकूल साधना करते हैं, अंतः साधन करके अंतर्नाद को प्राप्त करते हैं, तो मोक्ष का द्वार खुल जाता है। वह नाद ले जाकर के परम प्रभु परमात्मा से मिला देता है और नजात मिल जाती है। अगर हम मनुष्य-शरीर पाकर साधना नहीं करते हैं, अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की उपासना नहीं करते हैं, तो भगवान कहते हैं-
“ सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।”
जब तुम्हारा शरीर छूटेगा, तो परलोक में दुख पाओगे, सिर धुन-धुन करके पछताओगे और कहोगे-क्या करें, मेरा तो मन था भगवद्भजन करने का, शुभकर्म करने का, परोपकार करने का; लेकिन कलि-काल कराल ऐसा होने नहीं दिया। भगवान कहते हैं कि ऐसा कहकर काल को व्यर्थ ही दोष लगाता है। काल कहते हैं समय को। समय किसी को मना नहीं करता। समय तुम्हारे साथ है, उसका विवेकपूर्वक उपयोग करो। कोई कहते हैं कि क्या करें, हमारे कर्म में लिखा हुआ नहीं था, इसलिए हम नहीं कर पाये। कर्म में क्या लिखा हुआ रहता है? जो तुम करते हो, वही कर्म है। शुभ कर्म करो, अशुभ कर्म करो, जैसे कर्म करो, उसका फल तुमको ही मिलेगा। कर्म को भी दोष देना व्यर्थ है। कितने लोग ऐसा कहते हैं कि क्या करें, हमारा मन तो बहुत था कि भगवद्भजन करें, शुभकर्मों को करें; लेकिन परमात्मा की मौज ही नहीं हुई। परमात्मा की इच्छा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिलता है। अगर उनकी कृपा हो जाती, तो क्या मैं शुभकर्म नहीं करता? परमात्मा की मौज ही नहीं हुई। विचारणीय विषय यह है कि जब तुम पापकर्म करने लगे थे, तो क्या परमात्मा की मौज हो गयी थी और शुभकर्म करने चले तो परमात्मा ने रोक दिया था?
भगवान कहते हैं कि संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए यह मनुष्य शरीर नाव है और मेरी कृपा अनुकूल वायु है। यह तुमको मिला हुआ है। किसी नदी किनारे हम जाएँ, नाव मिल जाए, हवा भी अनुकूल रहे, पर अगर कुशल मल्लाह नहीं मिले, तो क्या इस पार से उस पार जा सकते हैं? नहीं जा सकते हैं। संत पलटू साहब का वचन है-
“ नाव मिली केवट नहीं कैसे उतरै पार ।।
कैसे उतरे पार पथिक विश्वास न आवै ।
लगै नहीं वैराग पार कैसे को पावै ।।
मन में धरे न ज्ञान नहीं सत्संगति रहनी ।
बात करै नहिं कान प्रीति बिन जैसे रहनी ।।
छुटी डगमगी नाहिं संत को वचन न मानै ।
मूरख तजै विवेक चतुरइ अपनी आनै ।।
पलटू सतगुरु शब्द का तनिक न करै विचार ।
नाव मिली केवट नहीं कैसे उतरै पार ।।”
उसी तरह मनुष्य शरीररूपी नाव संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए मिला हुआ है। प्रभु की कृपा अनुकूल वायु मिला हुआ है। फिर भी यदि संत सद्गुरु की शरण नहीं जाते हैं, उनसे सद्शिक्षा-दीक्षा नहीं लेते हैं। तदनुरूप साधना नहीं करते हैं, उनका कल्याण संभव नहीं। इस संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए गुरु कर्णधार हैं। जो उनकी बतायी हुई विधि से चलते हैं, वे संसार-सागर से उद्धार पा जाते हैं।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि सभी साधनों को पाकर भी जो संसार सागर को पार नहीं करते हैं, वे लोग मंद मति हैं, उनको आत्महत्या का पाप लगेगा। इसलिए हम मनुष्य-शरीर की उपयोगिता जानें और तदनुकूल सद्व्यवहार करें। केवल किताब के पढ़ लेने से, कुछ संतवाणियाँ रट लेने से अथवा प्रवचन करने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता है और न भवसागर पार हो सकता है। कठोपनिषद् में लिखा है, यम ने नचिकेता से कहा था-
“ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।।”
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 13-3-2004 को 93वाँ महाधिवेशन, किशनगंज में अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2004 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को देखकर प्रसन्नता हो रही है। आपलोग सत्संग करने के लिए यहाँ आए हैं। दो शब्दों के योग से सत्संग बना है। वे दो शब्द हैं-सत् और संग। सत् के संग को सत्संग कहते हैं। सत् क्या है? श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-
“ ना सतो विद्यते भावा नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।”
अर्थात् असत् वस्तु का तो अस्तित्व ही नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इन दोनों का निर्णय यथार्थ जाननेवाले, विवेकियों ने अनुभव करके देखा है।
जो सत् है वह त्रयकाल अबाधित है और जो असत् है, वस्तुतः वह है ही नहीं। एक परमात्मा का नाम ही सत्य है, पाक है। दुनिया में और जितनी चीजें हैं, सब नापाक हैं। अयोध्याजी में एक संत हुए उनका नाम था- संत पलटू साहब। उन्होंने कहा-
“ हाथी घोड़ा खाक है, कहै सुनै सो खाक ।।
कहै सुनै सो खाक है खाक मुलुक खजाना ।
जोरू बेटा खाक खाक जो साचै माना ।।
महल अटारी खाक खाक है बाग बगैचा ।
सेत सफेदी खाक खाक है हुक्का नैचा ।।
साल दुसाला खाक खाक है मोतिन के माला ।
नौबतखाना खाक खाक है ससुरा साला ।।
पलटु नाम खुदाय का यही सदा है पाक ।
हाथी घोड़ा खाक है कहै सुनै सो खाक ।।”
सब खाक ही खाक है, सब मिट्टी ही मिट्टी है। लंका में हनुमानजी ने रावण को समझाया था कि तुम किस घमंड में मतवाले हो रहे हो? सब खाक हो जाएगा। लेकिन रावण को विश्वास नहीं हुआ। जब हनुमान ही ने लंका जलाकर दिखला दिया, तब उसकी आँखें खुलीं।
जो पाक है, जो पवित्र है, सत्य है, शाश्वत है, संतों ने उसी का ज्ञान दिया और कहा कि उसे पकड़ो। लेकिन उसे पकड़ने के लिए अपने को पाक पवित्र बनाओ। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ सूचै भाड़े साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता हैै। जब आत्मा पवित्र है, तो परम पवित्र परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। जबतक आत्मा कलुषित है, अपवित्र है, तबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।
यदि इत्रदान में अंगुली डालनी हो, तो हमें पहले हाथ को साफ करना होगा। यदि हाथ में गोबर लगा हुआ हो, तो उस अंगुलि से इत्र की सुगंध कैसे मिल सकती है? उसी तरह जबतक आत्मा कलुषित है, अपवित्र है, उसपर काषाय-मल भरा हुआ है, परमात्म- दर्शन संभव नहीं। काषाय हट जाएगा, मल हट जाएगी, तब उस परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे।
एक अच्छे कामिल फकीर ने कहा है- ‘बेइमानी की कमाई से खाना खाकर अगर कोई रूहानी तरक्की चाहता है, तो वह पानी के ऊपर मकान बनाना चाहता है।’ पसीने की कमाई, पवित्र कमाई खाओ। आपलोगों को सुनकर आश्चर्य होगा कि बादशाह औरंगजेब का जीवन कितना सादा था। वे अपने पसीने की कमाई खाते थे। इस संदर्भ में एक प्रसंग सुनाना चाहूँगा। सुनिए-उनके गुरु का नाम था-मौलाना अहमद जीवन। जब औरंगजेब राजगद्दी पर बैठ गये, तो उन्होंने अपने गुरु को कई बार भोजन करने का निमंत्रण दिया, दावत पर बुलाया। लेकिन उनको फुर्सत नहीं मिलती थी, नहीं आ सके। कई वर्ष बीत गये। जब रमजान की छुट्टी हुई, तब वे उनके यहाँ पधारे। औरंगजेब अपने राजमहल में अपने गुरु को देखकर बाग-बाग हो उठे। उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा। उनका राजोचित खूब आदर-सत्कार किया। जब भोजन का समय हुआ, तो इन्होंने अपने गुरु से पूछा, आप मेरे साथ बैठकर भोजन करेंगे अथवा शाही लंगर की शोभा बढ़ाएँगे? मौलाना जानते थे कि औरंगजेब का खान-पान बहुत सीधा-सादा होता है। उन्होंने झट कहा, भई वाह! मुझे शाही लंगर से क्या वास्ता? मैं तो अपने शागिर्द के पास आया हूँ। उसी के साथ बैठकर खाना खाऊँगा। औरंगजेब की खुशी का ठिकाना न रहा। उनके चेहरे से प्रसन्नता टपक पड़ी। उस्ताद और शागिर्द; दोनों जब खाना खाने के लिए बैठे, तो एकदम सादा खाना था-दाल, चावल, रोटी। न पकवान, न मिष्टान्न। मौलाना ने छककर खाया। खाकर बोले, ‘बेटा! बहुत नसीबवाले हो, जो शाही खान-पान से परहेज रखते हुए ऐसा लज्जतदार खाना खाते हो। जिसमें वह मिठास भरपूर है, जो किसी माँ के हाथों पके सोंधी-सोंधी खुशबू लिए खाने में होती है।’ खाने के बाद मौलाना ने अपने थैले से एक मोटा-सा सूती कपड़ा निकालकर औरंगजेब को देते हुए कहा, ‘बेटा! यह मेरी माँ ने खास तुम्हारेि लए रोजे रखते हुए काता है और परहेजगार जुलाहे से बनवाया है।’ औरंगजेब की खुशी उसके दिल में लबालब भरकर आँखों के रास्ते छलक उठी। कृतकृत्य हो उस पाक वस्त्र को उन्होंने अपने सिर और आँखों में लगाया। और उसी वख्त अपने एक विश्वसनीय आदमी को बुलाकर आदेश दिया कि यह पाक वस्त्र हमेशा मेरे सफर के सामान के साथ रहे, ताकि अगर मैं कहीं परदेश में मरूँ, तो यही मेरा कफन बने। आखिर इससे ज्यादा पाक कफन हो ही क्या सकता है!
ईद के बाद जब मौलाना के जाने का वख्त आया, तो औरंगजेब ने बड़े आदर के साथ उनके हाथ का बोसा लेकर एक छोटी-सी थैली के अंदर से कोई चीज निकाली। परतों पर परत खुलने के बाद एक दुअन्नी निकली, जिसे उन्होंने सम्मानपूर्वक अपने गुरु को भेंट किया।
कहते हैं कि अपने शासनकाल में वे बिना नागा, रोज एक घंटा कुरानमजीद लिखते थे और एक घंटा भर टोपियाँ सीने का काम करते थे। टोपियों की बिक्री से जो आमदनी होती, बस वही पैसे अपने ऊपर खर्च करते थे। राजकोष से एक पाई तक नहीं लिया करते थे।
तन, मन और आत्मा; इन तीनों की पवित्रता चाहिए। तन की पवित्रता स्नानादि से, मन की पवित्रता सत्संग से और आत्मा की पवित्रता अंतस्साधना-ध्यान से होगी। केवल तन पवित्र से कुछ नहीं होगा। तन की भी पवित्रता चाहिए; लेकिन मन की पवित्रता उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है, जिससे आत्मा परिशुद्ध होगी- आत्मदर्शन होगा। संत कबीर साहब ने कहा-
“ जब दरसन देखा चाहिए, तब दर्पण मांजत रहिये ।
जब दर्पण लागी काई, तब दरस कहाँ ते पाई ।।”
अर्थात् अपना अंतःकरण रूप जो आईना है, उसको साफ करो, तभी परमात्म-दर्शन होंगे। बाह्य पवित्रता साबुन से नहा-धोकर कर लो, अच्छी बात है; लेकिन मन की पवित्रता इससे नहीं होगी। इसके लिए सत्संग करो, यानी संतों का संग करो। गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ सरदातप निसि ससि अपहरई ।
संत दरस जिमि पातक टरई ।।”
शरद ऋतु कहते हैं-आश्विन-कार्तिक महीने को। उस समय दिन में गरमी अधिक पड़ती है और रात में शीतलता छा जाती है। गोस्वामीजी कहते हैं कि दिन की गरमी को रात में चंद्रमा हरण कर लेता है। उसी तरह संतों के दर्शन से पातक टर जाते हैं। मतलब कि हट जाते हैं। हटते हैं लेकिन बाद में पुनः आकर फिर सट जाते हैं। हटने के बाद भी सटने की प्रक्रिया लगी रहती है। पातक सटे नहीं, इसका क्या उपाय है? हमलोग देखते हैं कि तालाब में पानी के ऊपर काई जम जाती है, सेंवार जम जाता है। जब हमें जल लेने की आवश्यकता होती है, तो हमलोग उसे हाथ से हटाकर बालटी या घड़ा डुबाते हैं और पानी ले लेते हैं। जब हटाते हैं, तो पानी पर से काई हट जाती है; लेकिन पानी लेकर जैसे हटते हैं, तो फिर काई आकर भर जाती है। उसी तरह संतों के दर्शन जबतक होते रहते हैं, तबतक तो पातक अलग रहता है, पर जब हमारे नजदीक से उठकर चले जाते हैं, तो फिर पातक घेर लेता है। इसके लिए क्या करना होगा, जिससे वह सटे नहीं? गोस्वामी तुलसीदासजी इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप राशि नसाइये ।।”
जब ईश्वर की बड़ी अनुकम्पा होती है, तब संतों के दर्शन होते हैं। हम संतों के दर्शन करें, स्पर्शन करें, समागम करें, ठीक है। किन्तु उसके साथ जुड़ा हुआ है शब्द ‘आदिक’ अर्थात् कुछ और! वह क्या? संत जो करने के लिए बतलाएँगे, वह करेंगे। संत क्या करने के लिए बतलाएँगे? ध्यान करने के लिए। वैदिक धर्मावलंबी जिसको ध्यान कहते हैं, ईसाई धर्मावलंबी उसी को मेडीटेशन (Meditation ) कहते हैं। इस्लाम धर्मावलंबी उसी को मराकबा कहते हैं। तो ध्यान, मराकबा या मेडीटेशन किसको कहते हैं? ‘All attention without any tension’ यह है मेडीटेशन। ‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ मन निर्विषय हो जाए, यह ध्यान है। अभी हमारा मन पंच विषयों में दौड़ता है-कभी रूप में, कभी रस में, कभी गंध में, कभी स्पर्श में और कभी शब्द में। इन पंच विषयों से मन को हटाने के लिए ध्यान करना होगा। हमलोग जब विद्यालय जाते हैं, तो पहले मोटे-मोटे, बड़े-बड़े अक्षरों को लिखते हैं। और जब लिखते-लिखते आदत पड़ जाती है, तब महीन अक्षर लिखते हैं। माई लोग जब शुरू-शुरू चौके में रोटियाँ बनाने के लिए जाती हैं, तो पहले दिन की रोटी मोटी और टेढ़ी-मेढ़ी होती है। कोई रोटी कच्ची रह जाती है और कोई रोटी जल जाती है। जब बराबर बनाने लगती है, तब रोटी से वह फलका बन जाता है, भारी से हल्का बन जाता है। उसी तरह पहले मोटा ध्यान होता है और फिर ध्यान करते-करते सूक्ष्म ध्यान में जाते हैं। स्थूल ध्यान के संबंध में इस प्रकार कहा गया है-
“ अति पावन गुरु मंत्र मनहि मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।”
यही मोटी उपासना है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ गुरु की मूरति हृदय बसाए ।
जो ईच्छै सोई फलु पाए ।।”
अगर कोई अपने इष्ट का ध्यान ठीक-ठीक कर पाता है, तो वह जो कामना करता है, पूरी होती है। संत चरणदासजी की वाणी है-
“ कल्पवृच्छ गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधेन गुरुदेव क्षुधा तृष्णा हरैं ।।”
महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
“ गुरु ही को धरि ध्यान नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट पूजन गुरु ही थपो ।।”
यह स्थूल उपासना है। उसके बाद सूक्ष्म उपासना है। हमलोग जो अक्षर लिखना शुरू करते हैं, तो जहाँ कलम रखते हैं, वहाँ एक छोटा-सा चिह्न उत्पन्न होता है। उसको हम विन्दु की संज्ञा देते हैं। हम रेखागणित में पढ़ते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। हमारे सामने त्रिभुज प्रत्यक्ष है; लेकिन हम कहते हैं-कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है, यह कैसी बात हुई? कल्पना तो करते हैं, जो हमारे समाने नहीं है। जो हमारे समाने है, उसे हम क्यों कहते हैं कि कल्पना किया। त्रिभुज से मतलब है-वह धरातल जो तीन भुजाओं से या तीन रेखाओं से घिरा हो। हमलोग विद्यालय में यह भी पढ़ते हैं कि जिसका स्थान हो, परिमाण नहीं हो, उसको विन्दु कहते हैं। रेखा उसको कहते हैं, जिसमें लंबाई हो, चौड़ाई नहीं हो। आजतक बाह्य संसार में किसी ने ऐसी रेखा का अवलोकन नहीं किया होगा, जिसमें लंबाई हो और चौड़ाई नहीं हो। जहाँ हम कलम रखते हैं, वहाँ जो छोटा चिह्न बनता है, उसको विन्दु कहते हैं। वह कल्पित विन्दु है, यथार्थ विन्दु नहीं है। इसलिए कल्पित विन्दु से जो रेखा बनी है, वह कल्पित रेखा है और उस कल्पित रेखा से जो त्रिभुज बनी है, वह भी कल्पित है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही यह प्रश्न उदय होता है कि जबतक कहीं असल नहीं है, तो यह नकल कैसे, कहाँ से आ गई? इसी को जानने के लिए भगवान महावीर ने प्रेक्षा ध्यान बतलाया है। जो कोई प्रेक्षा ध्यान करते हैं, उनको असली विन्दु के दर्शन होते हैं। इसी विषय को बाइबिल में इस प्रकार समझाया गया है-‘यदि तेरी आँखें एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा और यदि तेरी आँखें बुरी है, तो देखो तुम्हारे अंदर कितना बड़ा अंधकार का साम्राज्य है।’
आँखों को एक करने का क्या मतलब है? दो आँखें हैं तो क्या एक आँख को निकाल करके फेंक दो? नहीं, नहीं, कहने का तात्पर्य दृष्टि से है। दृष्टि की दोनों धाराओं को मिलाकर एक करो। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जानै, जोगी कहिये सोई ।’
और महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखा है-
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से चीरि तेजस विन्दु ।
सुनो अंदर नाद ही लखो सूर्य तारे इन्दु ।।”
साधक क्रिया-विशेष के द्वारा दोनों दृष्टि धारों को मिलाकर एक करते हैं। दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। इसलिए दोनों दृष्टि की धाराएँ जहाँ पर मिलेंगी, वहाँ जो विन्दु प्रकट होगा, वह असली विन्दु होगा, यथार्थ विन्दु होगा। कुरानशरीफ के हूद में इसी विन्दु ध्यान की क्रिया को बतलायी गयी है। जो कोई विन्दु का ध्यान करते हैं, तो योगशिखोपनिषद् कहता है-विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्। जहाँ विन्दु उत्पन्न होता है, वहाँ पर नाद की अनुभूति होती है। नाद कहाँ से आया हुआ है? परमात्मा से। बाइबिल में आया है-‘ In the beginning was the word, the word was with God and the word was God’ आरंभ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था। उस शब्द को जो पकड़ता है, वह ईश्वर के पास पहुँचता है। एक कामिल फकीर ने कहा है-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
बातिन का अर्थ है भीतर और गोश का अर्थ है कान। ‘गोश बातिन’ का अर्थ होता है-भीतर का कान। जो कोई कुछ दिनों तक सगलेनसीरा का अभ्यास करता है अर्थात् दृष्टि योग की साधना करता है, उसको वह शब्द मालूम पड़ता है। वह शब्द कहाँ ले जाता है? अल्लाह-परमात्मा, जो सबसे उत्कृष्ट है, वहाँ ले जाकर पहुँचा देता है। क्योंकि शब्द में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है।
मान लीजिए अँधेरी रात हो और आप तू-तू करके कुत्ते को पुकारिये, तो क्या होगा? कुत्ता आपके पास आ जाएगा। जैसे आपकी आवाज सुनकर कुत्ता आपके पास आज गया; उसी तरह आप जो अल्लाह की आवाज सुनेंगे, परमात्मा की आवाज सुनेंगे, ब्रह्मनाद सुनेंगे, तो कहाँ ले जाएगा? आपको ब्रह्म से जाकर मिला देगा। यही संतमत की साधना है। चाहे वैदिक हो या ईसाई हो, इस्लाम हो या सिक्ख हो, जैन हो या बौद्ध हो; सबके लिए यही साधना है। अंतस्साधना में कोई अंतर नहीं है। अंतस्साधना के द्वारा अंतर के अंतिम तह में पहुँचोगे तो आत्मसाक्षात्कार होगा और प्रभु के दर्शन होंगे। जीव-पीव का मिलन होगा। यथार्थ सत्संग हो जाएगा। मानव जीवन कल्याणमय हो जाएगा।


महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 15-3-2004 को 93वाँ महाधिवेशन, किशनगंज में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 2004 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
धम्मपद नाम्नी पुस्तिका में भगवान बुद्ध का एक वचन है, जो कि उन्होंने उपासिका विशाखा से कहा था। वह है-
“ पेमतो जायते सोको पेमतो जायते भयम् ।
पेमतो विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयम् ।।”
और संत कबीर साहब कहते हैं-
“ प्रेम छुटावै जगत से, प्रेम मिलावै राम ।
प्रेम करै गति और ही, ले पहुँचे हरि धाम ।।”
भगवान बुद्ध और संत कबीर, दोनों ने प्रेम के संदर्भ में ही कहा है। किन्तु, दोनों के प्रेम में भिन्नता है। भगवान बुद्ध ने जागतिक प्रेम के संबंध में कहा है और संत कबीर साहब ने जगत्पति के प्रेम के संबंध में कहा है। दोनों संतों ने दोनों प्रकार के प्रेमों के परिणाम बतलाए हैं। दोनों के वचनों का उद्देश्य एक ही है। यानी जगत् से मुड़ो और जगत्पति से जुड़ो। इसी दृष्टि को अपनाकर भगवान बुद्ध कहते हैं-‘प्रेम से शोक उत्पन्न होता है और प्रेम से भय होता है। जो प्रेम से मुक्त है, उसको शोक नहीं, फिर भय कहाँ से?’ भगवान बुद्ध के कहने का अर्थ है कि जागतिक प्रेम से शोक, भय और दुःख उत्पन्न होते हैं। जिसको प्रेम नहीं है, उसको न शोक है, न भय और न दुःख ही। जागतिक प्रेम कुछ इस तरह का होता है कि वह बंधन का कारण होता है। जिसको जगत में जिस व्यक्ति या वस्तु से आसक्ति या प्रेम है, एक-न-एक दिन उसके प्रेम का खंडन होगा। चाहे वह व्यक्ति या उस वस्तु को छोड़कर चला जाय। एक-न-एक दिन जागतिक प्रेम में बिछुड़न अवश्यम्भावी होता है। साथ ही जिससे जितनी अधिक आसक्ति होती है यानी जिसके प्रति जितना अधिक प्रेम होता है, उसके बिछुड़न से उसको उतना ही अधिक कष्ट भी होता है। इसलिए कहा कि जगत् से प्रेम नहीं करो, वह दुःख का कारण होता है। इस विषय की एक बड़ी अच्छी घटना है, सुनिए-
भगवान बुद्ध की एक शिष्या थी-विशाखा। बहुत धनवान परिवार की पुत्री थी। उसका विवाह भी सम्पन्न परिवार में हुआ था। उस जमाने में उसने भगवान बुद्ध के विहार और बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए 27 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ खर्च किये थे। उसकी एक नतनी थी जिसका नाम था-दन्तकुमारी। दंतकुमारी का शरीर छूट गया। उस बच्ची से उसको बहुत प्रेम था। उससे वियोग के कारण वह इतना विकल हो गयी कि भींगे बाल, भींगे वस्त्र रोती-बिलखती भगवान बुद्ध के पास पहुँच गयी। भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘विशाखा! आज तुमको क्या हो गया, तुम किस कारण इतनी दुःखी हो?’ विशाखा ने कहा, ‘भगवन्! क्या बतलाऊँ, हमारी एक ही नतनी थी, वह आज दुनिया से उठ गयी।’ भगवान बुद्ध ने उसको सान्त्वना देते हुए कहा,‘तुम एक नतनी के लिए इतनी दुःखी हो रही हो! अच्छा बताओ, श्रावस्ती नगरी में कितने लोग रहते हैं? (उस समय भगवान श्रावास्ती नगर में रहते थे।) विशाखा ने उत्तर दिया,‘भगवन्! सात करोड़ की आबादी है।’ भगवान बुद्ध ने कहा, ‘अगर मैं तुमको सात करोड़ नतनी दे दूँ, तो तुम खुश हो जाएगी न!’ विशाखा, ‘भगवन्! तब मेरे सुख का क्या कहना! बहुत सुख मिल जाएगा मुझको।’ भगवान बुद्ध-‘विशाखा! श्रावस्ती में कभी कोई मरते तो नहीं हैं?’ विशाखा, ‘भगवन्! जहाँ सात करोड़ की आबादी है, वहाँ दस-बीस तो रोज ही मरते हैं।’ भगवान बुद्ध, ‘विशाखा! मैं तुमको सात करोड़ नतनी दे दूँ और उसमेुं दस-बीस रोज मरे, तो तुमको सुख होगा कि दुख होगा?’ विशाखा ने हाथ जोड़कर कहा,‘भगवन्! में समझ गयी, अब मुझे नहीं चाहिए।’
इसी प्रसंग पर भगवान ने कहा है कि जिसको जागतिक आसक्ति होती है, जगत में प्रेम होता है, उसको दुःख होता है। दूसरी ओर जिसको जगदासक्ति नहीं है, बल्कि जगत्पति से आसक्ति है, वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही बात संत कबीर साहब कहते हैं कि ‘प्रेम छुटावै जगत से।’ जगत्पति के प्रति जिसका प्रेम होता है, उसको जगत् की आसक्ति नहीं रहती है। जो जगत्पति से युक्त होता है, वह जगत से विमुक्त हो जाता है। प्रेम की गति कुछ और ही होती है। उसकी ऐसी ऊर्ध्वगति होती है कि ‘ले पहुँचे हरि धाम’-परमात्म-धाम में पहुँचा देती है। ऐसा प्रेम कहाँ मिलता है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देय ले जाय ।।
प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
भावै लंबे केस रख, भावै मूड़ मुड़ाय ।।”
हृदय में प्रेम होना चाहिए। वेश बनाने से कुछ होता नहीं है। चाहे लंबे बाल बढ़ा लो, चाहे माथा मुड़ा लो, इससे कुछ मिलनेवाला नहीं है। अगर बाल बढ़ाने से ही भगवान मिल गए अथवा उनकी हिंसावृत्ति गयी? तब लोगों के मन में एक विचार उत्पन्न हो सकता है कि यदि बाल बढ़ाने से कुछ नहीं मिलता है, तो बाल मुड़ा लेने से कुछ मिलता होगा? संत कबीर साहब इसका भी समाधान करते हैं। वे कहते हैं-
“ केसन कहा बिगाड़िया, जो मुड़ी सौ बार ।
मन को क्यों न मुड़िये, जामें विषय विकार ।।
मूड़ मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोइ लेइ मुड़ाय ।
बार बार के मुड़ते, भेंड़ बैकुंठ न जाय ।।”
चाहे संत हों या भगवन्त हों; ये दोनों प्रेम के ही भूखे होते हैं। वे आपके धन के भूखे नहीं होते।
सत्ययुग की बात है। हिरण्यकशिपु दैत्यों का राजा था। वह धनवान और बलवान तो था; लेकिन उसमें भगवत्प्रेम नहीं था। उसी का पुत्र प्रीांद भगवान का बड़ा भक्त था। हिरण्यकशिपु ने भगवान को नाम छोड़ने के लिए अपने पुत्र को बहुत तरहों से सताया, फिर भी वह भगवान का नाम लेता रहा। भगवान् नृसिंह रूप में प्रकट हुए। हिरण्यकशिपु को भी भगवान के दर्शन हुए और प्रीांद को भी भगवान के दर्शन हुए; लेकिन परिणाम क्या हुआ? हिरण्यकशिपु अहंकारी था। इसलिए उसका संहार हुआ औैर प्रीांद भगवद्भक्त थे, इसलिए उनका उद्धार। हिरण्यकशिपु के पास धन था, बल था; किन्तु प्रीांद बेचारे के पास क्या था? भगवान में प्रेम था, भक्ति थी, श्रद्धा थी।
सत्ययुग से आइए अब त्रेतायुग में। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम चौदह वर्षों के लिए वन गए थे। जंगल-जंगल घूमते थे। जंगल में बहुत-से ऋषियों-मुनियों के आश्रम थे; लेकिन भगवान श्रीराम पहले परम भक्तिन शवरी की कुटिया में जाते हैं। शवरी आदर के साथ स्वागत-सत्कार करती है। कंद, मूल, फल लाकर खाने के लिए देती है। भगवान प्रेम से स्वीकार करते हैं। भगवान उनके कंद, मूल, फल के भूखे तो नहीं थे, उनके प्रेम के भूखे थे, उनके श्रद्धा-भक्ति के भूखे थे। त्रेतायुग से अब आइए द्वापर युग में।
दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेलकर छल से उनका राज-पाट, धन-दौलत; सब कुछ अपहरण कर लिया। पांडवों का वनवास हो गया। जंगल-जंगल फिरते रहे। शर्त थी कि बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास के बाद लौटकर आ जाने पर उनका राज्य वापस कर दिया जाएगा। लेकिन शर्त पालन के बावजूद भी दुर्योधन ने वापस करना नहीं चाहा। भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए गए कि जिस समय जुआ में युधिष्ठिर सब कुछ हार गये, तो तुम वचनबद्ध थे कि जंगल से वापस आ जाने पर राज्य वापस कर दोगे। अब तुमको क्या आपत्ति हो रही है? तुम वचन का पालन करो। दुर्योधन कहता है-
‘शूची अग्र न दातव्यम् बिना युद्धेन केशवः।’
हे केशव! सूई की नोक से जितनी जमीन छिदती है, मैं उतनी जमीन भी बिना युद्ध के नहीं दूँगा।
भगवान पाण्डव की तरफ से दूत बनकर गए थे। दुर्योधन ने चाहा कि इनको अच्छी तरह से खिला-पिलाकर, कुछ दान-दक्षिणा देकर अपनी ओर कर लें। इसलिए उसने भगवान को खिलाने के लिए छप्पन प्रकार के भोगों और सोने की थाली में हीरा, लाल, जवाहर आदि लाकर देने की व्यवस्था की थी। किन्तु भगवान कृष्ण ने उनके यहाँ भोजन नहीं किया। वहाँ से विदुरजी के घर चले गये। विदुरजी घर में नहीं थे, विदुरानी थी। वह स्नान कर रही थी। मालूम हुआ कि भगवान आए हैं, तो उसे कुछ जागतिक होश-हवाश नहीं रहा। वैसे ही दौड़े हुए आ गयी। स्नान कर रही थी, शरीर पर वस्त्र का ठिकाना नहीं था। भगवान ने अपना पिताम्बर ओढ़ा दिया। घर में पका केला था, ले आयी भगवान को खिलाने के लिए। अब बेचारी प्रेम में इतनी विह्वल हो गयी कि केला क्या खिलाएगी, छिलकर उसके गुद्दे को फेंकने लगी और छिलका भगवान के हाथों में देने लगी। भगवान भी प्रेम से छिलका खाने लगे। छिलका में ही उन्हें स्वाद लग रहा था। इतने में विदुरजी आए। वे अपनी पत्नी से कहते हैं-‘अरी! क्या कर रही है? भगवान को केला खिलाएगी या छिलका!’ फिर अपनी देह की ओर देखती है, तो लजा जाती है। वस्त्र का संवरण करती है, फिर केला खिलाती है। भगवान कहते हैं-जो स्वाद छिलका में था, वह इस गुद्दे में नहीं है। यह है-प्रेम का व्यवहार। संत कबीर साहब ने कहा-
“ जहाँ प्रेम तहँ नेम नहिं, तहाँ न बुद्धि व्यवहार ।
प्रेम मगन जब मन भया, कौन गने तिथि वार ।।”
अब द्वापर से कलियुग में चले आइए। कलियुग में पंजाब में एक बड़े अच्छे संत हुए गुरु नानकदेवजी महाराज। उनको दो व्यक्तियों ने भोजन करने का निमंत्रण दिया। एक बहुत बड़ा धनी सेठ था-भागो और दूसरा एक गरीब था-लालो। गुरु नानकदेवजी भागो के यहाँ नहीं जाकर लालो के यहाँ गए। भागो ने अपने यहाँ पकवान आदि जो कुछ बनाया था, उनके लिए लालो के घर भिजवा दिया। दोनों थालियाँ सामने आयीं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने लालो के कोदो की रोटी खायी, पकवान नहीं खाया। किसी ने पूछा कि आप ये सूखी रोटी खा रहे हैं और आपके समाने पकवान पड़ा हुआ है आप उसको क्यों नहीं छू रहे हैं? भोजन कर चुकने के बाद गुरु नानकदेवजी एक मुट्ठी में भागो का पकवान और दूसरी मुट्ठी में लालो की सूखी रोटी लेकर दोनों को निचोड़ते हैं। पकवान से खून निकलने लगा और सूखी रोटी से दूध। गुरु नानकदेवजी ने कहा,‘देखा आपलोगों ने, एक की कमाई दूध की है यानी परिश्रम की सच्ची कमाई है और दूसरे की कमाई खून की है यानी बेईमानी की है। खून की कमाई मैं नहीं खाता।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्दजी महाराज एकबार पंजाब में घूम रहे थे। उनके जमाने में नाई के पानी का नहीं प्रचलन था। लोग नाई से घृणा मानते थे। उनका छुआ पानी नहीं पीते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी महाराज नाई के यहाँ जाकर रोटी खाए। वहाँ के लोगों ने कहा,‘महाराज! आपने यह क्या किया? आपने नाई की रोटी कैसे खाई?’ स्वामी दयानन्दजी ने कहा, ‘नहीं भाई! मैंने नाई की रोटी नहीं खाई है, मैंने गेहूँ की रोटी खायी है।’
संत हों या भगवन्त, उनको आपका प्र्रेम चाहिए, भक्ति चाहिए। आपकी धन-संपत्ति से उनको कोई सरोकार नहीं। उनके अंदर धनी-गरीब, विद्वान- अविद्वान, पद-प्रतिष्ठा, ऊँच- नीच, जाति-पाँति आदि में कोई भेद नहीं रहता, इसलिए संत पलटू साहब ने लिखा है-
“ साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, साहिब भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, खाया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब ऋषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, मत कर कोइ हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्ययुग, त्रेता, द्वापर अथवा कलियुग; प्रत्येक युग में प्रभु प्रेम की अगाधता पायी जाती है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिम्भ विचार ।
उद्र भरन के कारणे, जनम गँवायो सार ।।”
हमलोग भक्ति करते हैं, अगर उस भक्ति के साथ प्रेम नहीं है, तो वह भक्ति किसी काम की नहीं है।
सच्चा प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसके बिना उसको नहीं रहा जाता। वह विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए अपने प्रेमपात्र से जाकर मिल जाता है। संत कबीर साहब ने प्रेम की महिमा का बड़ा अच्छा वर्णन आया है-
“ प्रेम सखी तुम करो बिचार ।
बहुरि न आना यहि संसार ।।
जो तोहि प्रेम खिलनवाँ चाव ।
सीस उतारि महल में आव ।।
प्रेम खिलनवाँ यही सुभाव ।
तू चलि आव कि मोहिं बुलाव ।।
प्रेम खिलनवाँ यही बिसेख ।
मैं तोहि देखूँ तू मोहिं देख ।।
खेलत प्रेम बहुत पचि हारी ।
जो खेलिहै सो जग से न्यारी ।।
कहत कबीरा प्रेम समान ।
प्रेम समान और नहिं आन ।।”
इसलिए हमलोग प्रतिदिन गुरुदेव से विनती करते हैं-
“ प्रेम भक्ति गुरु दीजिए, विनवौं कर जोड़ी ।
पल पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी ।।”
हमारे गुरुदेव कहते हैं-‘अति अटल श्रद्धा प्रेम से गुरु भक्ति करनी चाहिए।’ प्रेम में समर्पण की भावना स्वाभाविक निहित रहती है। निश्छल प्रेम ही निश्चल रहता है। इस विषय का एक बहुत रोचक प्रसंग है, सुनिए-भगवान श्रीकृष्ण की जयन्ती मनाई जा रही थी। जैसा कि पुराणों में लिखा है-भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। उनमें सत्यभामा अपने को विशेष समझती थी, पर वास्तव में रुक्मिणीजी विशेष थी। लेकिन रुक्मिणीजी अपने को छोटी ही मानती थी। सत्यभामा ने कहा कि हमलोग अपने स्वामीजी की जयन्ती मनाएँगे। सब रानियों ने मिलकर जयंती की तैयारी शुरू की। उत्सव मनाया जाने लगा। सत्यभामा ने कहा कि आज मैं अपने पति को सोने से तौलूँगी। उसने तराजू के एक पलड़े पर भगवान कृष्ण को बिठाया और दूसरे पलड़े पर सोना रखना शुरू किया। रखते-रखते घर में जितना सोना था, सब चढ़ा दिया, पर भगवान हिले भी नहीं। फिर उसके सोने के जितने जेबर थे, सब चढ़ा दिए। तब भी भगवान टस-से-मस नहीं हुए। सत्यभामा ने भगवान की अन्य रानियों से कहा, अरे! क्या देखती हैं, तुमलोग भी अपना-अपना सोना और जेबर चढ़ाओ।’ सब रानियों ने अपने-अपने जेबर और सोने तराजू पर चढ़ा दिए। लेकिन जो भगवान त्रिभुवनपति हैं, उनको सोना से कौन तौल सकता है! तीनों भुवन का सोना चढ़ा दें, तब भी उनको कोई तौल नहीं सकता। सत्यभामा को बड़ी चिंता हुई। सोचने लगी कि अब क्या किया जाए? रुक्मिणीजी चुपचाप तमाशा देखी रही थी। सत्यभामा ने रुक्मिणीजी से कहा, ‘बहनजी! हमलोग तो थक गयीं। अब आप ही कुछ उपाय बताइए, जिससे भगवान तुल जाएँ।’ रुक्मिणीजी ने कहा,‘कोई बात नहीं, मैं उपाय करती हूँ। एक कागज का टुकड़ा लाओ।’ सत्यभामा ने कागज का एक टुकड़ा लाया। रुक्मिणीजी उसपर कुछ लिखकर तराजू के पलड़े पर रख देती है। जैसे ही वह कागज का टुकड़ा रखती है कि तराजू का पलड़ा तेजी से नीचे से उठकर ऊपर चला गया। भगवान कहते हैं, ‘सँभालो, सँभालो, नहीं तो मैं गिर जाऊँगा।’ रुक्मिणीजी ने कहा,‘प्रभो! आज तक किसी ने आपको तौला नहीं था, आज ही तो आप तुलने में आये हैं। घबड़ाते क्यों हैं?’ सत्यभामा ने रुक्मिणीजी से पूछा कि बहनजी! यह क्या जादू आपने किया, आपने यह कहाँ सीखा? यह क्या चमत्कार है, हमलोगों को भी बतलाओ। रुक्मिणीजी ने कहा, ‘यह सबके सामने कहने की बात नहीं, कान में कहने की बात है।’ सत्यभामा ने अपना कान उसके मुँह के पास लगा दिया और कहा,‘कहो क्या बात है?’ रुक्मिणीजी ने कहा, ‘उस कागज को पढ़कर देखो, क्या लिखा है?’ सत्यभामा उसको पढ़ती है। उसमें लिखा था, ‘मैं तेरी हूँ।’ वह आवाक् रह जाती है।
यह है समर्पण की भावना-‘मैं तेरी हूँ।’ केवल मुँह से कह देने से नहीं होता। हमलोग रोज पढ़ते हैं, कहते हैं-
‘सब कुछ समर्पण कर गुरु की सेव करनी चाहिए ।’
हम अपने हृदय पर हथेली रखकर अपने से पूछें कि आज तक हमने अपने गुरुदेव को क्या-क्या समर्पण किया है। केवल जवानी जमा खर्च से काम नहीं चलता। हृदय से प्रभु के प्रति समर्पण होना चाहिए। श्रीमद्भागवत में वर्णित नवधा-भक्ति में यह नवीं भक्ति है-आत्मनिवेदनम्। दीन-हीन सुदामा की श्रद्धा भक्ति और समर्पण के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चंद मुट्ठी चावल चबाया था। इसलिए संत कबीर साहब कहते हैं-
“ तन मन धन सब अर्पन कर वहाँ,
सुरत सम्हार पडूँ पैंया सजन की ।
करो जतन सखी साईं मिलन की ।”
जिस तरह रुक्मिणीजी भगवान कृष्ण पर समर्पित थी, तो भगवान का पलड़ा ऊपर उठ गया; उसी तरह हम भी अगर अपने इष्ट पर पूर्ण रूपेण समर्पित हो जाएँ, तो हमारा भी भक्ति का पलड़ा उठ करके भगवान के पास पहुँच जाएगा, उनसे मिलकर हम एकमेक हो जाएँगे। परम कल्याण हो जाएगा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 23-5-2004 को महर्षि मेँहीँ आश्रम,
कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जुलाई 2004 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सृष्टि की ओर दृष्टि करने से इस विषय की परिपुष्टि हो जाती है कि भूमंडल पर जितनी चीजें हैं, सब-के-सब सांत हैं। स्वयं भूमंडल भी सान्त ही है। जब हम नभ मंडल की ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि जितने तारे हैं, वे सारे-के-सारे अपनी-अपनी सीमा में आबद्ध है यानी सभी तारे ससीम हैं, कोई भी असीम नहीं है। पृथ्वी गोल है, चन्द्रमा गोल है, सूर्य गोल है। यह गोलाई उसकी सीमा बतलाती है। इस तरह नीचे ऊपर तक जितनी चीजें हम देखते हैं, वे सभी ससीम हैं। प्रश्न होगा कि इन ससीमों के पार में क्या है? कहना होगा असीम है, अनंत है। अगर कोई पूछ दे कि उस असीम या अनंत के पार में क्या है? तो कहा जाएगा कि वह बेचारा असीम या अनन्त शब्द का अर्थ नहीं जानता है। जिसकी सीमा नहीं है, वह है असीम। जिसका अंत ही नहीं है, वह है अनन्त। जिसकी सीमा नहीं, जिसका अंत नहीं, तो उसके आगे क्या होगा? वह अनंत तत्त्व एक से अधिक नहीं हो सकता। जैसे ही हम एक से अधिक कहेंगे, उसकी सीमा हो जाएगी, असीमता नहीं रहेगी। दोनों ही ससीम हो जाएँगे। इसलिए असीम तत्व, अनंत तत्व एक-ही-एक है। जो स्वरूपतः असीम है, अनंत है, उसका सर्वव्यापक होना स्वाभाविक है। अनंत तत्व को अपरिमित शक्तियुक्त होना भी स्वाभाविक है। उसी एक अनंत तत्व के अंदर सब कुछ है; क्योंकि अनंत के बाहर कुछ हो ही नहीं सकता। और अनंत तत्व अपनी सूक्ष्मता के कारण उन सब तत्वों में व्यापक होता है।
संतमत उसी एक अनंत तत्त्व को सर्वेश्वर की संज्ञा से अभिहित करता है; क्योंकि वह सबका ईश्वर है। जैसे जो नर का ईश्वर है, वह नरेश कहलाता है; जो सुर का ईश्वर होता है, वह सुरेश कहलाता है; उसी तरह जो सबका ईश्वर होता है, वह सर्वेश है, अखिलेश है और विश्वेश है; वही परम तत्व है, आदि अंत-रहित है, असीम है, अजन्मा है, अगोचर है, सर्वव्यापक है और सर्वव्यापकता के भी परे है। संतमत उसी एक ईश्वर की भक्ति करने के लिए बतलाता है। जो सही ढंग से ईश्वर की भक्ति करता है, उसमें ईश्वर की सारी शक्तियाँ आ जाती हैं। संसार में जिधर देखिए, सर्वेश्वर की महिमा परिलक्षित होती है। किसी कवि ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ ध्यान लगाकर जो देखो, तुम सृष्टि की सुघराई को ।
बात-बात में पाओगे, उस ईश्वर की चतुराई को ।।
ये सब भाँति-भाँति के पक्षी, ये सब रंग-रंग के फूल ।
ये वन की लहलही लता औ, ललित-ललित शोभा के मूल ।।
ये पर्वत की रम्य शिखा और शोभा, सहित चढ़ाव-उतार ।
निर्मल जल के सोते झरने, सीमा सहित महा विस्तार ।।
छह प्रकार के ऋतु का होना, नित नवीन शोभा के संग ।
पाकर काल वनस्पति का फलना, रूप बदलना रंग-बिरंग ।।
चाँद सूर्य की शोभा अद्भुत, वारी से आना दिन-रात ।
त्यों अनन्त तारा मंडल से, सज जाता रजनी का गात ।।
लर्जन-गर्जन घन मंडल का, बिजली वर्षा का संचार ।
जिसमें देखो परमेश्वर की, लीला अद्भुत अपरम्पार ।।”
कोई सज्जन ईश्वर को सगुण मानते हैं और कोई निर्गुण। और, कोई सगुण-निर्गुण के परे मानते हैं। एक शब्द है-‘गुण’ उसमें ‘अव’ उपसर्ग लगा दीजिए तो हो जाएगा-‘अवगुण’ और ‘सत्’ उपसर्ग लगा दीजिए तो हो जाएगा-‘सद्गुण’। दोनों एक-दूसरे के उलटे अर्थ रखते हैं। उसी तरह ‘स’ उपसर्ग लगा देने से ‘सगुण’ हो जाता है और ‘निः’ उपसर्ग लगा देने से ‘निर्गुण’। ये दोनों भी एक दूसरे के उलटे अर्थवाले हैं। सगुण का अर्थ है त्रयगुण-रज, सत् और तम सहित। अर्थात् होना, कुछ काल रहना और फिर नहीं रहना-यह सगुण का काम हैं। ये तीन गुण निर्गुण में नहीं होते। निर्गुण त्रयगुण-रहित होता है। जो इन दोनों के परे हैं, वह परम प्रभु परमात्मा है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सर्गुण के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।”
ये भी निर्गुण-सर्गुण के परे जाने की बात कहते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज क्या कहते हैं, सुनिये-
“ निर्गुण सर्गुण त्रयगुण तै दूरि ।
रहा अलिप्त नानक भरपूरि ।।”
वह सबमें भरा-पूरा है। जहाँ खोजिए, वह मिलेगा। लेकिन खोजने की दृष्टि चाहिए। संत कबीर साहब की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी बिरले संत पिछानै ।
कहै कबीर यह भरम किवाड़ी जो खोलै सो जानै ।।”
जबतक भ्रम की किवाड़ी नहीं खुलेगी, वह दर्शन नहीं होगा। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइया घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमति निरभय ताड़ी लायी ।।”
जो निर्भय होकर ध्यान लगाता है, अचल और स्थिर होकर ध्यान लगाता है, वह दर्शन पाता है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर की मूर्ति आप देखते हैं तो पाते हैं कि वे ध्यानावस्थित हैं। भगवान महावीर ने कठोर साधना की। ध्यान करने के लिए बैठ गये, तो शरीर की सुधि भी भूल गये। जाड़ा, गर्मी, बरसात; सभी ऋतुएँ बीत गयीं। शरीर पर जो कपड़े थे, वे सारे-के-सारे गल गये। श्वेत कपड़े पहनकर ध्यान करने के लिए बैठे थे और कपड़े गल गये, तो हो गये दिगम्बर। इसलिए आज जैनधर्म में श्वेताम्बर और दिगम्बर; ये दो दल हो गये हैं। जब निर्भय ध्यान लगाते हैं, तब वैसा होता है। जो कोई एक ईश्वर में आस्था रखते हैं, दृढ़ विश्वास करते हैं, तो वे प्रभु उनकी सुव्यवस्था करते हैं, सुरक्षा करते हैं।
“ एक साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फलै अघाय ।।”
वृक्ष की जड़ में पानी दीजिए, संपूर्ण वृक्ष में वह चला जाएगा। वृक्ष पल्लवित होगा, पुष्पित होगा और फलित भी होगा। और जब पत्ते-पत्ते में पानी दीजिए, तो वृक्ष ही सूख जाएगा। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ पात पात के सींचवो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘योगक्षमं वहाम्यहम्।’ मैं अपने भक्तों का योगक्षेम करता हूँ। अर्थात् जो चाहिए पूरा करता हूँ और जो देता हूँ, उसकी रक्षा भी करता हूँ। परम प्रभु परमात्मा किस प्रकार सबकी रक्षा करते हैं, संत कबीर साहब की वाणी सुनिये-
“ कछुवी अंडा पालई, बिन थन राखै पोख ।
यौं करता सबकी करै, पालै तीनो लोक ।।”
चिड़ियाँ अंडा देती है, तो वह उसपर बैठकर उसको सेती है; लेकिन कछुवी अंडा देती है, तो वह उसपर बैठती नहीं है। अंडा कहीं है और स्वयं कहीं रहती है। मात्र सुरत से अडा सेती है। लेकिन धीरे- धीरे वह अंडा पुष्ट होता है, फटता है और तब उससे बच्चा निकल जाता है। उसी तरह परमात्मा सबकी रक्षा करते हैं।
एक बार का प्रसंग है। शिवाजी राव ने युद्ध में एक किला को जीता। वह किला जहाँ-तहाँ टूटा हुआ था। उसकी वे मरम्मत करवा रहे थे। हजारों मजदूर उस काम में लगे हुए थे। शिवाजी के मन में हुआ कि अगर मैं नहीं होता, तो इन हजारों लोगों का पालन कौन करता? ये सारे-के-सारे बेचारे भूखे मरते। हम काम में लगाये हुए हैं, जिससे ये सब जी रहे हैं। समर्थ रामदासजी महाराज क्षत्रपति शिवाजी के गुरु थे। बड़े पहुँचे हुए महात्मा थे। वे शिवाजी को बहुत प्यार करते थे और प्यार की भाषा में वे उनको ‘शिवा’ कहा करते थे। समर्थ रामदासजी उनके मन की बात जान गये। वे सोचने लगे कि शिवा के मन में अहंकार का बीज पड़ गया है। कहीं अंकुर हो जाए, फूलने-फलने लग जाय, तो ठीक नहीं होगा। इसलिए बीज का नष्ट कर देना उचित है। एकाएक समर्थ रामदासजी महाराज पहुँच गये और कहने लगे, ‘शिवा! वाह, बहुत अच्छा कर रहे हो। तुम्हारी कृपा से कितने मजदूर, मिस्त्री पल रहे हैं। अगर तुम नहीं होते, तो ये बेचारे सब भूखे मरते।’ समर्थ की बातें सुनकर शिवाजी बहुत लज्जित हुए और विनीत स्वर में कहने लगे, ‘नहीं गुरुदेव! यह तो आपकी महिमा है। आपकी कृपा से सब कुछ हो रहा है।’ समर्थ रामदासजी ने कहा,‘शिवा! देखो वह बहुत बड़ा पत्थर है, लोगों को ठोकर लगेगी। इसको अमुक स्थान से दो टुकड़े करा दो। आदेशानुसार मिस्त्री-द्वारा उसको चिरवाकर अलग किया गया। दोनों टुकड़े अलग-अलग होने पर लोगों ने देखा कि उसमें एक खोढ़र है। जिसमें पानी है और उसमें एक मेढ़क बैठा हुआ है। समर्थ रामदासजी ने कहा,‘शिवा! इस मेढ़क की परवरिश भी तुम्हीं करते थे न? अन्यथा वह तो भूख से मर जाता। शिवाजी कुछ बोल नहीं सके। उन्हें अपनी भूल का एहसास हो गया।
वास्तविक बात तो यह है कि परम प्रभु परमात्मा सबका भरण-पोषण और रक्षण करनेवाले होते हैं। उनको चाम-चश्म से कोई देख नहीं सकते। उस निर्गुण निराकार परमात्मा को प्राप्त करानेवाले संत होते हैं। वे परम प्रभु परमात्मा के साकार रूप होते हैं। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने लिखा है-
‘प्रभु गुप्त हैं गुरु प्रकट हैं, हैं एक ही दयाल ।’
यदि गुरु में शिष्य की सच्ची श्रद्धा-आस्था रहे, तो वे शिष्य की लौकिक-पारलौकिक सारी व्यवस्था करते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सद्गुरु सब कुछ दीन्ह देत कछु न रह्यो ।
हमहिं अभागिनि नारि सुख तजि दुःख लह्यो ।।
गई पिया के महल पिया संग ना रची ।
हृदय कपट रह्यो छाय, मान लज्जा भरी ।।”
जिसके अंदर में मान है, अहंकार है, तो उसको क्या मिलेगा? जहाँ अहंकार है, वहाँ करतार नहीं है और जहाँ करतार है, वहाँ अहंकार नहीं है। अहंकार प्रभु का आहार होता है, वे उसका संहार करते हैं।
एक बार मैंने परम पूज्य गुरुदेव से जिज्ञासा की-गुरुदेव! कबीर साहब कहते हैं ‘सद्गुरु सब कुछ दीन्ह देत कछु न रह्यो।’ इसका तात्पर्य क्या है? गुरुदेव बोले,‘तिजोरी में सम्पत्ति भरी हुई हो और उस तिजोरी की चाभी अगर वह आपको दे दे, तो तिजोरी का माल किसका होगा? जिसको चाभी दे दी गयी उसी का होगा न? उसी प्रकार शरीररूपी तिजोरी में परमात्मारूपी धन रहता है। उसको खोलने की चाभी (दीक्षा) गुरु देते हैं। अब उसको खोल करके निकालिए, प्राप्त कीजिए। जब परमात्मा ही मिल गये, तो बाकी क्या रह गया?’ यही है-‘सद्गुरु सब कुछ दीन्ह देत कछु न रह्यो।’
पूर्णियाँ के एक वकील साहब परम पूज्य गुरुदेव से भजन-भेद लेने के लिए आश्रम आए थे। उन्होंने गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त करने की प्रार्थना की। गुरु महाराज बोले, ‘आजकल मैं भजन-भेद नहीं देता हूँ।’ मेरा नाम बतलाकर उन्होंने कहा कि जाइए उनसे भजन-भेद ले लीजिए। वकील साहब तो आखिर वकील ही ठहरे। उन्होंने कहा,‘हुजूर! मैं तो आपसे भजन-भेद लेने के लिए आया था और आप उनका नाम बतला रहे हैं।’ परमपूज्य गुरुदेव ने उनको समझाया, ‘सुनिये, मानलीजिए कि आपको कुछ रुपये की जरूरत हो। आप मुझसे रुपये माँगे और मैं किसी को कह दूँ कि इनको इतने रुपये दे दीजिए, तो वे रुपये मैंने दिये या उन्होंने? मैंने इन्हें भजन-भेद देने का आदेश दिया है। ये जो भजन-भेद देते हैं, उसको मेरा ही भजन-भेद समझिये’ गुरुदेव की बात से वकील साहब संतुष्ट हो गये। तब उन्होंने मुझसे भजन-भेद लिया। वे अब बूढ़े हो गये हैं, फिर भी वकालत करते हैं। बड़े अच्छे सात्विक विचार के सज्जन हैं-उनका नाम है जितेन्द्र बाबू।
हाँ, तो मैं गुरु-दीक्षा के संबंध में कह रहा था। अब गुरु नानकदेवजी का वचन सुनिये-
“ गुरु कुंजी पाहु निबल मनु कोठा तनु छति ।
नानक गुरु बिनु मन का ताकु न उखड़े अवर न कुंजी हथि ।।”
परम कृपालु गुरुदेव ने हमें चाभी दे दी है। अब खोजना हमें ही है। कहाँ खोजेंगे, इसका स्पष्टीकरण महर्षि मेँहीँ-पदावली में इस प्रकार है-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
किस प्रकार खोजेंगे? उसका भी उत्तर है-
“ दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।”
जो दोनों दृष्टि की धारों को मिलाकर एक कर सकते हैं, वे ही अपने अंदर प्रवेश करते हैं। जबतक दृष्टि की दोनों धारें एक नहीं होंगी, भीतर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। हमलोग सूई की छेद में धागा पिरोते हैं। अगर हमारी दोनों दृष्टि-धारें दो तरफ हों तो छेद में धागा नहीं पिरोया जा सकता है। दोनों दृष्टि की धारों को एक छेद पर रखेंगे, तब उसमें धागा पिरो सकेंगे। उसी तरह जब हमारी दृष्टि की युगल धाराएँ गुरु-निर्देशित स्थान पर मिल जाएँगी, तभी सूक्ष्म द्वार से प्रवेश करेगी। जबतक दृष्टि फैली हुई रहेगी, मन भी फैला हुआ रहेगा और तबतक अंतःप्रवेश नहीं कर सकेंगे। भक्ति मार्ग की सूक्ष्मता के संबंध में संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ति दुआरा साँकरा, राई दसमें भाव ।
मन ऐरावत हो रहा, कैसे होय समाव ।।”
भक्ति का द्वार, जिस होकर भक्त भगवान तक पहुँचता है, बहुत सूक्ष्म है। लेकिन हमारा मन तो ऐरावत हाथी बना हुआ है, घमंड भरा हुआ है, फिर उस द्वार में प्रवेश कैसे कर सकते हैं?
हमलोग भोजन करते हैं। जो भोजन पच जाता है, शरीर में लगता है। शरीर पुष्ट होता है, बल मिलता है और तृप्ति होती है। लेकिन जो भोजन नहीं पचता, उससे कब्ज हो जाता है, कभी बहुत दस्त ही होने लगता है या उल्टी हो जाती है। अर्थात् वह भोजन हानि पहुँचाता है। उसी तरह हम बहुत सत्संग सुनते हैं, किताब भी बहुत पढ़ते हैं; लेकिन श्रवण और अध्ययन ज्ञान के आधार पर गुरु-निर्देशित साधना का अभ्यास नहीं करते, अनुभव ज्ञान प्राप्त नहीं करते, तो वह ज्ञान भी अपच हो जाता है। जैसे अनपच अन्न हानि पहुँचाता है, उसी तरह यह अनपचा ज्ञान भी हानि पहुँचाता है। ऐसा व्यक्ति अपने को महान समझ बैठता है। वह बौद्धिक ज्ञान के घमंड से भरकर अपने आगे इतनी बड़ी खाई खोद लेता है, जिसको पार करना उसके लिए संभव नहीं हो पाता है। वह वाचक ज्ञानी बनकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है। लंगड़ा हो जाता है। फिर वह भक्ति-मार्ग पर चलने में असमर्थ हो जाता है। इसलिए संतों ने कहा-अहंकार को समाप्त करो।
“ हउमै मारि बजर कपाट खुलाइआ ।
नाम अमोलक गुरु परसादी पाइआ ।।”
(गुरु नानक साहब)
जबतक हउमै नहीं मरेगा, अहंकार नहीं मरेगा, अंधकाररूपी बज्र कपाट नहीं खुलेगा और करतार के दरबार में प्रवेश नहीं कर कर सकेंगे। इसलिए किसी फकीर ने कहा है-‘खुदी मिटाओ, खुदा मिलेंगे।’ जबतक खुदी ही नहीं मिटेगी, तबतक खुदा नहीं मिलेंगे। दृष्टि की दोनों धाराओं को मिलाकर एक करने को दृष्टियोग की क्रिया कहते हैं, इसके बाद शब्द-योग की क्रिया होती है। इस संबंध में महर्षि मेँहीँ-पदावली में इस प्रकार है-
“ तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।”
तिल द्वार की सूक्ष्मता को संत तुलसी साहब ने मकर-तार की उपमा दी है। यथा-
“ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जो जानै कोई ।
तुलसी दास साध है सोई ।।”
वह कपाट तिल के सदृश सूक्ष्म है। तिल काला होता है और उजला भी होता है। साधक साधना करने के लिए बैठते हैं। जैसे-जैसे एकाग्रता होती है, सिमटाव होता जाता है, तो पहले काला तिल मालूम पड़ता है। काले तिल पर जो अपने मन और दृष्टि को स्थिर करके रखते हैं, तब उनको उजला तिल दीखता है। पश्चात् विभिन्न प्रकार के अनहद नादों को सुनता है। संत तुलसी साहब की वाणी में आया है-
“ स्याम कंज लीला गिरि सोई ।
तिल परिमान जान जन कोई ।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै ।
एक पलक छूटन नहिं पावै ।।
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा ।
तिल खिरकी में निसदिन वासा ।।
गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
भक्ति मार्ग की सूक्ष्मता बतलाने के लिए संत तुलसी साहब ने ‘मकर-तार’ की उपमा तो दी है, उसके साथ उन्होंने यह भी बतलाने की कृपा की है कि जिस प्रकार मकड़ा जिस तार के सहारे छत से उतरकर नीचे जमीन पर आता है, उसी तार को पकड़कर वह अपने पूर्व स्थान पर चला जाता है। उसी प्रकार यह जीव जिस शब्द धार के अवलंब से इस धराधाम-संसार में आया है, उसी शब्दधार को पकड़कर वहाँ से चला जाए, जहाँ से वह आया है। अर्थात् परमात्म-पद से इस जगत् में आया है, पुनः वह वहाँ पहुँच जाए। साधक किस शब्द को, कहाँ पर, किस प्रकार पकड़े, जिससे वह परमात्म-धाम में पहुँच सके, इसका स्पष्टीकरण महर्षि मेँहीँ-पदावली में पढ़िये-
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
शरीर के अंदर पाँच मंडलों के पाँच केन्द्रीय ध्वनियाँ होती हैं। साधक स्थूल के केन्द्र पर पहुँचकर ऊपर की ध्वनि या नाद को पकड़ता है और सूक्ष्म के केन्द्र पर जाता है। सूक्ष्म के केन्द्र पर कारण के केन्द्र से ध्वनि आती है, जो महाकारण के केन्द्र पर ले जाती है। वहाँ महाकारण की ध्वनि मिलती है। उससे खिंचकर साधक महाकारण के केन्द्र पर जाता है। वहाँ मिलनेवाली ध्वनि कैवल्य के केन्द्र पर ले जाती है। वहाँ साधक सार-शब्द को पकड़कर परमात्मा से जा मिलता है। निःशब्द में पहुँचकर जीव-पीव मिलकर एक हो जाता है। जैसे नदी का जल समुद्र में मिल जाने पर फिर उससे अलग नहीं होता, उसी तरह जीव जब एक बार परमप्रभु से मिलकर एक हो जाता है, तो फिर उससे पृथक नहीं होता, आवागमन के चक्र से छूटकर सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 27-6-2004 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 2004 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत कोई राजनीतिक संस्था नहीं है। यह विशुद्ध अध्यात्मवाद है। इस अध्यात्मवाद के द्वारा समत्व-ज्ञान का प्रचार होता है, समता सिखलायी जाती है। यहाँ जाति-पाँति की कोई बात नहीं होती और जाति-पाँति के कारण छोटे-बड़े की बात भी नहीं होती।
“ जाति पाति पूछे नहिं कोई ।
हरि को भजे सो हरि का होई ।।”
जो खोटे कर्म करते हैं, वे छोटे रहते हैं। जो शुभ कर्म करते हैं, वे बड़े होते हैं। कर्मों के अनुकूल लोग छोटे और बड़े होते हैं। खोटे कर्म करनेवाले भी यदि उन कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों का आचरण करें, सत्संग-भजन करें, तो एक-न-एक दिन वे भी बड़े होंगे।
समता का ज्ञान तबतक नहीं होगा, जबतक राम से और नाम से ममता नहीं होगी। पहले नाम जाना जाता है, फिर नामी जाना जाता है। नाम वाचक है और नामी वाच्य है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि संसार में समता हो सकती है; लेकिन किस तरह-
“ तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोस न दोष दुःख, दास भये भव पार ।।”
जब राम से समता लगा लेंगे, तब संपूर्ण संसार से समता होगी। अंदर में समता के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘समत्वं योग उच्यते।’ समता योग से होता है। जबतक योग नहीं करेंगे, समता की प्राप्ति नहीं होगी। गोस्वामी तुलसीदासजी का संकेत है कि राम से समता करो। वह राम कौन और कैसा? गोस्वामीजी उसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं-
“ राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गद भेदा ।
कहि नित नेति निरूपहिं वेदा ।।”
वह राम ब्रह्म है, परमार्थ स्वरूप है, अविगत- सर्वव्यापक हैं। ‘रमन्ति रामः’-जो सबमें रमण करता है, वह राम है। वह वर्णनातीत है, अनादि है-उसका आदि ही नहीं है। जिसका आदि ही नहीं है, उसका अंत कहाँ? जिसका जन्म ही नहीं, उसकी मृत्यु कहाँ? अनूपा-अनुपम है, उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।
“ निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ।।”
उस राम की उपमा किसी से नहीं दी जा सकती। राम के समान राम ही हैं। जिस तरह सूर्य के प्रकाश की उपमा कोई असंख्य जुगनू से दे, तो यह उपमा सही नहीं है; उसी तरह राम के लिए जो उपमा दी जाती है कि और कोई उस तरह के दूसरे हैं, यह उपमा सटीक नहीं है। राम को ब्रह्म कहा गया है। वह ब्रह्म कैसा?
हमलोग ब्रह्म लिखते हैं-ब, र संयुक्त ‘ब्र’ और ह, म संयुक्त ‘ह्म’। ब्रह्म में चार अक्षर हैं-ब, र्, ह् और म। ‘ब’ से तात्पर्य है-ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता। ‘र’ से तात्पर्य है-रक्षक अर्थात् संरक्षण करनेवाला- विष्णु। ‘ह’ से तात्पर्य है-हर अर्थात् हरण करनेवाला-शंकर। ‘म’ से तात्पर्य है-मुकुन्द अर्थात् मुक्ति देनेवाला। ब्रह्मा में एक गुण है-उत्पन्न करने का। शंकर में एक गुण है-हरण करने का। विष्णु में एक गुण है-पालन करने का। ये ब्रह्मा हैं-रजोगुण, विष्णु हैं-सतोगुण और भगवान शंकर हैं-तमोगुण। लेकिन इन एक-एक गुण के अतिरिक्त दूसरे गुण उनमें नहीं हैं। किन्तु जो राम हैं, वे मुकुन्द भी हैं; इन तीनों गुणों के परे भी हैं। मुकुन्द का अर्थ है-मुक्ति देनेवाला। ब्रह्मा उत्पन्न कर सकते हैं, विष्णु पालन कर सकते हैं, शंकर हरण कर सकते हैं; लेकिन जो उत्पन्न कर सकता है, पालन कर सकता है, हरण कर सकता है और मुक्ति भी दे सकता है, वह है ‘ब्रह्म’। गोस्वामीजी ने कहा है-वह मुकुन्द तीनों गुणों से परे हैं।
“ तीज त्रिगुन पर परम पुरुष, श्री रमन मुकुन्द ।
गुन सुभाव त्यागे बिना, दुरलभ परमानन्द ।।”
जबतक हम त्रय गुणों को पार नहीं करेंगे, तबतक उस ब्रह्म के दर्शन नहीं होंगे। जो ब्रह्म सर्वत्र हैं, सबमें व्यापक हैं, वह एक-ही-एक है। आज संसार में अनेक धर्म फैले हुए हैं। जितने आस्तिक धर्म हैं, सबमें एक ईश्वर की मान्यता है। कोई भी आस्तिक धर्मावलंबी नहीं कह सकते कि ईश्वर अनेक हैं। ईश्वर एक है; लेकिन विभिन्न भाषाओं में लोग उनको भिन्न- भिन्न नामों से पुकारते हैं। वे प्रभु सभी भाषाओं के जानकार हैं। मानवीय भाषा की कौन कहे, वे पशु-पक्षी की भाषा भी जानते हैं। मुँह की बात पर नहीं, वे हृदय की बात पर ध्यान देते हैं। जो आर्त पुकार करते हैं, प्रभु उनकी सब सुनते हैं। इसलिए वे ब्रह्म हैं, परमात्मा हैं। जैसे आकाश सर्वत्र है, आकाश से रिक्त कहीं नहीं है। आकाश को कहीं एक जगह से दूसरे जगह नहीं ले जा सकते हैं, स्वतः है ही; उसी तरह परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र हैं ही। वे कहीं से आते नहीं, कहीं जाते नहीं।
‘प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।’
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
आकाश की तरह वे सर्वत्र हैं। जो सर्वत्र हैं, वे हमारे अंदर भी हैं। संतमत बतलाता है कि जो हमारे अंदर हैं, उनकी खोज अपने अंदर करो। वे बाहर भी हैं; लेकिन जब कभी भी प्राप्ति होगी, तो अपने अंदर होगी। जबतक अंदर में प्राप्ति नहीं होगी, तबतक बाहर में भी नहीं होगी। इसलिए उनको खोजने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है।
“ कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं ।।”
(संत कबीर साहब)
मृगा की नाभि में कस्तूरी रहती है। जब मृगा को वह सुगंधि मालूम पड़ती है, तो ‘खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।’ लेकिन गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल में खोजने पर उसको सुगंधि नहीं मिल सकती, यह सुगंधि कहाँ से आ रही है, इसका पता नहीं मिलेगा। जब वह नाभि की ओर देखेगा, तब उसको जानकारी होगी कि नाभि में जो कस्तूरी है, वहीं से सुगंधि प्रस्फुटित होती है। उसी तरह हम संसार में कितना भी ढूँढ़ लें, जहाँ कहीं भी हम चलें जाएँ; लेकिन प्रभु के दर्शन, आत्मदर्शन नहीं हो सकते। जब हम अपने अंदर प्रवेश करेंगे, तब आत्मदर्शन होंगे। आत्मदर्शन हो जाएँगे, तब सबमें एक-ही-एक आत्मा को देखेंगे। जैसे बाहर से कोई गाय काली होती है, कोई उजली होती है, कोई लाल होती है, कोई चितकबरी होती है, विभिन्न रंगों की गायें होती हैं; लेकिन उन गायों को दूहने पर सबसे एक ही रंग का दूध निकलता है-उजला। जैसे तकिये के खोल विभिन्न रंगों के होते हैं; लेकिन उनके अंदर रहनेवाली रूई का रंग उजला होता है-एक ही होता है। उसी तरह से मनुष्य बाहर से कोई गोरा होता है, कोई काला होता है, कोई नाटा होता है, कोई मोटा होता है, कोई दुबला होता है; लेकिन सबके अंदर निवास करनेवाली आत्मा एक ही होती है। जिसको एक आत्मा का ज्ञान हो गया, वही समता प्राप्त करेगा, वही सबमें एक देखेगा। तभी वह कहेगा-
“ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।।”
सभी सुखी रहें, सभी रोग-रहित हों, सभी शुभ-शुभ देखें, दुःख किसी को नहीं मिले। यह उनके हृदय की भावना होगी, तभी समता प्राप्त होगी, समत्व प्राप्त होगा। इसके लिए योग करना होगा और वह योग है-दृष्टियोग और नादयोग। उसके पहले है-मानस योग अर्थात् मानस जप और मानस ध्यान। इन चारो क्रियाओं के द्वारा, चार साधनाओं के द्वारा आत्मा की प्रत्यक्षता होती है। जो पहले मानस जप करते हैं, मानस ध्यान करते हैं, दृष्टियोग करते हैं, फिर नादयोग करते हैं, वे नाद से परे ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाकर परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षता कर आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं। हमारे गुरुदेव की वाणी में आया है-
“ घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए ।।”
केवल बाहर की एकता खोजेंगे, वह नहीं हो सकती। जबतक भीतर की एकता नहीं होगी, तबतक बाहर की एकता नहीं होगी। इसलिए पहले भीतर में हम आत्मदर्शन करें, उसकी साधना करें। इसके लिए हमारा जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र जीवन के लिए सदाचार का पालन करना होगा। सदाचार का पालन करने के लिए झूठ छोड़ना होगा, चोरी छोड़नी होगी, नशीली किसी वस्तु का सेवन नहीं करना होगा, हिंसा नहीं करनी होगी। मांस, मछली, अंडा आदि का सेवन नहीं करना होगा। जो इन पंच पापों से बचकर रहेंगे, अंतस्साधना करेंगे, अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करेंगे, तो सत्संग-ध्यान करते-करते एक-न-एक दिन वे आत्मस्वरूप का लाभ करके अपना परम कल्याण बनाएँगे। जो कोई अपना परम कल्याण बना सकते हैं, वे ही दूसरे का परम कल्याण बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान होंगे, वे ही दूसरे को विद्वान बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान नहीं, क्या वे दूसरे को विद्वान बना सकते हैं? आत्म-लाभ के लिए अंतस्साधना करनी चाहिए। पवित्र जीवन बिताना चाहिए।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 30-01-2005 को महर्षि मेँहीँ आश्रम,
कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2005 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-‘बिनु गुरु होइ कि ग्यान। ‘बिना गुरु के लौकिक ज्ञान भी नहीं हो सकता है, तो पारमार्थिक ज्ञान कैसे होगा! लौकिक जीवन-यापन के लिए जैसे लौकिक गुरु की आवश्यकता होती है, उसी तरह से पारलौकिक जीवन-यापन के लिए पारलौकिक गुरु की आवश्यकता होती है। वे हमें अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं, ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
अर्थात् तत्त्ववेत्ता गुरु की शरण में जाओ, प्रणिपात करो, सेवा करो और परिप्रश्न करो। वे तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान करेंगे। आध्यात्मिक गुरु कैसे होते हैं? जैसे पावर-हाउस में विद्युत् शक्ति भरी हुई है। अगर पावर-हाउस से सीधे ही बिजली अपने घर में ले लेंगे, तो वहाँ पावर-हाउस में विद्युत् की जितनी उच्च क्षमता है उस आधार पर हमारे घर के तार जल जाएँगे, बल्ब फट जाएँगे; लेकिन उस पावर-हाउस के बाद बीच में एक ट्रांसफर्मर रखते हैं। वह ट्रांसफर्मर विद्युत् शक्ति को नियंत्रित करता है। उस ट्रांसफर्मर से अपने घर में बिजली लेते हैं, तो जितना भोल्टेज चाहिए उतना मिल जाता है। उसी तरह से परम प्रभु परमात्मा पावर-हाउस हैं और जो संत सद्गुरु हैं, वे ट्रांसफर्मर हैं। गुरु परमात्मा की शक्ति हमको देते हैं। जितनी आवश्यकता होती है, उतनी देते हैं। जब गुरु की कृपा होती है, तो उनकी कृपा से सब कुछ संभव हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ रामकृष्ण से को बड़ो, तिनहूँ तो गुरु कीन्ह ।
तीन लोक के ठाकुरे ,सो गुरु के आधीन ।।”
हम श्रीराम और श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। श्रीराम के दो गुरु थे और श्रीकृष्ण के भी दो गुरु थे। श्रीराम के लौकिक गुरु थे विश्वामित्रजी और पारलौकिक (आध्यात्मिक) गुरु थे वशिष्ठजी। श्रीकृष्ण के लौकिक गुरु सन्दीपनि मुनि थे और पारलौकिक ज्ञान देने वाले गर्ग मुनि थे।
अभी वशिष्ठजी और भगवान श्रीराम की चर्चा आपने सुनी। जब भगवान श्रीराम रावण को मारकर सीता का उद्धार कर अयोध्या पहुँचे और राजभवन गये, तो उनकी माता कौशल्याजी ने भगवान श्रीराम को अपनी गोद में बिठा लिया और शरीर सहलाती हुई पूछने लगी-‘बेटा! तुम्हारा शरीर कमल से भी अधिक कोमल है और लंका का राजा रावण बड़ा दुर्जेय और बलवान था। तीनों लोकों पर उसका आधिपत्य था। देव, दनुज, मनुज, यक्ष एवं गन्धर्व सब उसके डर से काँपते थे। उसपर तुमने कैसे विजय प्राप्त की?’ भगवान श्रीराम ने कहा-
“ गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे।
तिनकी कृपा दनुज रन मारे।।”
अर्थात् गुरु वशिष्ठजी महाराज की कृपा से हमने रावण एवं अन्य राक्षसों का संहार किया। जब गुरु की कृपा हो जाती है तो-
“ कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधेनु गुरुदेव छुधा तृष्णा हरैं ।।”
गुरुदेव कल्पवृक्ष और कामधेनु के समान हैं। जिस कामधेनु और कल्पवृक्ष की कथा पुराणों में है, उस कल्पवृक्ष और कामधेनु से बहुत-से लौकिक कार्य सम्पन्न होते हैं; किन्तु उनसे पूर्ण मंगल नहीं होता है। कल्पवृक्ष के नीचे जाकर भी लोग दुःख पा सकते हैं; लेकिन संत सद्गुरुरूपी कल्पवृक्ष की शरण में जाकर कभी दुःख नहीं पाते हैं, बल्कि वहाँ सभी दुःख दूर हो जाते हैं।
एक यात्री यात्र करते हुए जंगल में भटक गया। भूखा-प्यासा तो था ही, बेचारा थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया और सोचने लगा-खाने के लिए जंगल में क्या मिलेगा, कम-से-कम पानी भी मिल जाता, तो पी लेता, कुछ शान्ति मिल जाती। उसने देखा कि समीप ही जल की कल-कल धारा बह रही है। उसके मन में हुआ कि उधर से ही मैं आया हूँ, पहले जल नहीं था, अब जल देख रहा हूँ। कुछ भ्रम तो नहीं हो रहा है। उसने नजदीक जाकर देखा कि ठीक जल की ही धारा बह रही है। जल में स्नान करके उसने लोटे में जल ले लिया और उसी वृक्ष के नीचे आ गया। मन में सोचता है कि जल तो है, यदि कुछ भोजन मिल जाता, तो ठीक होता। सोचने की देर थी कि उसके सामने भोजन की थाली में अनेक सामग्रियाँ आ गयीं। उसने भर पेट भोजन किया और जल भी ग्रहण किया। भोजनोपरान्त उसे विश्राम करने की इच्छा हुई। सोचने लगा कि विश्राम तो करूँगा, पर नीचे जंगल में साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े आदि होंगे। क्या नींद आएगी! अगर सोने के लिए खाट-पलँग कुछ मिल जाता, तो उसपर आराम से सोता। शीघ्र ही उसने देखा कि पलँग, तोशक, तकिया आदि सभी लगे हैं। जब वह सोने गया तो सोचने लगा- सो तो जाएँगे, पर चिड़िया ऊपर से बीट कर दे, तो ठीक नहीं होगा। अगर कपडे़ का घर बन जाता और मशहरी लग जाती, तो यह परेशानी ही समाप्त हो जाती। कपड़े का घर भी बन गया और मशहरी भी लग गयी। अब आराम से सोते हुए वह सोचने लगा-अभी तक तो सब कुछ ठीक हो रहा है; लेकिन आखिर है तो जंगल ही। कहीं बाघ आ गया और गला मरोड़ दिया, तब तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा। ठीक उसी समय बाघ भी आ गया और उसका गला मरोड़ दिया। इस तरह उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गयी।
आपने देखा कि दुनिया का जो कल्पवृक्ष है, उसके नीचे जाकर भी दुःख होता है; लेकिन संत सद्गुरुरूप जो कल्पवृक्ष होते हैं, उनके आदेश के परिवेश में अपने को रखने से दैहिक, दैविक और भौतिक- तीनों ताप दूर होते हैं। इसीलिए संत सद्गुरु मेंं विश्वास करनी चाहिए। उनकी सेवा करके, उनकी आज्ञा का पालन करके मनोवांछित फल पाया जा सकता है।
“ गुरु दाता दयाल वह काटैं जमजाल ।
पल में कर दें निहाल भजो साध गुरु ए ।।”
सबसे बड़ा फल है- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। जो संत सद्गुरु की सेवा करते हैं, वे शरीर में रहते हुए चारों फल प्राप्त कर लेते हैं। गुरु सेवा का अर्थ है, उनकी आज्ञा का पालन।
‘गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारनं।’

सद्गुरु महर्षि संतसेवी परमहंस का यह प्रवचन पट्टालम, चेन्नई में श्रीअरुण कुमार अग्रवाल के निवास स्थान पर रात्रिकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक 10-02-2005 ई0 को हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने अभी संत कबीर साहब की वाणी सुनी। उसमें बतलाया गया कि परमात्मा अपने अंदर हैं, उनको खोजने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है। आवश्यकता है सही मार्ग समझकर उस पथ पर चलने की। प्रेम एक ऐसा विलक्षण वस्तु है, जो मानव में है, पशु में है, पक्षी में है; सभी प्राणियों में है। प्रेम एक ही प्रकार का नहीं होता, उसमें भिन्नता हो सकती है; लेकिन प्रेम सबके अंदर है। किसी-न-किसी से सबको प्रेम है। माँ बच्चे को पालती-पोसती है। उसे बच्चे से प्रेम है। पति-पत्नी में प्रेम है, तो जीवन सुखद है। प्रेम नहीं है, तो जीवन दुःखद होता है। उसी तरह परिवार का प्रेम है, समाज का प्रेम है।
प्रेम एक ऐसा लस्सा है, जो एक दूसरे को आपस में बाँधता है, एक जगह करता है। हम जिनको हिंस्त्र जीव समझते हैं, उसके अंदर भी प्रेम है। बाघ, सिंह आदि हिंसक जीव यदि हमलोगों को देख लें, तो वे हमें मार-काटकर खा जाएँगे; लेकिन उसको भी अपने बच्चे से प्रेम है। और सबको भले वे मार-काटकर के खा जाएँ, लेकिन अपने बच्चे को नहीं खाएँगे।
जिसको जिससे प्रेम होता है, वह उसके निकट होता है। हम दो भाई हैं या हम पिता-पुत्र हैं, आपस में प्रेम है, तो बहुत अच्छी बात है। अगर प्रेम नहीं हो, तो एक घर में रहकर भी कलह रहता है। दो भाई हैं, एक साथ रहते हैं। इसके बच्चे को वे मार दे या उसके बच्चे को ये मार दे और आपस में भाइयों को प्रेम है, तो वे कुछ ध्यान नहीं देंगे। सोचेंगे कि बच्चा बदमाशी किया होगा, इसलिए मारा। जब वही भाई भिन्न-भिन्न हो जाए और तब एक दूसरे के बच्चे को मारे, तो तुरंत कहेगा कि हमारे बच्चे को क्यों मारा, कड़ी आँखों से क्यों देखा?
जागतिक प्रेम तो छूट जानेवाला है, दुःखप्रद है, पर परमात्म-प्रेम सुखप्रद होता है और कभी छूटनेवाला नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ प्रेम सखी तुम करो बिचार ।
बहुरि न आना यहि संसार ।।
जो तोहि प्रेम खिलनवाँ चाव ।
सीस उतारि महल में आव ।।
प्रेम खिलनवाँ यही सुभाव ।
तू चलि आव कि मोहिं बुलाव ।।
प्रेम खिलनवाँ यही बिसेख ।
मैं तोहि देखूँ तू मोहिं देख ।।
खेलत प्रेम बहुत पचि हारी ।
जो खेलिहै सो जग से न्यारी ।।
कहत कबीरा प्रेम समान ।
प्रेम समान और नहिं आन ।।”
अगर प्रभु से तुम्हारा प्रेम है, तो वह प्रेम सागर की अशांति से छुड़ाकर परमात्मा से जाकर मिला देगा। प्रेम की गति विलक्षण होती है। संत कबीर साहब का वचन है-
“ प्रेम छुटावै जगत से, प्रेम मिलावै राम ।
प्रेम करै गति और ही, ले पहुँचै हरिधाम ।।”
जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तब हमसे कोई प्रेम करता है। यह प्रेम नहीं, व्यापार है। प्रेम तो एक पाक्षिक होता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, वह हमको प्रेम दे या नहीं दे; लेकिन हम उससे प्रेम करते रहें, यह है सच्चा प्रेम। वह प्रेम कैसा होता है? तो रहीम कवि कहते हैं-
“ जाल दिये जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाड़त मोह ।।”
मछली का प्रेम पानी से इतना होता है कि पानी के बिना मछली जी नहीं सकती है। धीवर जल में जाल फेंकता है। जाल में छेद रहते हैं। उन छेदों से होकर जल तो निकल जाता है; लेकिन मछली जाल में फँस जाती है। उस मछली को जाल से निकालकर धीवर जमीन पर ले जाता है। अब पानी से दूर हो जाने के कारण मछली छटपटाने लगती है। उसमें ऐसी छटपटाहट होती है कि पानी के बिना वह जान भी दे देती है। लेकिन पानी को उससे कोई प्रेम नहीं है। पतंग को प्रकाश से प्रेम है। वह प्रकाश से मिलने के लिए जाता है। परिणामतः जलकर भस्म हो जाता है। प्रेम इसका नाम है। प्रकाश नहीं चाहता है कि पतंग हमारे पास आवे। आओ या नहीं आओ, प्रकाश होता रहता है। लेकिन प्रेम के वश होकर पतंग उसके पास जाता है। भँवरे को फूल की सुगंध से प्रेम है। वह कमल पर जाकर बैठ जाता है। उसके पराग से उसे इतना प्रेम है कि वह आनंद में अपने को खो देता है। दिन भर उसमें रहता ही है, शाम होते ही पंखुड़ियाँ बंद होने लगती हैं, तब भी वह नहीं निकलता है, उसी में बंद होकर रह जाता है। उसका दाँत इतना तेज होता है कि वह चाहे तो पंखुड़ियों को काटकर बाहर निकल सकता है; लेकिन उसे प्रेमवश नहीं काटता है। सबेरे हाथी आता है, कुछ फूलों को पैरों के नीचे दबाता है और कुछ को खा भी जाता है। इस तरह भँवरे की जान जाती है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा है-
“ हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ।।”
स्वामी ब्रह्मानंदजी कहते हैं-
“ आशिक हुआ जो दिल तो क्या दुनिया की शरम है ।
करना इश्क को जगत में नहीं सहज करम है ।।
दीपक को देखकर पतंग प्रेम बस हुआ ।
गिरके अगिन में जल गया गरचे वह गरम है ।।
भ्रमर सुगंध के लिए फूलों पर जा बसा ।
फँस के कमल में रह गया गरचे वह नरम है ।।
ईशू तथा मंसूर को सूली चढ़ा दिया ।
ब्रह्मानंद गई जान तो छोड़ा न धरम है ।।”
प्रेम के धर्म को पकड़ लिया और उस धर्म के लिए अपनी जान दे दी-यह है सच्चा प्र्रेम। प्रभु के प्रेमी मानते हैं कि प्रभु से बढ़कर संसार में और कोई नहीं है। तो हमारा क्या फर्ज होता है-जो बड़े हों, उनको अपने पास बुलावें या हम बड़े को यहाँ जाएँ? हमें उनके पास जाना चाहिए, उन्हें कष्ट क्यों दें!
एक बार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों सैर करने के लिए जंगल की ओर गये। घूमते-घूमते वे एक साधु के आश्रम में पहुँचे। साधु बाबा अपने काम में मस्त थे। पास में तीन तीर पड़े हुए थे। अर्जुन देखते हैं कि कहाँ तो ये साधु बाबा हैं और कहाँ इनके पास तीन तीर! साधु बाबा तीर लेकर क्या करेंगे! उन्होंने पूछा, ‘बाबा! आप तो महात्मा हैं, आपके पास ये तीर क्यों?’ साधु बाबा ने कहा, ‘देखो जी! एक तीर से तो अपनी रक्षा के लिए रखता हूँ और ये दो तीर हमारे दो दुश्मन हैं, उन्हीं के लिए हैं।’ अर्जुन ने पूछा, ‘महाराज! आप जंगल में रहते हैं, आपका दुश्मन कौन होगा?’ साधु बाबा ने उत्तर दिया, ‘अरे! नहीं जानते हो, हमारे दो दुश्मन हैं-एक है द्रौपदी, जिसने हमारे भगवान को द्वारिका से दौड़ाकर दिल्ली बुलाया था और दूसरा है अर्जुन, जो हमारे भगवान को सारथी बनाकर उनसे घोड़ा दौड़वाता है। इन दो दुश्मनों को मारने के लिए हमने यह तीर रखा है। इन दोनों से जब भेंट होगी, तब उसकी जान लिये बिना नहीं छोडूँगा।’ यह सुनकर भगवान के मन में हुआ यदि कहीं इनको मालूम हो जाए कि यह अर्जुन है तो-----। उन्होंने अर्जुन को संकेत किया कि यहाँ से शीघ्र चलो। दोनों शीघ्र ही वहाँ से चल पड़े। मेरे कहने का तात्पर्य यह कि ईश्वर-दर्शन के लिए उनके पास जाना चाहिए न कि यहाँ बुलाना चाहिए। जो यहाँ आकर दर्शन देंगे, वह उनका मायिक रूप होगा, सगुण साकार रूप होगा। और हम अपने अंदर जाकर जो दर्शन करेंगे, वह निर्गुण-निराकार दर्शन होगा। सगुण- साकार की अवहेलना नहीं है; लेकिन हमार लक्ष्य निर्गुण-निराकार ही नहीं, बल्कि उसके पर का होना चाहिए। संत कबीर साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
“ सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।”
सब प्रभु के प्रिय हैं, अप्रिय कोई नहीं हैं। वे जो कुछ करते हैं, उचित ही करते हैं, किसी के लिए अनुचित नहीं करते। लेकिन कभी-कभी कितने लोग उनपर दोषारोपण भी करते हैं कि भगवान को ऐसा नहीं करना चाहिए, भगवान को वैसा नहीं करना चाहिए आदि। ऐसा लगता है जैसे भगवान से बढ़कर न्याय करनेवाले हम ही हो गये? अरे! जब जागतिक पिता अपने पुत्र को कभी अहित नहीं कर सकता है, तो जो जगत् का पिता है, वह किसका अहित करेगा?
“ एक पिता के विपुल कुमारा ।
होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ।।
कोई सर्वज्ञ धर्मरत कोई ।
सब पर पितहिं प्रीति सम होई ।।
कोउ पितु भगत वचन मन कर्मा ।
सपनेहु जान न दूसर धर्मा ।।
सो सुत प्रिय पितु प्राण समाना ।
जद्यपि सो सब भाँति अयाना ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं, ‘सब पर पितहिं प्रीति सम होई’। एक ही पिता के अनेक पुत्र हैं, अनेक गुण लिये हुए हैं; लेकिन फिर भी पिता की दृष्टि सब पर समान होती है। उसी तरह परमात्मा की भी दृष्टि सब पर समान है। उस प्रभु से मिलने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-‘हमारा यार है हममें।’ हममें है, तो हम बाहर क्यों जाएँ? प्रश्न उदित होता है कि वे बाहर में नहीं हैं? बाहर में भी हैं; लेकिन हम उन्हें बाहर में ग्रहण नहीं कर सकते। क्योंकि बाहर में जो कुछ भी हम पकड़ते हैं, इन्द्रियों से पकड़ते हैं और इन्द्रियों में वह क्षमता ही नहीं है कि उस सूक्ष्मतम परमात्मा को पकड़ सके। हमारा शरीर पाँच तत्त्वों से बना हुआ है। इसमें मिट्टी है, जल है, अग्नि है, हवा है और आकाश है; ये पाँच तत्त्व हैं। शरीर क्या है? मिट्टी ही मिट्टी है। पसीना निकलता है, पेशाब करते हैं-पानी ही पानी है। शरीर स्पर्श करते हैं, तो गर्म मालूम होता है, वह अग्नि तत्त्व है। अगर किसी का शरीर गर्म नहीं है, तो कहते हैं राम-नाम सत्त हो गया। अग्नि ही नहीं, पाँच तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व बिछुड़ा तो राम-नाम सत्त हो जाता है यानी मृत्यु हो जाती है।
“ पाँच तत्व का पूतला, मानव धरिया नाम ।
एक तत्व के बीछुड़े, विकल भया सब ठाम ।।”
मिट्टी, जल और अग्नि; इन तीन चीजों को तो हम जानते हैं। श्वास लेते हैं, श्वास फेंकते हें, तो हवा को देखते नहीं, पर अनुभव करते हैं। लेकिन आकाश का पता नहीं चलता। लेकिन बिना आकाश का जीवित भी नहीं रह सकते। जब खाली स्थान ही नहीं रहेगा, तो साँस से हवा लेंगे किस ओर से? भोजन करेंगे, किस होकर के? तीन तत्त्व को देखते हैं, एक तत्त्व को देखते नहीं; लेकिन अनुभव करते हैं। पर आकाश का इन्द्रियों से अनुभव भी नहीं होता है। फिर वह परम प्रभु परमात्मा जो सूक्ष्मतम है, उसे हम इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकेंगे? हमलोग श्वास लेते हैं, तो लाखों कीड़े पेट में जाते हैं और श्वास छोड़ते हैं, तो लाखों कीड़े मरते हैं। जबकि हम उन्हें नहीं देख पाते हैं, तब उन कीड़ों में जो जीव है-चेतन तत्त्व है, उसे कैसे देखेंगे और फिर उस जीव में जो जीवनी शक्ति देनेवाला, चेतना प्रदान करनेवाला है, उसको हम कैसे देख सकते हैं? इसलिए एक साधक ने कहा है-
“ इस नजर से हवा भी न दिखलाएगी ।
इससे परमात्मा दीखे हँसी आएगी ।।”
जो जातीय तत्त्व है, उसी से सजातीय तत्त्व का ज्ञान होता है। जो राजा का पुत्र है; वही राजा की गोद में जाकर बैठ सकता है। राजा की गोद में बैठने का दूसरे को अधिकार नहीं है। उसी तरह से परम प्रभु परमात्मा सबके पिता हैं, उसकी गोद में ‘हम’ ही बैठ सकते हैं। वह ‘हम’ कौन? हम शरीर नहीं, शरीरी हैं।
“ ईश्वर अंश जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”
यह जीव ही उस पीव से जाकर मिल सकता है और दूसरा कोई नहीं। इसलिए ऐसी साधना हो कि हम अपने अंदर चलें। जिस तरह नदी का जल समुद्र में मिलकर एक हो जाता है, अब उसको कोई भिन्न नहीं कर सकता, उसी तरह यह जीव अंदर-ही-अंदर चलते-चलते उस परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाता है और आवागमन का चक्र छूट जाता है। किसी भी शरीर में आने से दैहिक, दैविक, भौतिक; कष्ट होते रहते हैं। जब संसार में आना ही नहीं, शरीर में आना ही नहीं, तो कष्ट कहाँ?
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज काहुहि नहिं व्यापा ।।”
राम के राज्य में चले जाएँगे, प्रभु के धाम में चले जाएँगे, तो कोई कष्ट नहीं रहेगा। इसलिए संतों ने कहा कि भगवान का भजन करो। जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो और अपने को पापों से बचाकर रखो। यह लोक भी कल्याणमय होगा और परलोक भी कल्याणमय होगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 11-02-2005 को पट्टालम, चेन्नई में
रात्रिकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2005 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
कभी कभी भूखे बच्चे को समय पर भोजन नहीं मिलता है, तो वह रूठ जाता है। उसकी माँ जब उसको खिलाना चाहती है, तो वह खाना नहीं चाहता। उस समय माँ कुछ-कुछ देकर उसको लुभाती है कि किसी तरह हमारा बच्चा खा ले। इसके लिए वह रंग-बिरंगे खिलौने उसे देती है। झुनझुने की आवाज सुनाकर उसके हाथ में देती है। बच्चा स्वयं उसे लेकर झुन-झुन झुन-झुन करता है। बच्चे को अच्छा लगता है। फिर बच्चे के खाने के लिए माँ मिठाई, नमकीन आदि चटपटे भोज्य पदार्थ रखती है और बच्चे को अपनी गोद में बिठा लेती है। वह बच्चा खिलौने को हाथ में लेकर खेलता है और माँ उसके मुँह में कभी मिठाई, नमकीन, कभी चरपरा, कभी खटाई आदि देती है। इस तरह जब बच्चा खाने लगता है, तो माँ खुश हो जाती है। उसी तरह हमलोग जगत्-पिता से रूठे हुए हैं, उनकी भक्ति भूले हुए हैं। तब जो उस प्रभु के संदेशवाहक और उन्हीं की सुगण-साकार प्रतिमूर्ति हैं-संत सद्गुरु; वे हमको ईश्वर भक्ति करने के लिए विविध प्रकार से समझाते हैं। समझाने के उनके तरीके भी भिन्न-भिन्न हैं। वे हमें कभी वात्सल्य भाव में, कभी दास्य भाव में, कभी सख्य भाव में और कभी दाम्पत्य भाव में समझाते हैं। जिसका मन जिस भाव में रमता है, वह उसको ग्रहण कर लेता है। जैसे भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच सख्य भाव था। यशोदाजी और भगवान श्रीकृष्ण में, कौशल्या और श्रीराम में वात्सल्य भाव था। कबीर साहब दाम्पत्य भाव में समझाते हैं-
“ घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे ।
घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे ।।”
एक कमरे में दुलहा और दुलहन दोनों बैठे हुए हैं। दुलहा का मन करता है कि दुलहन को देखें कि कैसी दुलहन है? दुलहन के मन में भी होता है कि दुलहा कैसे हैं? लेकिन दुलहन के चेहरे पर जबतक घूँघट रहेगा, तबतक उसे दुलहा नहीं दीखेगा। अगर नारी पति को देखना चाहती है, उससे मिलना चाहती है, तो उसे घूँघट हटाना पड़ेगा। संत कबीर साहब कहते हैं-अगर परमात्मा-रूपी पति से जीवात्मा-रूपी पत्नी को मिलाना है, तो घूँघट का पट खोलो। केवल कबीर साहब की ही नहीं, अन्य संतों की वाणियों में भी ऐसा भाव पाते हैं।
मुसलमान भाई के परिवार की जो महिलाएँ होती हैं, वे भी चेहरे पर एक आवरण डालती हैं। हमलोग जिसको घूँघट कहते हैं, उसको वे लोग बुरका कहते हैं-
“ साहब साहब क्या करे साहब तेरे पास ।।
साहब तेरे पास याद करु होवै हाजिर ।
अन्दर धँसि कै देखु मिलैगा साहब नादिर ।।
मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै ।
बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै ।।
रूह करे मेराज कुफर का खोलि कुलाबा ।
तीसो रोजा रहै अन्दर में सात रिकाबा ।।
लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास ।
साहब साहब क्या करै साहब तेरे पास ।।”
इस बुरका को हटाओ, फिर प्रभु को देखोगे। जिसको संत कबीर साहब घूँघट और पलटू साहब ने बुरका की संज्ञा दी है, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने उसको यवनिका कहा है-
“ मायाबस मति मन्द अभागी ।
हृदय यवनिका बहुबिधि लागी ।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं ।
निज अज्ञान राम पर धरहीं ।।”
हम गोस्वामीजी से पूछते हैं कि आप ने तो कह दिया-‘हृदय यवनिका बहुबिधि लागी।’ यानी बहुत प्रकार के पर्दे लगे हुए हैं, तो स्पष्टीकरण कीजिए कि ये पर्दे क्या हैं? गोस्वामीजी कहते हैं-
“ काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुखरूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तमकूप ।।”
अंधकार के कुएँ में तुम पड़े हो। यह तुम्हारे ऊपर पहला पर्दा है।
हमलोग देखते हैं कि सूर्य भगवान का प्रकाश चतुर्दिक है; लेकिन संत जन कहते हैं कि तुम अंधकार में पड़े हुए हो। यह कैसी बात हुई? वे उत्तर देते हैं-‘अरे भाई! जो प्रकाश तुम देखते हो, वह तो बाहर में है। बाहर में तो तुम्हारा शरीर है; लेकिन तुम शरीर के भीतर हो। बाहर की चीजों को देखने के लिए तुम आँखें खोलकर देखते हो, तो जो भीतर की चीज है, उसे देखने के लिए क्रिया उलट दो। अर्थात् बाहर में आँखें खोलकर देखते हो, तो भीतर में देखने के लिए आँखें बंद कर दो।’ जब अपनी आँखें बंद करते हैं, तो कहते हैं- ‘कहाँ कुछ दीखता है?’ संत जन कहते हैं-‘ठीक से देखो, कुछ देखने में आवेगा।’ तब वे कहते हैं-‘हाँ-हाँ, अंधकार मालूम पड़ता है।’ अरे भैया! जब तुम अंधेरे में हो, तो तुमको क्या सूझेगा? अंधेरे में तो तुम अपने शरीर को भी नहीं देखते हो कि काला है या गोरा, पतला है या मोटा, लंबा है या छोटा। अंधकार में तुमको क्या पता मिलेगा? तुमको पता तो तब मिलेगा, जब रोशनी जल जाए। इसलिए प्रकाश में जाने के लिए अंधकार के आवरण को पार करो। यह आवरण है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अनेक प्रकार के पर्दों की बात तो कही है, पर इस रहस्य का उन्होंने उद्घाटन नहीं किया है। यह बात सर्वसाधारण को समझनेवाली नहीं है और हम सर्वसाधारण व्यक्ति हैं, तो कैसे समझेंगे? तब समाधान के लिए हम अपने गुरु (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के पास चलते हैं। वे कहते हैं-
‘घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय जीव पर हैं छा रहे ।’
अर्थात् प्रत्येक जीव के ऊपर ये त्रयावरण पड़े हैं-अंधकार, प्रकाश और शब्द। अब हम पुनः हाथ जोड़कर पूछते हैं कि गुरुदेव इन त्रयावरणों को हम पार कैसे करें? वे उत्तर देते हैं-
‘कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन ये हटाना चाहिए ।’
दृष्टियोग की साधना करो और नादानुसंधान की साधना करो, तो इनको पार कर जाओगे। हम फिर उनसे करबद्ध प्रार्थना करते हैं-‘गुरुदेव! यदि हम इन तीनों पर्दों को पार कर जाएँ, तो हमको क्या मिलेगा?’ वे उत्तर देते हैं-
‘इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।’
जब माया हट जाएगी, तो क्या रहेगा- ‘निर्मायिक पदार्थ।’ वह निर्मायिक तत्त्व ही परमात्मा है। जब माया हटेगी, तो प्रभु से एकता होगी और द्वैतता मिट जाएगी। द्वैतभाव मिट जाएगा जैसे नदी का पानी समुद्र से मिल जाए, तो कोई उसे अलग नहीं कर सकता, उसी तरह यह जीव जब जाकर परमात्मा से मिल जाता है, तो वह भी परमात्मस्वरूप हो जाता है। इसी विषय को समझाने के लिए भगवान श्रीराम ने नवधा भक्ति का वर्णन किया। नवधा का अर्थ है- नव+धा यानी नौ प्रकार की विधि। भगवान ने नौ प्रकार की भक्ति बतलायी है। पहली भक्ति है-संतों का संग। जब संत का संग करते हैं, कुसंग का त्याग करते हैं, तो यह सत्संग है। हमलोग भोजन करते हैं। भोजन करने से शारीरिक बल मिलता है। जब सत्संग करते हैं, तो मानसिक बल मिलता है और जब ध्यान करते हैं, तो अध्यात्म-बल मिलता है। हमें तीनों प्रकार का बल चाहिए। इसलिए भगवान ने कहा-‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।’ सत्संग में जो कथा-प्रसंग हो, उसे प्रेम से सुनिये। यह नहीं कि तन तो रहे सत्संग में और मन रहे बाजार-दूकान या घर-परिवार में। मन को सत्संग में रखिए और ठीक से सुनिये। अगर सत्संग में जाएँगे, तो किसकी महिमा सुनेंगे? ‘पतिव्रता नारी जहाँ जाएगी, पति के गुण गाएगी’, उसी तरह से ‘भक्त जहाँ जाएँगे, भगवान के गुण को गाएँगे।’ भगवान के गुणों को सुनेंगे, तो उनसे मिलने की इच्छा होगी। तब क्या करें? तो भक्ति की तीसरी विधि है-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
मान-रहित होकर गुरु के चरण-कमल की सेवा करेंगे। गुरु-सेवा में एकनिष्ठ होकर रहना चाहिए। जो अपने एक गुरु पर आश्रित होकर नहीं रहते, उनकी आज्ञा नहीं मानते और उनपर दोषारोपण करते हैं, उनके लिए कहा गया है-
“ गुरु आज्ञा माने नहीं, गुरुहि लगावै दोष ।
गुरु निंदक जग में दुखी, कभी न पावै मोष ।।”
साधु हो या गृहस्थ, ऐसा व्यक्ति कभी मोक्ष नहीं पा सकता। जो व्यक्ति गुरु से मान- सम्मान चाहते हैं, उन्हें संत कबीर साहब ने चेतावनी देते हुए कहा है-
“ अहं अग्नि हृदय जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको यम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
हमलोगों को जब कोई भोजन के लिए निमंत्रण देता है, तो सीधे उनके घर चले जाते हैं, रास्ते में कहीं रुकते नहीं। उसी तरह यमराज उसको निमंत्रण देते हैं कि कहीं रुकना नहीं, सीधे मेरे घर पहुँच जाना। अब यमराज के यहाँ जाएँगे, तो वे क्या देंगे, यह तो यमराज ही जानें।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने परम भक्तिन शबरीजी को नवधा भक्ति बतलाकर यह सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर-भक्ति के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे नर वा नारी हों। नारियों में भी जो पतिव्रता नारी होती है, एक पति का सेवन करती है और उसमें एकनिष्ठ होकर रहती है, उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह नारी अबला नहीं रहती, सबला हो जाती है। वह इस तरह सबला होती है कि भगवान को भी उसका शाप स्वीकार करना पड़ता है।
महाभारत के युद्ध में जब सौ कौरवों का संहार हो गया, तो वृद्ध धृतराष्ट्र और उनकी पत्नी गांधारी के दुःखों की सीमा न रही। एक-दो को कौन कहे? जिनके घरों में सौ-सौ विधवाएँ रो रही हों, उसके सास-ससुर की क्या हालत होगी, यह सोचने की बात है। कितना भी कोई समझाते, उनका विलाप बंद नहीं हो रहा था। अंत में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गये और उन्हें समझाने लगे कि जो होने का था, हो गया। मैंने मना भी किया था कि युद्ध मत करो; लेकिन आपके पुत्रें ने माना नहीं। हम क्या करें?
गान्धारी ने कहा, ‘कृष्ण! तुम मेरे पुत्रें को समझाने के लिए नहीं आए थे, तुम तो फर्ज अदा करने के लिए आए थे। तुम्हारे जैसे महापुरुष हमारे पुत्रें को समझावे और वे नहीं समझें, ऐसा हो नहीं सकता। कृष्ण! सुनो, अगर मैं वास्तव में पतिव्रता नारी हूँ, तो मैं तुमको शाप देती हूँ कि हमारे वंश का संहार अठारह दिनों में करवाया है, पर तुम्हारे वंश का संहार एक ही दिन में होगा।’ और वही हुआ। यदुवंशियों का संहार एक ही दिन में हो गया। इसी प्रकार जो पुरुष एक पत्नीव्रत धारण करते हैं और समयानुकूल ही समागम करते हैं, वे भी ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचारी दो तरह के होते हैं-एक अखंड ब्रह्मचारी और दूसरे खंड ब्रह्मचारी। जो मात्र संतानोत्पत्ति-निमित्त संग करते हैं, वे खंड ब्रह्मचारी हैं और जिनका शुक्रपात किसी कारण से हुआ ही नहीं, वे अखंड ब्रह्मचारी होते हैं। लेकिन अखंड ब्रह्मचारी बहुत कम होते हैं। जो अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले होते हैं, उनमें बहुत शक्ति आ जाती है। भीष्म अखंड ब्रह्मचारी थे। महाभारत युद्ध में उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि आज मैं भगवान श्रीकृष्ण से अस्त्र ग्रहण करवाऊँगा। जबकि भगवान ने प्रतिज्ञा की थी कि महाभारत युद्ध में अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं करूँगा। भीष्म के ब्रह्मचर्य की महिमा कहिए या उनका पराक्रम, भगवान श्रीकृष्ण को झुकना पड़ा। अर्जुन के रथ से कूदकर उन्होंने भीष्म को मारने के लिए रथ का पहिया उठा लिया। भीष्म ने कहा, ‘बस प्रभो! आपने अपनी प्रतिज्ञा को भूलकर मेरी प्रतिज्ञा की रक्षा की। आप भक्तवत्सल हैं। मैं आपके सामने हूँ, मेरा वध कर दीजिए।’ धनुष-वाण सब छोड़कर भीष्म भगवान के श्रीचरणों पर गिर पड़े। यह अखंड ब्रह्मचर्य की महिमा है।
“ पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक ।
मन मैली व्यभिचारिणी, ताके खसम अनेक ।।”
एक पति से प्रेम करनेवाली पतिव्रता नारी को अपने पति से प्रेम मिलता है। यह सच्छास्त्र सम्मत उचित बात है; किन्तु अनेक से प्रेम करनेवाली नारी को अनेक से प्रेम मिलता है, यह शास्त्र-असम्मत और अनुचित बात है। ऐसी नारी पतिव्रता नहीं है। उसी तरह जो अपने एक संत सद्गुरु के प्रति समर्पित है, वह श्रेष्ठ भक्त है। किन्तु यदि किसी ने कच्चे गुरु को धारण कर लिया है, तो उसे तुरंत छोड़ देना चाहिए। संत कबीरसाहब ने कहा है-
“ झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।”
गुरु से हमारा संबंध ज्ञान का है, पवित्रता का है। जब गुरु में ज्ञान ही नहीं है, पवित्रता ही नहीं है, तो वह कैसा गुरु? ऐसे गुरु को छोड़कर सच्चे गुरु की शरण जाने में ही भलाई है।
“ साँचे गुरु के पच्छ में, मन को दे ठहराय ।
चंचल ते निःचल भया, नहिं आवै नहिं जाय ।।”
-संत कबीर
सच्चे गुरु को छोड़कर जैसे-तैसे के पास जाते हो और वे तुम्हारी हाँ-में-हाँ मिलाते हैं, इससे तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। जो कथा-कीर्तन छोड़कर दुनियादारी की बात करते हैं, ऐसे गुरु के पास मत जाओ।
“ कथा कीर्तन छोड़ कै, करै जो आन उपाव ।
कह कबीर ता साध के, पास कबहुँ मत जाव ।।
कथा कीरतन करन को, जाकी निसदिन रीति ।
कह कबीर ता दास से, निश्चय कीजै प्रीति ।।”
सच्चे गुरु तुम्हारे हित की बात कहेंगे, करेंगे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ सचिव वैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइहिं वेगहिं नास ।।”
गुरु करने के पहले उन्हें जान लो। कच्चा गुरु हो तो उसे छोड़ो और सच्चा गुरु हो तो पकड़ो। मान मिले या अपमान, गुरु की निष्ठापूर्वक सेवा करो। उन्हें ईश्वर का रूप समझकर उनके चरणों में अपने को समर्पित कर दो।
“ जौं गुरु झिड़कैं लख बार, तो मुख नहिं मोड़िए ।
गुरु से नेह लगाय, सबन सों तोड़िए ।।
जो गुरु रूठे होयँ, तो तुरत मनाइए ।
होइए दीन अधीन, चूक बकसाइए ।।”
गुरु की निष्कपट सेवा करो, यह तीसरी भक्ति है। चौथी भक्ति है-स्तुति-प्रार्थना। कपट छोड़कर ईश्वर का गुणगान करो। गुरु की शरण जाओ, उनसे ज्ञान सीखो, स्तुति करो, प्रार्थना करो और उपासना करो। स्थूल उपासना में जप है। इसलिए भगवान श्रीराम ने कहा-
“ मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।”
एकाग्रतापूर्वक मंत्र-जप करो। फिर-
“ छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धरमा ।।”
छठी भक्ति है-दमशीलता की साधना। इन्द्रियनिग्रह का स्वभाववाला बनना। इसके लिए दृष्टि साधन की क्रिया अत्यन्त अपेक्षित है। दृष्टि साधन करने से इन्द्रियों का दमन होता है। सज्जनों का धर्म अपनाओ। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा तथा व्यभिचार; इन पंच पापों को छोड़ो। ईश्वर में विश्वास करो। ईश्वर अपने अंदर मिलेंगे, दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो। गुरु-सेवा करो और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। दूसरे को ठगकर के पैसा इकट्ठा मत करो।
“ बात बनाई जग ठगा, मन परबोधा नाहिं ।
कह कबीर मने ले गया, लख चौरासी माहिं ।।”
यह कैसी बुद्धिमत्ता है कि जो अनमोल शरीर मिला था, भगवद्भजन के लिए उसको पद, प्रतिष्ठा और पैसे बटोरने में लगा दिया। संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ भगसागर में आयकै कुछ कियो न नेका रे ।
यह जियरा अनमोल है, कौड़ी को फेंका रे ।।”
अपने अमूल्य जीवन को कौड़ी के बदले में मत फेंको।
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।”
जहाँ शम होता है, वहाँ पर ‘सम’ रहता है। ‘शम’ का अर्थ है मनोनिग्रह और ‘सम’ का समता। अर्थात् मनोनिग्रह करने से समता आएगी। चर-अचर सबमें एक ब्रह्म के दर्शन होंगे। पूर्ण मनोनिग्रह के लिए दृष्टियोग के बाद नादानुसंधान की क्रिया करो। नाद साधना से सारशब्द की पहचान होगी, जो ब्रह्म से मिलाता है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
‘सारशब्द ही नाह मिलावै और नहीं कोई ।’
वह सारशब्द परमात्मा में जाकर मिला देगा। जब जीव-पीव का मिलन हो गया, तब और क्या चाहिए? आठवीं और नौवीं भक्ति तो परिणामस्वरूप स्वतः हो जाता है।
“ आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।।”
सच्चे भक्त अपने परिश्रम की कमाई में संतुष्ट रहते हैं। वे स्वप्न में भी दूसरों के दोषों को नहीं देखते।
मक्खी दूसरों के घाव पर या सड़ी-गली चीजों पर भिन-भिनाती है, उसी तरह दुष्ट जन दूसरों के सड़े-गले कर्मों पर भिन-भिनाते हैं यानी निंदा करते हैं। संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ मत देख पराया अवगुण ।
मक्खी सम मत कर भिनभिन ।।”
मक्खी की तरह भिनभिनाओ मत। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ न परेसं विलोमानि, न परेसं कताकतं ।
अत्तानोव अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ।।”
न तो दूसरे के विरोधी (वचन) पर ध्यान दें, न दूसरों के कृत्याकृत्य को देखे, केवल अपने ही कृत्याकृत्य का अवलोकन करें।
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हिय हरष न दीना ।।”
नवमी भक्ति है-सबसे सरल और छलहीन होकर रहना एवं एक ईश्वर पर भरोसा रखना। एक लघु कथा कहता हूँ-
एक राजा था। वह शिकार खेलने का बहुत शौकीन था। वह जब भी शिकार खेलने जाता तो अपने मंत्री को साथ में जरूर ले जाता। एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए गया, तो वहाँ एक शिकार पर प्रहार करते समय हथियार से राजा की अंगुली कट गयी। राजा ने कराहते हुए कहा, ‘मंत्रीजी! देखिए, हमारी अंगुली कट गयी।’ मंत्री ने कहा, ‘राजन्! भगवान जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं।’ राजा के मन में बहुत दुःख और क्रोध हुआ। वह सोचने लगा कि हमारी अंगुली कट गयी, दर्द हो रहा है और यह मंत्री कहता है, ‘भगवान जो करते हैं, अच्छा करते हैं।’ गुस्से में राजा ने मंत्री से कह दिया-‘जाओ, अपने घर जाओ। मुझे ऐसे मंत्री की आवश्यकता नहीं है।’ मंत्री अपने घर चला गया। राजा के घाव की मरहमपट्टी हुई, कुछ दिनों के बाद वह ठीक हो गया। शिकार का शौकीन तो था ही, फिर शिकार खेलने गया। उस दिन घोड़ा दौड़ते हुए घनघोर जंगल में पहुँच गया। वहाँ डकैतों का अड्डा था। उन लोगों ने राजा को घेर लिया और वे आपस में कहने लगे कि देखो, काली माँ की महिमा, रात में हमलोग डकैती करने के लिए गये थे, तो मन में मनौती थी कि अगर माल हाथ लग जाएगा, तो हम काली माँ के सामने नर का बलिदान देंगे। देखो, कितना सुन्दर नर आ गया, कहीं खोजने की भी आवश्यकता नहीं हुई।
राजा के जितने वस्त्र थे, डकैतों ने उनके शरीर से उतार दिए और नहला-धुलाकर, माला पहनाकर माँ काली के सामने बलिदान के लिए ले गए। एक डकैत राजा की अंगुली देखकर बोल उठा, ‘अरे! इसका तो पहले से अंग-भंग है, इसको माता के सामने कैसे चढ़ाओगे! इसे छोड़ दो, मत काटो।’ राजा की अंगुली देखकर डकैतों ने उसे छोड़ दिया। राजा ने कपड़ा पहना और वह घोड़े पर सवार हो जान लेकर भागा। अपने घर पहुँचा और सोचने लगा कि हमारा मंत्री बहुत अच्छा था। उसने ठीक ही कहा था कि भगवान जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं। हमारी अंगुली नहीं कटी होती, तो आज जान चली जाती। उसे बुला लेना चाहिए। मंत्री को बुला लिया गया। राजा ने उसे सब घटना कह सुनायी। मंत्री ने कहा, ‘राजन्! मैंने तो पहले ही कहा था कि भगवान जो करते हैं, अच्छा करते हैं। पर, आपको मेरी बात बुरी लगी।’ राजा ने कहा, ‘अच्छा ठीक है; लेकिन यह समझो कि तुम जो एक महीना घर पर रहे, इस एक महीने का पैसा तो तुमको नहीं मिला। तुम्हारे लिए भगवान ने क्या अच्छा किया?’ मंत्री ने कहा, ‘राजन्! आप जब शिकार खेलने जाते थे, तो मुझको साथ में ले जाते थे। आपकी अंगुली कटी थी, इसलिए आप बच गए; लेकिन मैं अगर आपके साथ होता, तब तो हमारा गला कट ही जाता। एक महीन का पैसा ही नहीं मिला, जान है तो जहान है। पैसे तो बाद में कमा लूँगा। राजा ने सोचा, ‘मंत्री बहुत संतोषी है। उसने एक महीने का पैसा दे दिया। अब मंत्री ने कहा, ‘देखिये राजन्! प्रभु की महिमा। काम तो किया नहीं, पर दाम पूरा मिल गया।’ मंत्री की बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर उसे ढेर-सा इनाम दिया।
इसलिए संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर पर विश्वास करो और उसे अपने अंदर खोजने का प्रयास करो। ईश्वर हमारे लिए सदा शुभ ही करते हैं, अशुभ कभी नहीं करते। अतएव अपनी अनुकूल या प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थिति को प्रभु का प्रसाद जानकर प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 20-03-2005 को अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महाधिवेशन, बक्सरा, गोड्डा (झारखंड) में अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2005 ई0)

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सम्माननीय मुनिजी, धर्मप्रेमी विद्वज्जनों, माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात है कि यहाँ जैन मत का सत्संग हुआ करता है और प्रेक्षा ध्यान की क्रिया बतलायी जाती है। जैन मत कोई नया मत नहीं है। ढाई हजार वर्ष से कुछ अधिक हुए, जब भगवान महावीर का अवतरण हुआ था। ये जैन मत के चौबीसवें तीर्थंकर थे। इस तरह यह परम्परा बहुत प्राचीन है। भगवान महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक थे। जैसे सिक्ख धर्म में दस गुरु हुए और सभी पहुँचे हुए थे, उसी तरह जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर सिद्ध और पहुँचे हुए थे। कोई कम या कोई विशेष नहीं थे, पर भगवान महावीर की विशेष ख्याति हुई। ये वास्तव में वीर, अतिवीर और महावीर थे।
‘जैन’ शब्द ‘जिन’ से बना है, जिसका अर्थ होता है-विजेता। प्रश्न होता है कि जो संत होते हैं, उनके कौन शत्रु हैं, जिनसे युद्ध कर वे विजय प्राप्त करते हैं? उनको किनसे युद्ध करना पड़ता है। उत्तर में निवेदन है-उन्हें बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि आंतरिक शत्रु-काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष आदि से युद्ध करना पड़ता है। जितने संत हुए हें, उन सबको आंतरिक शत्रुओं से युद्ध करना पड़ा है और सभी विजेता हुए हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सूर संग्राम को देखि भागै नहीं,
देखि भागै सोई सूर नाहीं ।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना,
मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं ।।
सील औ साँच संतोष साही भये,
नाम समसेर तहँ खूब बाजै ।
कहत कबीर कोइ जूझिहैं सूरमा,
कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै ।।”
जो वीर होते हैं, वे मैदान से भागते नहीं शत्रु को जीतते हैं। हमारा मित्र या शत्रु बाहर नहीं है, बल्कि हमारे अंदर है और वह है-हमारा मन। जो मन और इन्द्रियों को जीतते हैं, वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं, उनको जैन कहा जाता है। भगवान महावीर जितेन्द्रिय थे। इसलिए उन्हें तीर्थंकर कहा गया। वास्तव में तीर्थंकर शब्द का अर्थ होता है-‘तीर्थं करोति इति तीर्थंकरः।’ जो तीर्थ करता है, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थ का अर्थ यहाँ पर काशी, प्रयाग, बदरीनाथ, केदारनाथ नहीं है। तीर्ण शब्द से तीर्थ हुआ है, जो संसार-सागर से उत्तीर्ण हो गए हैं और अब दूसरों को उत्तीर्ण कर रहे हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। भगवान महावीर ने किस तरह मन पर विजय प्राप्त किया और वे किस तरह संसार से उत्तीर्ण हुए।
अब आप सोचेंगे, विचारेंगे, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मन प्रेरक है, वह इन्द्रियों को विषय ग्रहण के लिए प्रेरित करता है, तब इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं। शास्त्र में आया है-‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ अर्थात् इन्द्रियों का नाथ मन है। हमारी आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार; ये चार अंतःकरण की इन्द्रियाँ हैं। इन चारो में मन बड़ा बलिष्ठ है और बाहरी दसो इन्द्रियाँ का स्वामी है। हमारी पंच कर्मेन्द्रियों के पंच ज्ञानेन्द्रियों से घनिष्ठ संबंध है।
“ मुख ते श्रवण कहत एक सुनई ।
त्वचा पाणि स्पर्शइ गुणई ।।
रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै ।
गुदा नासिका नेह निवाहै ।।
नैन चरण ते प्रीति रहावै ।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै ।।”
मुँह कर्मेन्द्रिय है और कान ज्ञानेन्द्रिय। मुँह का कान से संबंध है अर्थात् हम कान से जो सुनते हैं, वही मुँह से बोलते हैं। जो बात हमने कभी कान से सुनी नहीं, वह मुँह से बोलेंगे नहीं। जिस भाषा की बोली बच्चा कान से सुनता है, वह मुँह से भी वही भाषा बोलता है। घर में बच्चे राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु आदि सुनते हैं, तो वे मुँह से भी वही बोलते हैं। जिस-जिस भाषा की जानकारी हम कान से करते हैं, उस-उस भाषा की बोली हम मुँह से बोलते हैं। जो कोई कान से सिनेमा के जिस गाने को सुनेगा, वह मुँह से भी वही गाना गाएगा, जो कोई कान से राम-नाम का भजन सुनता है, उसके मुँह से वही भगवन्नाम निकलता है। जो अपने कान से अश्लील बातें नहीं सुनते, उसके मुँह से भी कभी अश्लील बातें नहीं निकलतीं। अच्छी-अच्छी बातें सुनेंगे, तो मुँह से भी अच्छी-अच्छी बातें बोलेंगे। त्वचा अथवा चमड़े से हाथ का संबंध है। त्वचा जितना ठंढा-गर्म सह सकती है, हाथ भी सह सकता है। जो अपनी त्वचा पर काबू कर सकता है, वही अपने हाथों पर काबू रख सकता है। रसना से उपस्थ अर्थात् जननेन्द्रिय का संबंध है। जिनको अपनी जिह्वा पर काबू नहीं है, वे अपनी जननेन्द्रिय का वश में नहीं रख सकते। नासिका ज्ञानेन्द्रिय को वश में नहीं रख सकते। नासिका ज्ञानेन्द्रिय का गुदा कर्मेन्द्रिय से संबंध है। गुदा कर्मेन्द्रिय वायु त्याग करने की। गुदा के द्वारा वायु निकलती है, इसको अपान वायु कहते हैं, वह प्राणवायु है। प्राणवायु ग्रहण नहीं करेंगे, तो अपान वायु निकलेगी नहीं। ज्ञानेन्द्रिय आँख का कर्मेन्द्रिय पैर से संबंध है। जिस रूप में हमारी आँख फँस जाती है, पैर वहाँ पहुँच जाता है; सिनेमा के चित्र पर हमारी आँख गड़ जाती है, तो हमारा पैर सिनेमा-हॉल में पहुँच जाता है। अगर हमारी आँख सत्संग के विज्ञापन पर ठहर जाती है, तो हमार पैर सत्संग-स्थल में पहुँच जाता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ मन पाँचो के वश पड़ा, मन के वश नहिं पाँच ।
अपने अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।”
हम इन विषयों से कैसे छूटेंगे और मन पर विजय किस प्रकार प्राप्त होगी? इसी के लिए भगवान महावीर ने प्रेक्षा ध्यान और अन्यों को इसकी क्रिया बतलायी है। वस्तुतः ‘ईक्ष’ धातु से ‘प्रेक्षा’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है- देखना। ईक्ष में ‘प्र’ उपसर्ग लगाया गया है। इस तरह प्रेक्षा का अर्थ हो गया, गहराई में उतरकर देखना। इसी के संबंध में आचार्य तुलसी ने कहा है-
“ दर्शन-केन्द्र प्रसिद्ध है, हितकर आज्ञाचक्र ।
ज्योतित कण-कण को करे, जो मन रहे अवक्र ।।
प्राण-केन्द्र नासाग्र पर, लगता जिसका ध्यान ।
उसके प्राणों में सदा, भर जाती मुसकान ।।”
प्रत्येक जैन धर्मावलंबियों को नासाग्र और आज्ञाचक्र का सही ज्ञान प्राप्त कर साधना करनी चाहिए।
यहाँ प्रेक्षा ध्यान की महिमा बतलायी गयी है। इसी प्रेक्षा ध्यान को बौद्धधर्म में विपश्यना ध्यान और वेद में सुषुम्ना ध्यान कहा गया है। और सूफी पंथ के लोग सगलेनसीरा कहते हैं।
गहराई में उतरकर देखने का अर्थ है-अपने अंतर में देखना; लेकिन अंतर में कैसे देखेंगे? हम बाहर के दृश्यों को आँख खोलकर देखते हैं। जब हम अंतर में देखना चाहेंगे, तो क्रिया उलटनी होगी अर्थात् आँखें बंदकर देखना होगा। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने कहा है-
‘बाहर के पट बंद करो हो, अंतर पट खोलो भाई ।’
इसी के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने बतलाया है कि शरीर, गर्दन और सिर को सम रखते हुए अचल-स्थिर होकर बैठो और किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासाग्र (आज्ञाचक्र) में ध्यान करो।
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता 6/13
लेकिन ये नासाग्र या आज्ञाचक्र है कहाँ? जबतक हम इसे नहीं जानेंगे, तबतक ध्यान कहाँ लगाएँगे? वस्तुतः प्रेक्षा, विपश्यना, सगले नसीरा, नासाग्र, आज्ञाचक्र, दृष्टियोग आदि। शब्द भिन्न-भिन्न हैं; किन्तु क्रिया अभिन्न है।
जब आँखें बंद करते हैं, तो अंधकार मालूम होता है, उस अंधकार के विस्तृत क्षेत्र में स्थान विशेष पर जब दृष्टि को टिकाया जाता है, तो आज्ञाचक्र में प्रवेश होता है और प्रकाश का दर्शन होता है। इस तरह साधक अंधकार से प्रकाश में और स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में गमन करता है। वहाँ शब्द की अनुभूति होती है। शब्दधार को पकड़कर वह निःशब्द में पहुँचता है। वही परमात्मा का परम धाम है। वहाँ पहुँचकर आत्मा का-परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान होता है और सारे दुःख छूट जाते हैं। जो लोक और परलोक में सुख-शान्ति चाहते हैं, उन्हें योग्य गुरु की शरण में जाकर अंतस्साधना की क्रियाओं को सीखनी चाहिए।
सत्संग के प्रति आपलोगों का प्रेम देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। श्रीकिशनलाल मुनिजी ने मुझे यहाँ आमंत्रित किया, इसीलिए मुझे आपलोगों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं श्रीकिशनलालजी को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए शुभकामना करता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिल्ली प्रवास के क्रम में जैन मुनि श्री किशनलाल जी के छतरपुर (दिल्ली) स्थित आश्रम अन्तर्गत अणुव्रत सभागार में दिनांक 03-08-2005 ई0 को
प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2005 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
भारतीय वैदिक संस्कृति कुछ इस तरह की रही है कि प्रत्येक व्यक्ति के घर में कुछ-न-कुछ धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ आदि हुआ करते हैं। लोग भगवान का नाम लिया करते हैं। जिसमें जिनकी श्रद्धा है, उस भगवान का नाम वे लेते हैं। कोई शैव हैं, कोई शाक्त हैं, कोई सौर हैं, कोई गाणपत्य हैं और कोई वैष्णव हैं, इस तरह विविध उपासक बने हुए हैं। कुछ लोग अपने मन से भगवान का नाम लेते हैं। कुछ लोग गुरु धारण कर भगवान का नाम लेते हैं। जिसको जिस प्रकार बन पड़ता है, भगवान का नाम लेते हैं, यह भी अच्छा ही है, बुरा नहीं है। बंगाल में एक कहावत है-‘ना मामू थाकले काना मामू भालो।’ लेकिन संत सद्गुरु से शिक्षा-दीक्षा लेकर नाम लेने से उत्तम है। एक गंधक पंसारी के यहाँ मिलती है, उस गंधक को खाने से तो समूचे शरीर में घाव निकल आएँगे। दूसरी वैद्यराज की दूकान की गंधक खाएँगे, तो सारे घाव छूट जाएँगे। दोनों तो गंधक ही है, अंतर क्या है? पंसारी की दूकान की गंधक कच्ची है और वैद्यराज की दूकान की गंधक सोधी हुई है। उसी तरह जो संत सद्गुरु से मंत्र लिया जाता है, वह सोधा हुआ मंत्र है। उससे जीवन भी शुद्ध, पवित्र हो जाता है। लेकिन येन-केन प्रकारेण किसी को गुरु धारण कर लेना भी उचित नहीं है। विद्यालयों में प्राइमरी से लेकर एम0ए0, पी-एच0डी0 तक की जो शिक्षा होती है, जितने पढ़नेवाले होते हैं, सब-के-सब विद्यार्थी ही कहलाते हैं; लेकिन आई0ए0, एम0ए0 और पी-एच0डी0 सब विद्यार्थियों की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। उनको पढ़ानेवाले जितने होते हैं, सब अध्यापक कहलाते हैं, मास्टर कहलाते हैं। क्या प्राइमरी में पढ़ानेवाले, हाई स्कूल में पढ़ानेवाले, कॉलेज में पढ़ानेवाले; इन सब अध्यापकों की योग्यता एक-जैसी होती है? नहीं। सबकी योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। उसी तरह गुरु कहलानेवाले बहुत होते हैं; लेकिन संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव ।
सोइ गुरु नित बंदिये, जो शब्द बतावै दाव ।।
कनफूका गुरु हद् का, बेहद का गुरु और ।
बेहद का गुरु जब मिलै, तब लहै ठिकाना ठौर ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ घर महि घर दिखलाइ देइ सो सतगुरु पुरुष सुजान ।
पंच शब्द धुनकार धुन तहँ बाजै शबद निसान ।।”
जो घर-में-घर दिखला देता है, वही सच्चा गुरु है। घर-में-घर क्या दिखला देता है? यह शरीर हमारा घर है, जिसमें हम रह रहे हैं। जिस पक्के के मकान में हम रह रहे हैं, वह हमारा घर नहीं है।
“ कहा मढ़ावै मेड़िया, लंबी भीत उसार ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चार ।।”
हम उस परमात्म-घर के रहनेवाले हैं। यह शरीर-रूपी घर में स्थूल घर है। इसमें सूक्ष्म घर है, इसमें कारण घर है, इसमें महाकारण घर है, इसमें कैवल्य घर है और इसी में परम प्रभु परमात्मा भी निवास करते हैं। इन घरों को जो दिखला दे, वह सच्चा गुरु होता है। स्थूल से सूक्ष्म में कैसे प्रवेश करेंगे, उस घर को कैसे देखेंगे? इसका यत्न संत सद्गुरु बतलाते हैं। यह भेद कोई कठिन नहीं है, सरल है। गुरु गोरखनाथ जी महाराज ने कहा-
“ सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं जुगति बिन सुवा ।
सतगुरु मिलै त उबरै बाबू, नहिं तो परलै हूवा ।।”
सप्त धातु का यह पिंजरा है, इसमें बिना युक्ति का सुग्गा बैठा हुआ है। इसको जो कुछ रटा दिया, वही जपता है। लेकिन किस तरह जपना चाहिए, इसको भी जानना चाहिए। नहीं तो-
“ चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
चार वेद, अठारह पुराण; सब पढ़कर कंठस्थ कर लीजिए, यदि नाम का भेद नहीं जाना, तो ‘सकल समझ महँ धूर’। इस नाम-भेद को कैसे जानेंगे, कौन बतलाएगा?
“ भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जौं विरंचि शिव होय ।।”
चाहे ब्रह्मा, शिव के समान कोई क्यों हो जाए, यदि उनको गुरु नहीं है, तो वह नाम का भेद नहीं जान सकता।
“ श्रवणात्मक वर्णात्मक, ध्वन्यात्मक विधि तीन ।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।।”
शास्त्र में आया है-
“ नादाब्धे परं पारं न जानाति सरस्वती ।
अद्यापि मज्जनभयात् तुम्बं वहति वक्षसि ।।”
नादरूपी समुद्र की सीमा का पार सरस्वती नहीं जानती हैं, इसीलिए आज भी डूबने के भय से हृदय के पास तुम्बे को धारण की हुई हैं। लोग सरस्वती की पूजा करते हैं; लेकिन सरस्वती को भी शब्द-ब्रह्म का ज्ञान नहीं है-‘न जानाति सरस्वती।’ इसका ज्ञान संत-सद्गुरु को है। उन संत सद्गुरु से सद्ज्ञान लीजिए, कीजिए तब जानने में आवेगा।
“ जल परिमाणे माछरी, कुल परिमाणे बुद्धि ।
जाको जैसा गुरु मिला, ताकी तैसी शुद्धि ।।”
जल के परिमाण से मछली होती है। ताल-तैलया में जो मछली होती है, उसको देखिये कितनी छोटी होती है, गंगा की मछली कितनी बड़ी होती है और समुद्र की मछली उससे भी कितनी बड़ी होती है। सब मछली-ही-मछली है और सब जल में ही रहनेवाली है; लेकिन जिस तरह के जल का परिणाम है, उस तरह का उसका शरीर है। उसी तरह का ज्ञान होगा। उसी तरह जिसको जिस तरह के गुरु मिलेंगे, उसी तरह का ज्ञान उसको होगा। सच्चे गुरु मिलेंगे, तो सच्चा ज्ञान मिलेगा और भवसागर पार होंगे, कच्चे गुरु मिलेंगे, तो कच्चा ज्ञान मिलेगा और भवसागर में डूबेंगे।
नाम-जप में-वाचिक जप होता है, उपांशु जप होता है, श्वास जप होता है और मानस जप होता है। वाचिक जप में जितना लाभ है। उससे दस गुणा लाभ उपांशु जप में, सौ गुणा लाभ श्वास जप में और हजार गुणा लाभ मानस जप है। मानस जप को जप का प्राण बतलाया गया है। मानस जप से बढ़कर और दूसरा जप नहीं होता है। हम विद्यालय में जाते हैं, तो पहले मोटे-मोटे अक्षरों को लिखते हैं, फिर महीन अक्षरों को लिखते हैं। जैसे-जैसे क्लास बढ़ता है, शिक्षा बढ़ती जाती है, पर जब आरंभ किया जाता है, तो वर्णमाला से ही किया जाता है। उसी तरह मोटी उपासना से भक्ति प्रारंभ होती है। मोटी उपासना में पहले मानस जप और मानस ध्यान है। मंत्र किसको कहते हैं? जिससे मन का त्रण हो, वह है मंत्र। मंत्र जपने के लिए बैठते तो हैं, लेकिन-
“ माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।”
लेकिन जप तो इस तरह होना चाहिए-
“ तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।”
गुरु-प्रदत्त एक पल मंत्र-जप का जो गुण होगा, जो फायदा होगा, वह बिना जाने कल्प भर मंत्र-जप करते रहने से भी नहीं होगा।
‘गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारणं ।’
जो साधक नाम-जप ठीक-ठीक कर लेता है, उसकी साधना की नींव मजबूत हो जाती है। जप ऐसा होना चाहिए कि जप-जापक के बीच में कुछ नहीं रहे; लेकिन हम जप करने के लिए बैठते हैं, करने लग जाते हैं गप। कभी-कभी ऊँघी लगती है, तो सो भी जाते हैं। साधना में सचेत होकर बैठना चाहिए। मन बराबर तीन प्रकार के गुणों से प्रभावित होता रहता है। जब मन तमोगुणी प्रभाव से प्रभावित होता है, तो जप करते-करते ऊँघने लगते हैं और सो जाते हैं। जब रजोगुण से प्रभावित होता है, तो विविध बातें सोचने लगते हैं, जिससे कोई संबंध नहीं, उससे भी बातें करने लग जाते हैं और समय बर्बाद कर देते हैं। जब मन पर सतोगुणी प्रभाव होता है, तब भजन में मन लगता है। वह सतोगुणी प्रभाव कब आता है? बंगाल के एक संत ने कहा-
“ आर केन मन भ्रमिछ बाहिरे, चलन आपन अन्तरे ।
बाहिरे जार तत्व कर अविरत सेत आज्ञाचक्रे बिहरे ।।
बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला धर धर ताँरे सादरे ।।”
बायीं और दायीं धार में जबतक हमारी वृत्ति रहेगी, तबतक रजोगुणी और तमोगुणी रहेगी, तबतक हमारा मन रजोगुणी और तमोगुणी रहेगा। मध्य की सतोगुणी नाड़ी है, वही सुषुम्ना नाड़ी है। इसलिए ‘धरऽ धरऽ तारे सादरे।’ आदर के साथ उस सुषुम्ना नाड़ी को पकड़िए। जिन्होंने इसकी साधना की है, वे ही बतला सकते हैं कि सुषुम्ना नाड़ी कैसी है, कहाँ है और उसे कैसे पकड़ेंगे, इसके लिए क्या करना होगा? पहले एकाग्रतापूर्वक मानस जप करना चाहिए। जप एक प्रकार का आवाहन है। हम किसी को पुकारते हैं, बुलाते हैं, तो उनका रूप हमारे सामने आता है। जैसे हमारे तीन बच्चे हैं। तीनों बच्चों में हम जिस बच्चे का नाम लेकर पुकारेंगे, उसी बच्चे का रूप हमारे सामने आएगा। अगर हम कटहल-कटहल कहेंगे, तो आम का रूप हमारे सामने नहीं आएगा। जब हम अमरूद-अमरूद कहेंगे, तो अनार का रूप नहीं आएगा। जिस चीज का नाम लेंगे, उसका रूप हमारे सामने आएगा। उसी तरह से इष्ट का हम मंत्र जप कर रहे हैं, उस जप का प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि हमारे इष्ट का रूप सामने आ जाए। जब इष्ट-रूप आ जाता है, तब इष्ट-रूप का ध्यान किया जाता है। यह स्थूल ध्यान है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ अंतरि गुरु आराधणा जिह्वा जपि गुर नाउ ।।
नेत्री सतिगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।
सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाइअै ठाउ ।।
कहु नानक किरपा करे जिसनो एह वथु देइ ।।
जग महि ऊतम काढ़ीअहि बिरले केई केइ ।।”
स्वामी श्रीशिवनारायणजी महाराज कहते हैं-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सुरति बीच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
ध्यान करते-करते जब सुषुम्ना में दृष्टि सिमट जाएगी, तो अंतःप्रकाश मिल जाएगा।
रावण लंका में रहता था। उसका बेटा अहिरावण पाताल में रहता था। जब रावण के परिवार के बहुत लोग मर गये, तो रावण को बड़ा दुःख हुआ। रावण ने मंत्र के द्वारा पुत्र अहिरावण का आवाहन किया। रामचरितमानस में लिखा है-
“ मंत्रकर्षण जप दस भाला ।
अहिरावण मन डोल पताला ।।”
पाताल में उसका मन डोल गया कि हमारे पिताजी पुकार रहे हैं। रावण कैसा मंत्र जानता था कि मंत्र जपने से अहिरावण का मन डोल गया। मंत्र ऐसा जपिए कि आपके इष्टरूप सामने आ जाए। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दर्शन उनके उर माहिं करै बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
तिनका मानस ध्यान ठीक-ठीक हो जाता है, तो समझना चाहिए कि अब उसकी नाव किनारे लग गयी, बस उसपर चढ़कर चलना है। वास्तव में मंत्र-जप सच्चा तप के समान है।
महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
“ गुरु गुरु गुरु कल्प विटप, गुरु गुरु गुरु मन मारनं ।
गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारनं ।।”
मानस ध्यान ठीक-ठीक होने से जो कामना होती है, वह पूरी हो जाती है। गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-
‘गुरु की मूरति हृदय वसावै, जो ईछै सोई फल पावै ।’
साधक के मन में जो इच्छा होती है, मानस ध्यान करने से उसकी पूर्ति हो जाती है; लेकिन सही- सही मानस ध्यान होना चाहिए। एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति का ध्यान करते-करते धनुष विद्या में इतना कुशल हो गया कि अर्जुन से भी आगे हो गया।
एकलव्य की यही इच्छा थी कि धनुष-विद्या में कुशल हो जाएँ, तो कुशल हो गए। आप साधना में सफलता चाहते हैं, प्रभु से मिलना चाहते हैं, तो आपका मन शुद्ध होना चाहिए। एकाग्र मन से मानस जप, मानस ध्यान होना चाहिए। मानस ध्यान ठीक-ठीक कैसे होगा?
कोलियरी में जाकर देखिए, वहाँ मजदूर लोग कोयले की खान से कोयला निकालते हैं। माथे पर कोयला लेकर ट्रक पर लादते हैं। वह मजदूर कोयले की ढेर पर बैठ भी जाता है। उसी कोलियरी के ऑफिस में जो बाबू लोग काम करते हैं, उनको कहिये कि कोयले की ढेर पर बैठिये, तो क्या वे क्या कोयले की ढेर पर बैठेंगे? उनकी तो साफ-सुथरी कुर्सी होनी चाहिए, तब वे बैठेंगे। उसी तरह जिनको हम बुलाना चाहते हैं, उनके अनुरूप साफ-सुथरा हृदय होना चाहिए, तब वे बैठेंगे। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दिल का हुजरा साफकर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसके बिठाने के लिए ।।
एक दिल लाखों तमन्ना, उस पै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बिठाने के लिए ।।”
संत जन कहते हैं-उस प्रभु को कहाँ बैठाओगे? एक बोरा तुम्हारे पास है, उसमें चावल भरा हुआ है और तुमको चीनी भी रखनी है, तो क्या करोगे? चीनी रखनी है, तो चावल का बोरा खाली करो। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा को हृदय में बैठाने के लिए षट् विकार-रूपी चावल को खाली करो, तब प्रभु परमात्मा बैठेंगे।
यह 95वाँ अधिवेशन बतलाता है? 95वें में ‘नौ’ है और ‘पाँच’ है। यह नौ द्वारों से युक्त तुम्हारा पाँच तत्त्वों का शरीर है, जो एक-न-एक दिन छूटेगा। 95वाँ वार्षिक अधिवेशन भी आज समाप्त होनेवाला है। नौ द्वारों में रहते हुए तुम पंच विषयों का भोग करते हो और दुःख उठाते हो। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ नवमी नव द्वार पुर वसि न आप भल कीन ।
ते नर योनि अनेक भ्रमत दारुन दुःख दीन ।।”
जबतक तुम नौ दरवाजों में रहोगे, तबतक तुम दुःख में रहोगे।
“ नौ दर ठाके धावतु रहाए
दशवें निज घरि वासा पाए ।
उथै अनहद शब्द बजहिं दिन राती
गुरुमति शबदि सुनावणिआ।”
-गुरु नानकदेव
यह 95वाँ अधिवेशन बतलाता है कि नौ द्वारों को छोड़ो, दसवें घर में प्रवेश करो। पंच विषयों को छोड़ो, निर्विषय की ओर जाओ। आगरा में एक संत हुए, राधास्वामी साहब, उन्होंने कहा-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अंतर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
‘इस नगरी में’ मतलब किस नगरी में? कलकत्ता नगरी में? नहीं-नहीं, शरीररूपी नगर में हम हैं। इस शरीर-रूपी नगर में हम कहाँ हैं? कहीं बाहर में लटके हुए हैं? नहीं, अपने भीतर में हैं। आँखें बंदकर भीतर देखते हैं, तो अंधकार मालूम होता है। कुछ भी मालूम नहीं पड़ता है। इसी नगरी में तो तुम हो। परिणामतः ‘भूल भरम हर बार’। एक-दो बार नहीं, हर बार। मन में आता रहता है कि अमुक काम नहीं करना चाहिए; लेकिन मौका आने पर कर लेते हैं। पीछे सोचते हैं, नहीं करना चाहिए। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि हम नौ द्वारों में रह रहे हैं। नौ द्वारों में रहने से ऐसा होगा ही कितनी बार ऐसी भूलें होंगी, इसका ठिकाना नहीं। इसलिए अंतःप्रकाश की खोज करो। वह प्रकाश कैसे मिलेगा, कहाँ मिलेगा? ‘छोड़ चलो नौ द्वार’-जब नवों द्वारों को छोड़कर दसवें द्वार में प्रवेश करोगे, तब प्रकाश मिलेगा। इसके लिए क्या करना होगा? मन का सिमटाव करना होगा। इसी के लिए सूक्ष्म ध्यान है। पहले मानस जप के द्वारा मन का कुछ सिमटाव होगा, फिर मानस ध्यान के द्वारा उससे अधिक सिमटाव होगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-पहले हमारे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो। उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो।
जिस समय हम किसी मूर्ति का ध्यान करते हैं, तो खड़ी मूर्ति साढ़े तीन हाथ की होती है। बैठी हुई मूर्ति का ध्यान करने से आधा हो जाता है। फिर जब चेहरे का ध्यान करते हैं, तो एक बित्ता पर आ जाते हैं और जब शून्य-ध्यान करते हैं, तो एक बित्ता भी छूट जाता है। शून्य-ध्यान क्या है?
“ शून्य ध्यान सबके मन माना ।
तुम बैठो आतम अस्थाना ।।”
जो शून्य ध्यान करता है, उसका मन मान जाता है। अभी हमलोगों का मन पाजी बना हुआ है, जब दसवें द्वार में प्रवेश करेगा, तब वह राजी हो जाएगा। मीराबाई से किसी ने पूछा कि बाई! हमलोग ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो मन कहाँ-कहाँ भागता है, ठिकाना नहीं। तुमने इस मन को कैसे वश में किया? तो मीराबाई ने उत्तर दिया-‘मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी।’ अर्थात् जब मैंने सुरत से आसमान की यात्र की, तब मेरा मन मान गया। क्या मीराबाई आसमान में हवाई जहाज पर चलती थी? अरे! वह बाह्य आकाश में नहीं, अंतराकाश में चलती थी। उसी शून्य ध्यान से सबका मन मानता है। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।।”
अर्थ-ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष-लाभ होते हैं, इसमें संशय नहीं है।
मन को शून्य कर लो। मन में कुछ भी नहीं रहे। बाह्य आकाश को छोड़ दो, अंतराकाश में प्रवेश करो। कैसे प्रवेश करोगे? पहले मानस जप करो, इसके बाद मानस ध्यान करो, तब दृष्टियोग की क्रिया करो। दृष्टियोग की क्रिया में दृष्टि का प्रयोग होता है। गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।”
बाल बढ़ा लिया, बाल कटा लिया, क्या इससे योगी हो गया? कपड़ा रंगा लिया या सादे में है, इससे योगी हो गया? घरवार, रोजगार, परिवार छोड़ दिया, इससे योगी नहीं हो गया। शरीर पर भस्म मल लिया, इससे योगी हो गया, ऐसी बात नहीं है। जो योग करते हैं अर्थात् जो दृष्टिधारों को मिलाकर एक करते हैं, वे योगी हैं।
दोनों दृष्टिधारों को कहाँ मिलाना है, कैसे मिलाना है, इसकी युक्ति संत-सद्गुरु बतलाते हैं। हम पढ़ते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ, ब, स’ एक त्रिभुज है। हमारे सामने त्रिभुज रहता है, फिर भी हम पढ़ते हैं कि कल्पना किया किया। जब त्रिभुज समाने हेै, तब कल्पना क्यों? इसलिए कि त्रिभुज जो बना है वह रेखाओं से बना है और रेखा विन्दुओं से बनी है, कल्पित विन्दु से बनी है। इसलिए कहते हैं कि कल्पना किया। हमलोग जहाँ कलम रखते हैं, जहाँ उसकी की नोक पड़ती है, वहाँ एक छोटा-सा चिह्न होता है, उसी को विन्दु कहते हैं; लेकिन वह वास्तविक विन्दु नहीं है। विन्दु की परिभाषा है-जिसमें स्थान है, परिमाण नहीं। जितनी नोक है, उसका परिमाण हो ही गया। रेखा उसको कहते हैं, जिसकी लंबाई हो, चौड़ाई नहीं हो। कोई ऐसी रेखा दिखला दे, जो लंबी हो, चौड़ी नहीं हो, संभव नहीं है। एक दृष्टि की ही धार ऐसी है, जिसमें लंबाई है, चौड़ाई नहीं। जैसे हम आपको देख लेते हैं, आप हमको देख लेते हैं, इसमें दृष्टिधारें टकराती नहीं। यहाँ से हम सूर्य को देख लेते हैं, तारे को देख लेते हैं, दृष्टि की धारें इतनी लंबी हैं। चौड़ाई इसमें कहाँ है? दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है, वह विन्दु कैसा होगा? कलम में जैसी स्याही रहती है, कागज पर रखने से वैसा ही रंग उत्पन्न होता है। उसी तरह दृष्टि की युगल धारें जहाँ एकत्र होगी, वहाँ पर जिस तरह की दृष्टि है, उस तरह का विन्दु उत्पन्न होगा। हमारी दृष्टि की धारें प्रकाशमयी हैं, इसलिए वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह प्रकाशमय विन्दु होगा।
‘तेजो विन्दुः परम ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।’
इसलिए प्रकाशमय विन्दु को पकड़िए। जिसको उस विन्दु से भेंट है, वही एक दिन भवसिंधु पार करेगा। जिसको उस विन्दु से भेंट नहीं है, वह कभी भी भव-सिन्धु पार नहीं कर सकेगा।
आजकल लोग आँख को दबाते हैं, भक् से रोशनी निकलती है, वही दिखलाते हैं और कहते हैं-यह ब्रह्मज्योति है। कान को बंद कराते हैं और आवाज सुनाते हैं, कहते हैं-ब्रह्म नाद है; लेकिन वह न तो ब्रह्मज्योति है और न ब्रह्मनाद है, बल्कि वह भ्रमज्योति और भ्रमनाद है।
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से चीरि तेजस विंदु रे ।
सुनो अन्तर नाद ही लखो सूर्य तारे इन्दु रे ।।”
जो अपने अंदर में दृष्टि स्थिर कर विन्दु को पकड़ पाता है, वह ब्रह्मज्योति के विविध प्रकाश को देखता है, उसे अंतर्नाद की अनुभूति भी होती है। जहाँ हम कलम रखते हैं, वहाँ आवाज होती है। हमारी श्रवणशक्ति उतनी तेज नहीं है कि उस शब्द को सुन सकें; क्योंकि वैज्ञानिकों ने बतलाया है-प्रति सेकेंड 30 फ्रीक्वेंसी से लेकर 30 हजार फ्रीक्वेंसी तक की आवाज यह कान सुन सकता है, इससे नीचे और ऊपर की आवाज नहीं। कोई-कोई 40 हजार फ्रीक्वेंसी तक की आवाज भी सुनते हैं, इससे अधिक नहीं। आप निगेटिव और पोजिटिव बिजली की दोनों धारों को मिलाइए एम्पलीफायर में दोनों धार जहाँ मिलती है, वहाँ प्रकाश होता है। जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ वाईब्रेशन होने लगता है, शब्द होने लगता है। उसी तरह जहाँ दृष्टि की दोनों धारें मिलेंगी, वहाँ पर आपको नादानुभूति होगी। एक कामिल फकीर का कलाम है-
“ सुन लामका पै पहुँच के तेरी पुकार है ।
है आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।।
क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
जो दृष्टियोग की साधना करता है, उसको अंतर में नाद मिलता है, वह नाद कहाँ ले जाता है? ‘ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए’ वह नाद परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँचा देता है।
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
जो अपने अंदर दृष्टि को एक कर पाता है, वह शहरग (सुषुम्ना) को पाता है, उसे अंतर्नाद मिलता है। स्थूल-सूक्ष्म की जहाँ सन्धि है, वह पहली नौबत है। शब्द में यह गुण होता है कि ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता है। परम प्रभु परमात्मा ने जो सृष्टि का सर्जन किया है, उससे शब्द हुआ। जो शब्द धार आती है, उसे प्रथम केन्द्र पर पकड़ा जाता है। वह शब्द अपनी तरफ खींचता है। वह शब्द कहाँ से आया है? दूसरे केन्द्र से आया है। वह खींच करके दूसरे केन्द्र पर पहुँचा देता है। जो दूसरे केन्द्र पर पहुँच जाता है, तो वह वहाँ का शब्द सुनता है, जो तीसरे केन्द्र से आया है। तीसरे केन्द्र पर पहुँच जाने से वह चौथे केन्द्र के शब्द को सुनता है और खिंचकर पाँचवें केन्द्र पर पहुँच जाता है। पाँचवें केन्द्र का जो शब्द है, वह परम प्रभु परमात्मा से मिला देता है। यहाँ पर जीव और पीव मिल करके एक हो जाता है, इससे आवागमन का चक्र छूट जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ जल तरंग जिउ जलहि समाइआ,
तिउ जोती संग जोति मिलाइआ ।
कहु नानक भ्रम कटै किवाड़ा,
बहुरि न होइअै जउला जीउ ।।”
और मुण्डकोपनिषद् में आया है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
अर्थात् जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। उसको अलग नहीं कर सकते। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सोइ जानहिं जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।”
जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्मविद् ही नहीं, बल्कि ब्रह्म हो जाता है। अंतर्नाद परम प्रभु परमात्मा से मिला देता है, फिर उसका आवागमन नहीं होता है। मानव सदा के लिए दैहिक, दैविक तथा भौतिक; इन त्रितापों से मुक्त हो जाता है। यह साधना का क्रम है-मानस जप कीजिए, मानस ध्यान कीजिए और दृष्टियोग की क्रिया कीजिए, अंतिम साधना नादानुसंधान कीजिए।
“ नाद से नादों में मिलि चलि प्रणव सतध्वनि सार रे ।
एक ओम सतनाम ध्वनि धारि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
जो उस शब्द को पकड़ता है, अंत में वह शब्द ‘निःशब्दं परमं पदम्’ तक पहुँचा देता है।
“ बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
जो निःशब्द में पहुँच जाता है, उसका फिर संसार में आना नहीं होता है, उसके सभी क्लेश निःशेष हो जाते हैं, उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। वह परम सुख, परमानंद का भागी हो जाता है। यह संतमत सरल और सुगम साधना बतलाता है। इसमें घरवार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। जैसे बूँद-बूँद जल देते रहने से घड़ा भर जाता है, उसी तरह घरवार, परिवार, रोजगार में रहते हुए, थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते रहने से एक दिन पूर्णता की प्राप्ति होगी। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 95वाँ महाधिवेशन सोदपुर (कोलकाता) में दिनांक 29-01-2006 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, मार्च 2006 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत-सत्संग का आयोजन है। इसलिए आपलोग इसमें समवेत हुए हैं। संतमत के द्वारा ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। यह भक्ति सदा एकरस रहती है, कभी घटती-बढ़ती नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तुलसी राम सनेह करु, त्याग सकल उपचार ।
जैसे घटे न अंक नौ, नौ के लिखे पहार ।।”
आप कोई भी पहाड़ा लिखिए, सबमें न्यूना- धिक होता रहेगा; लेकिन एक नौ का पहाड़ा है, जो घटने-बढ़ने के लिए नहीं जानता, सम रहता है, एकरस रहता है। जैसे-आप नौ के पहले आठ का पहाड़ा लिखिए-आठ काँ आठ, आठ दूना सोलह। एक के आगे छह। 1+6=7 हो गया। आठ तिया चौबीस, दो के आगे चार। 2+4=6 हो गया। इसी तरह आगे देख सकते हैं। आठ के आगे का पहाड़ा बारह है। बारह हे। अगर इसे लेना चाहें, तो बारह काँ बारह, बारह दूना चौबीस 2+4=6 हो गया। बारह तिया छत्तीस 3+6=9 हो गया। अब नौ का पहाड़ा लीजिए। नौ दूना अठारह 1+8=9। नौ तिया सत्ताईस 2+7=9। नौ चौके छत्तीस 3+6=9। नौ पंचे पैंतालीस 4+5=9। नौ छक्के चौवन 5+4=9। नौ सत्ते तिरेसठ 6+3=9। नौ अठे बहत्तर 7+2=9। नौ नवाँ इक्यासी 8+1=9 और नौ दहाई नब्बे 9+0=9। जैसे नौ का अंक सभी अंकों में बड़ा होता है और सभी अंक इससे छोटे होते हैं, उसी तरह ईश्वर की भक्ति सबसे बड़ी भक्ति है, इसमें घट-बढ़ नहीं होती। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।’
जो स्वल्प मात्र भी योग का अभ्यास करता है, तो इस योग का नाश नहीं होता, विपरीत परिणाम नहीं होता। यदि भक्ति पूरी नहीं हुई और ध्यान करते-करते साधक शरीर छोड़ देता है, तो वह विशाल स्वर्ग सुख भोगता है। संसार में वह किसी पवित्र श्रीमान् के घर जन्म लेता है, पूर्वजन्म के संस्कार से प्रेरित होकर पुनः भक्ति करने लगता है और करते- करते एक दिन उसकी भक्ति पूरी हो जाती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति बीज बिनसै नहीं, जौं जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जनम लै, तऊ सन्त को सन्त ।।
भक्ति बीज पलटे नहीं, आय पड़े जो चोल ।
कंचन जो विष्ठा पड़े, घटे न ताको मोल ।।”
शबरी निम्नकुलोद्भव भीलनी थी; लेकिन भक्ति में इतनी बढ़ी कि बढ़ती-बढ़ती जहाँ तक जाना चाहिए, वहाँ तक चली गयी। अर्थात् उसने परमपद-मोक्ष को प्राप्त कर लिया। भगवान श्रीराम ने अपने श्रीमुख से नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है और अंत में कहा है-‘सकल प्रकार भक्ति दृढ़ तोरे।’ तुम्हारे पास सब प्रकार की दृढ़ भक्ति है। उस भक्ति के परिणामस्वरूप गोस्वामी जी लिखते हैं-
‘तजि योग पावक देह हरिपद, लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।
साधारणतया मृत्यु होने पर लोगों को सामान्य अग्नि में जलाया जाता है; लेकिन शबरी ने अपने शरीर को योगाग्नि में छोड़ा। वह वहाँ गयी, जहाँ से कोई लौटता नहीं है। अर्थात् आवागमन से परे हो गयी। हमारे गुरुदेव ने कहा-
“ आवागमन सम दुःख दूजा, है नहिं जग में कोई ।
इसके निवारण के लिए, प्रभु-भत्तिफ़ करनी चाहिए ।।”
आवागमन के दुःख से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर की भक्ति करें।
किसी विद्वान ने बहुत अच्छा कहा- “ असन के लिए नाना प्रकार के अन्न, फल, मेवा, मिष्टान्न, दुग्ध-घृत आदि से भरा भंडार हो; वसन के लिए जाड़ा, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं के अनुकूल ऊनी, सूती, रेशमी, मलमल, मखमल सभी भाँति के वस्त्रें का आगार हो, शयन के लिए गगनचुम्बी अट्टालिका खिड़कीदार और हवादार हो; मन बहलाव के लिए वातानुकूलित अत्याधुनिक कार हो; दरबार के सामने रंग-बिरंगे खिले-अधखिले फूलों की कतारें हजारों-हजार हों; परिवार में परस्पर दम्पति का प्यार हो; कामिनी के कंचन किंकिणी, नुपूर एवं पायल की झनकार हो, प्रांगण में नन्हें-मुन्ने की किलकार हो; सोने, चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात आदि की टंकार हो, पद-प्रतिष्ठा और पैसे के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन यदि पालन सदाचार न हो, तो सारा जीवन हाहाकार हो।”
हमारा भविष्य उज्ज्वल कैसे होगा? लोग कहते हैं कि हम बल्ब के प्रकाश में रहते हैं, सूर्य का प्रकाश है, चन्द्र का प्रकाश है, चारो तरफ प्रकाश-ही- प्रकाश है। हम तो प्रकाशमय जीवन बिता रहे हैं। नहीं-नहीं, प्रकाश में तो आपका शरीर रहता है, आप प्रकाश में कहाँ हैं? आप शरीर नहीं हैं, आप शरीर के अंदर रहनेवाले शरीरी हैं। शरीर के अंदर घुसकर देखिए, तो अंधकार है या प्रकाश है? बाहर में आँखें खोलकर देखते हैं, तो भीतर देखने के लिए आँखें बंद करनी पड़ेंगी। अर्थात् क्रिया उलट दीजिए और देखिए, अंधकार मालूम पड़ेगा, उसी अंधकार में आप हैं। जबतक आप अंधकार में हैं, तबतक आप असत् में हैं। इसलिए हमारे यहाँ प्रार्थना है-
हे प्रभु! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, असत् से सत् में ले चलो, मृत्यु के मुख से निकालकर अमृतत्व की ओर ले चलो।
“ तमसो मा ज्योतिर्गमय । असतो मा सद्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतगमय ।।”
इन शब्दों का आपस में अन्योन्याश्रित संबंध है। एक तरफ अंधकार है, दूसरी तरफ प्रकाश है। एक तरफ असत् है, दूसरी तरफ सत् है। एक तरफ मृत्यु है, दूसरी तरफ अमरत्व है। अब आप इस तरह से देखिये-जबतक हम अंधकार में हैं, तबतक असत् में रहेंगे और मृत्यु के मुख में रहेंगे। जब हम अंधकार से प्रकाश में जाएँगे, तो असत् से सत् में जाएँगे और मृत्यु के मुख से निकलकर अमृतत्व लाभ करेंगे। यम ने नचिकेता से इसी अमृतत्व के लिए उपदेश दिया था।
नचिकेता के पिता ने बहुत बड़ा यज्ञ किया था, उस यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुत दान-पुण्य भी दिया। अंत में बूढ़ी-बूढ़ी गायें भी दान करने लगा। यह देखकर नचिकेता के मन में हुआ कि पिताजी बूढ़ी-बूढ़ी गायें दान क्यों कर रहे हैं? ये बेचारी तो अंतिम घास खा चुकी हैं, अंतिम पानी पी चुकी हैं। नचिकेता था तो बच्चा; लेकिन बड़ा बुद्धिमान था। उसने कहा, ‘पिताजी! आप तो सर्वस्व दान कर ही रहे हैं, उसमें तो मैं भी हूँ। आप मुझे किसको दान कर रहे हैं?’ नचिकेता के पिताजी ने समझा कि ‘बच्चा है, ऐसे ही बोल रहा है।’ नचिकेता ने पुनः अपनी बात दोहराई, ‘पिताजी! आप मुझको किसको दे रहे हैं?’ इस बार भी उसने अनसूना कर दिया। तीसरी बार फिर पूछा, ‘मुझे किसको दे रहे हैं?’ अंत में उसके पिता ने क्रोधित होकर कहा, ‘जा, तुमको यमराज को देता हूँ।’ बस, सुनते ही नचिकेता चल पड़ा और यमराज के घर पहुँच गया। उस समय यमराज घर में नहीं थे। वे तीन दिनों के बाद आए। तबतक वह भूखा-प्यासा वहाँ पड़ा रहा। जब यमराज घर आए, तो देखा कि एक बालक मेरे दरवाजे पर भूखा-प्यासा पड़ा है। यमराज ने सोचा कि कोई मेरे यहाँ आवे और उसका कोई सत्कार नहीं हो, यह बहुत बड़ा पाप है। यमराज ने कहा, ‘नचिकेता! तुम तीन दिनों तक मेरे दरवाजे पर भूखे-प्यासे रहे, इसलिए तुम मुझसे तीन वरदान माँग लो।’ नचिकेता ने पहला वरदान माँगा, ‘मेरे पिताजी का क्रोध दूर हो, दूसरा-मैं जब आपके यहाँ से लौटकर जाऊँ, तो वे मुझे आदर से रखें और तीसरा मुझे मृत्यु के मुँह से निकालकर अमृतत्व की प्राप्ति कराओ।’ यह सुनकर यमराज सोचने लगे कि यह बच्चा नहीं, कोई ज्ञानी बालक हैं यमराज उसे प्रलोभन देने लगे कि तुमको हम अपार धन देंगे, हाथी-घोड़े देंगे, सोना-चाँदी देंगे। संसार का सारा वैभव तुम मुझसे ले लो; लेकिन अमृतत्व की जिज्ञासा नहीं करो। नचिकेता ने कहा, ‘सोना, चाँदी, हीरा, जवाहरात एक-न-एक दिन खत्म हो जाएँगी। एक दिन सब कुछ छोड़कर संसार से जाना पड़ेगा। हमको यह सब नहीं चाहिए। मृत्यु के मुख में नहीं जाना पड़े, ऐसा उपदेश दीजिए। यमराज ने कहा-
“ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।”
-कठोपनिषद, अ0-3, बल्ली-3
(अरे अविद्याग्रस्त लोगो !) उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
इसी धार के विषय में गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘खन्निअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाना ।’
प्रभु को पाने का जो रास्ता है, वह बहुत महीन है।
भक्ति शब्द के विविध अर्थ होते हैं। भक्ति का अर्थ ‘सेवा’ भी होता है। विभिन्न प्रकार की सेवाएँ होती हैं। जैसे मातृसेवा, पितृसेवा, गुरु-सेवा, पारिवारिक सेवा, समाज-सेवा एवं देश-सेवा आदि। कोई भूखा है, उसको भोजन करा दीजिए, यह सेवा है। कोई प्यासा है, उसको पानी पिला दीजिए, यह भी सेवा है। कोई वस्त्रहीन है, उसको वस्त्र दे दीजिए, यह भी सेवा है। देश, काल और पात्र देखकर सेवा की जाती है।
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह अर्जुन के वाणों से घायल होकर धराशायी हो गए। उनके शरीर में इतने वाण लगे कि वाणों पर ही शरीर लटक गया। वाण ही उनके लिए शय्या हो गए। उस दिन युद्ध समाप्त हो गया और कौरव-पाण्डव दल के मुख्य-मुख्य लोग भीष्म पितामह के पास उनके दर्शन के लिए पहुँचे भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा कि मेरा सिर नीचे लटक रहा है, तकिया दो। उन्होंने अपने नौकर से कहा, ‘जाओ, मखमल का खूब बढ़िया मुलायम तकिया ले आओ।’ यह सुनकर भीष्म पितामह बहुत दुःखी हुए और उन्होंने अर्जुन की ओर देखकर कहा, ‘अर्जुन! तकिया दो।’ अर्जुन ने तरकस से तीन वाण निकाले और उनके सिर में दे मारे। सिर जो लटक रहा था, वाणों पर अटक गया। पितामह ने कहा, वाह! शाबाश बेटा!! जिस तरह की शय्या है, उसी तरह का तकिया देकर तुमने शौर्य का सम्मान किया है। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि ‘तुम्हारी विजय हो।” यह है सामयिक सेवा। देश, काल, पात्र देखकर अर्जुन ने सेवा की। पुनः भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा कि प्यास लगी है, जल पिलाओ। दुर्योधन ने नौकरों से कहा, ‘सोने के पात्र में शीतल जल ले आओ।’ पुनः भीष्म निराश होकर अर्जुन से बोले, ‘बेटा! जल पिलाओ।’ अर्जुन ने पृथ्वी में तीर मारा, उससे जल की धारा फूट पड़ी और शीतल जल भीष्म पितामह के मुँह मे चला गया। पितामह ने कहा, ‘वाह बेटा! शाबास!! मेरा आशीर्वाद है।’ यह भी एक प्रकार की सेवा है। लेकिन ईश्वर की सेवा कैसे करें? ईश्वर की किस बात की कमी है? उनको जल चाहिए या तकिया चाहिए? उनको रुपया-पैसा, क्या चाहिए? ईश्वर तो सबको सब कुछ देनेवाले हैं, उनको कौन क्या दे सकता है? तब ईश्वर की भक्ति कैसे करेंगे? सेवा कैसे करेंगे? बहुत-से लोग देवघर जाते हैं। कितने लोग देवघर जाते हैं, कितने पैदल जाते हैं, कितने दंड-प्रणाम करते हुए जाते हैं, यह भी भक्ति है। इसी प्रकार ईश्वर-दर्शन के लिए जहाँ ईश्वर-दर्शन होंगे, वहाँ जाना भी ईश्वर की सेवा है। इसके लिए क्या करना होगा? इसी के लिए भगवान श्रीराम ने शबरी को नौ प्रकार की भक्ति बतलायी, ‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।’ संतों का संग करो, यह पहली भक्ति है। इससे क्या मिलेगा? संत कबीर साहब कहते हैं।
“ कबीर संगत साध की, ज्यों गंधी की वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास ।।”
आप गंधी की दुकान पर जाइए, कुछ नहीं लीजिए, मात्र खड़े रहिये, तब भी सुगंध लगेगी ही। उसी तरह संत के पास जाइये, उनकी आभा आपमें प्रवेश करेगी। जो मन रजोगुणी, तमोगुणी है, वह सतोगुणी हो जाएगा। ‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।’ दूसरी भक्ति है, साधु-महात्माओं के वचनों को प्रेमपूर्वक सुनना। ऐसा नहीं कि एक कान से सुने और दूसरे कान से निकाल दिए, बल्कि सुनकर उसपर मनन कीजिए और आचरण में लाइये, तब कल्याण होगा। जो भक्ति का भेद बतलानेवाला होते हैं, वे गुरु कहलाते हैं।
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान । ’
मान-रहित होकर गुरु की सेवा करो, तब तीसरी भक्ति होगी।
“ चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।”
बाहरी दिखावा नहीं, अंतर से प्रभु का गुणगान करो। छल-कपट छोड़कर ईश-स्तुति प्रार्थना करो, यह चौथी भक्ति होगी, बंगाल में जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज संत हुए, उसी तरह काली के भक्त रामप्रसाद सेन भी संत हुए। उन्होंने कहा-
“ मन तोर एत भावना केने। एक बार काली बले बसबे ध्याने।।
जाँक जमके कर्ले पूजा। अहंकार हय मने मने;
तूमि लूकिये ताँरे कर्बे पूजा। जानबे ना रे जगज्जने ।।
धातू पाषाण माटीर मूर्त्ति। काज की रे तोर से गठने;
तूमी मनोमय प्रतिमा करी। दे बसाऊ हृदि पप्रासने ।।
आलो चाल आर पाका कला, काज की रे तोर आयोजने;
तूमी भक्ति सुधा खाईये ताँरे, तृप्ति कर आपन मने ।।
झाड़ लण्ठन बातीर आलो, काज की रे तोर से रोस्नाइये;
तूमी मनोमय माणिक्य जेले, देउ ना जलूक निशिदिने ।।
मेष छागल महिषादि, काज की रे तोर बलिदाने;
तूमी जयकाली जयकाली बले, बलि दाउ षड़ रिपू गणे ।।
प्रसाद बले ढाके ढोले, काज की रे तोर से बाजने;
तूमी जय काली बलि, देउ कर तालि, मन राख सेई श्रीचरणे ।।”
तुम्हारे अंदर जो षट् रिपु-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि हैं, उनका बलिदान करो, न कि बकरी-भैंसे का। दूसरे को दिखाने के लिए पूजा नहीं करो।
“ मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।”
दृढ़ विश्वास के साथ गुरुप्रदत्त मंत्र का जप करो। जपों में मानस जप सबसे श्रेष्ठ होता है। एकाग्र मन से जप करना, यह पाँचवीं भक्ति है।
“ छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धरमा ।।”
दमशील बनो, इन्द्रियनिग्रह का स्वभाव वाला बनो। दृष्टियोग-क्रिया से इन्द्रियनिग्रह होगा। इसके लिए गुरु से भेद लो। किसी किताब के पढ़ने मात्र से यह भेद नहीं मिलेगा।
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से,
है असंभव समझ लो किसी संत से ।”
जो सज्जनों का धर्म है, उस धर्म पर चलो। सज्जनों का धर्म है-झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो (मांस-मछली, अंडादि का सेवन नहीं करो) और पर-स्त्री, पर-पुरुष गमन नहीं करो; इन पंच पापों से अपने को बचाकर रखो। एक ईश्वर पर अटल विश्वास रखो। उनकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। ध्यान करो, सत्संग करो, यह है छठी भक्ति। सुख-दुःख, हानि-लाभ सबमें सम रहो। ईसा मसीह को क्रॉस पर लटकाया गया। वे क्रॉस पर लटके हुए थे, फिर भी दुश्मनों को लिए प्रार्थना करते थे, ‘हे प्रभु! जो मेरे साथ इस तरह का दुर्व्यवहार कर रहे हैं, वे अज्ञानी हैं, इसलिए उनको क्षमा कर दो।’ संत का हृदय कैसा है! स्वयं दुःख सहकर दूसरे को सुख पहुँचाते हैं। यही है सज्जनों का धर्म।
महात्मा नरसी मेहता कहते हैं-
“ वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीड़ पराई जाणै रे ।
पर दुखे उपकार किए, तो मन अभिमान न आणै रे ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ पर उपकार वचन मन काया ।
संत सहज सुभाव खगराया ।।”
संतों का स्वभाव है, दूसरों का उपकार करना।
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।”
सातवीं भक्ति है-समता की प्राप्ति। इसके लिए शम-मनोनिग्रह की साधना करनी होगी। यह नादानुसंधान से होता है।
भगवान श्रीराम ने कहा, ‘मुझसे बढ़कर संत को मानो।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘राम से अधिक राम कर दासा।’ क्यों भाई, इसलिए कि-
“ राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चंदन तरु हरि सन्त समीरा ।।”
राम सिन्धु-समुद्र हैं। समुद्र का जल खारा होता है; लेकिन उसी से वाष्प उठता, जल बन जाता है, वर्षा होती है, तब वह पेय जल हो जाता है, जीवन दाता हो जाता है। उसी तरह ईश्वर का ज्ञाना खारा है; लेकिन संत जन उसको मीठा करके पिलाते हैं। संत नहीं होते, तो लोग ईश्वर को भूल जाते और याद ही नहीं करते। ईश्वर अव्यक्त है, इसी से कुछ कहते नहीं; लेकिन संत जन हमको उसके विषय में बताते हैं, समझाते-बुझाते हैं और सन्मार्ग पर चलाते हैं।
“ आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ।।”
आठवीं भक्ति है, जो मिल गया, उसमें संतोष करो, जागतिक पदार्थ के लिए हाय-हाय मत करो। कितना भी जमा करो, सब छोड़कर एक दिन जाना पड़ेगा। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।”
सुना कि अमेरिका में एक बड़े धनी थे। उनका खजाना जमीन के नीचे था। वे खजाने के पास नित्य लिफ्रट से जाते-आते थे। एक दिन वे खजाने के पास गए और एकाएक बिजली गुम हो गयी, ऐसा हुआ कि उसका दम घुट गया और वहीं मर गया। क्या कुछ ले गये वे? अरे! जब तन कही साथ नहीं जा सकता है, तो धन और परिजन कहाँ से जाएगा?
“ ऐसा प्यारा कोइ नहीं, जैसा जीव अरु देह ।
चलती विरिया रे नरा, डारि चला ज्यों खेह ।।”
दूसरे के दोषों को मत देखो। जो दूसरे को दोष देखते हैं, उनकी ओर अँगुली उठाते हैं, तो एक अंगुली आगे करते हैं और तीन अंगुली पीछे रखते हैं अर्थात् एक दोष दूसरे का देखते हैं और अपनी तीन दोष छिपाकर रखते हैं। अपने दोषों को देखो, दूसर के दोषों को मत देखो।
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हिय हरष न दीना ।।”
भगवान श्रीराम कहते हैं-सबसे निष्कपट होकर रहो और एक मेरे ऊपर भरोसा रखो। इस तरह नौ प्रकार की भक्ति भगवान श्रीराम ने शबरी को बतलाया।
“ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख
हृदय पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद
लीन भइ जहँ नहिं फिरे ।।”
शबरी नवो प्रकार की भक्ति में पूर्ण थी। वह प्रभु के धाम में पहुँच गई, जहाँ से लौट करके आना नहीं होता है। जैसे गंगा की धारा समुद्र में चली जाती है, तो उसको समुद्र से निकाल नहीं सकते, वह एक हो जाती है। उसी तरह जीव पीव मिलकर एक हो जाता है। अवश्य ही, जो संत प्रभु धाम में पहुँच गए ओर उनकी इच्छा हो कि संसार में जाकर उपदेश करें, शिक्षा दें, लोगों का कल्याण करें, तो भले वे आ सकते हैं। इस तरह भक्ति से परमात्मा से जाकर एक हो जाओगे। भगवान श्रीकृष्ण का वचन श्रीमद्भगवद्गीता में है, ‘जो मेरे धाम में आ जाता है अर्थात् मुझको पा लेता है, तो फिर संसार में वह नहीं आता।’ जो गुरुभेद लेकर ईश्वर-भक्ति करते हैं, उनका इहलोक और परलोक; दोनों कल्याणमय होता है। यहाँ भी सुख में रहते हैं और वहाँ भी।
जैसे कलकत्ता से दिल्ली जाना है, तो जिस ट्रेन से जिस क्लास का हम टिकट कटाएँगे, उसी क्लास का वेटिंग रूम हमको दिल्ली में मिलेगा। वैसे ही, जिस तरह के कर्मरूपी टिकट हम यहाँ कटाएँगे, वहाँ-परलोक में उसी तरह की व्यवस्था और सुविधा मिलेगी, इसलिए बुरा कर्म करना ही नहीं चाहिए, अच्छा कर्म करना चाहिए।
इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ। जिन लोगों ने तन, मन, धन या किसी प्रकार वचन से इस आयोजन में सहयोग किया है और जो लोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं, उन सब लोगों को मेरा बहुत-बहुत धन्यवाद है, बड़ों को प्रणाम तथा छोटों को आशीर्वाद है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन स्थान: सोदपुर, कोलकाता में दिनांक 29-01-2006 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2006 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
हमलोग प्रतिदिन तीन अवस्थाओं में जाते-आते रहते हैं। वे तीन अवस्थाएँ हैं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जिस समय हम जिस अवस्था में रहते हैं, उस समय दूसरी अवस्था का ज्ञान नहीं रहता है। अभी हमलोग जाग्रत अवस्था में हैं, तो स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था का ज्ञान नहीं है। जब जाग्रतावस्था से स्वप्नावस्था में चले जाते हैं, तो जाग्रतावस्था और सुषुप्ति अवस्था का ज्ञान नहीं रहता है तथा जब स्वप्न से सुषुप्ति में चले जाते हैं, तो स्थूल और स्वप्नावस्था का भी कुछ ज्ञान नहीं रहता। इन तीन अवस्थाओं के अतिरिक्त एक चौथी अवस्था है, जिसको तुरीय कहते हैं। जब हम तुरीय में चले जाएँगे, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहेगा।
संतों की दृष्टि में, जिसको हमलोग जाग्रत मान रहे हैं, वास्तव में जाग्रत नहीं है, यह तो स्वप्न के समान है। हम स्वप्न में कुछ देखते हैं और नींद टूटती है, तो कहते हैं कि जो देखा था, वह मिथ्या है। उसी तरह जब हम तीन अवस्थाओं को पार कर चौथी अवस्था में जाएँगे, जब हमारी जाग्रत अवस्था भी स्वप्नावस्था के समान मिथ्या हो जाएगी। श्रीमद्भगवद् गीता, अध्याय 2, श्लोक 67 में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है-
“ या निशा सर्वभूतानां जाग्रति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।”
जिस समय सब लोग सोए रहते हैं, उस समय योगी जगकर ध्यान करते हैं। इसी विषय को फारसी में इस प्रकार कहा गया है-
“ जाहिलों का रोज रौशन आरिफों की रात है ।
आरिफों का रोज रौशन जाहिलों की रात है ।।”
स्वप्न में हम देखते हैं कि बहुत दिनों के बाद हमारे मित्र आए हैं। उनसे प्रेम-व्यवहार, आदर-सत्कार, खिलाना-पिलाना आदि करते हैं। सब कुछ जाग्रतावस्था की भाँति व्यवस्था करते हैं। जैसे-ही हमारी नींद टूटती है, देखते हैं कि हमारे मित्र नहीं हैं। खिलाना- पिलाना सब झूठा ही था। जिस समय स्वप्नावस्था में रहते हैं, उस समय यह मालूम नहीं पड़ता कि हम स्वप्नवास्था में हैं; जाग्रतावस्था की तरह ही हम सब काम करते हैं। जब नींद टूटती है, तब पता चलता है कि इससे पहले हम स्वप्नावस्था में थे। उसी तरह जब हम तीन अवस्थाओं को पार कर चौथी अवस्था में जाएँगे, तब हम समझेंगे कि हमारी जाग्रतावस्था भी स्वप्नवत् है। चौथी अवस्था में जाने पर ही असली जगना होगा। गो0 तुलसीदासजी ने कहा, ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ यदि भगवद्भजन करना है, तो तीन अवस्थाओं को छोड़िये, तुरीय में प्रवेश कीजिए। वहीं से जगना शुरू होगा। वैसे तो संसार के लोग प्रतिदिन सोते-जागते हैं; लेकिन यह असली जगना नहीं है, यह तो बहिर्मुख जगना है। संत दरिया साहब कहते हैं-
“ माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान ।
दरिया जागे ब्रह्म दिशि, सो जागा परमान ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी का वचन है-
“ मोह निशा सब सोवनिहारा ।
देखिय स्वप्न अनेक प्रकारा ।।”
जब हमलोग जगे रहते हैं, तो संतों की दृष्टि में सोये रहते हैं। हम जानते हैं कि हमारी पत्नी है, हमारे पति हैं, हमारे पुत्र हैं, हमारी सम्पत्ति है, हमारा कुटुम्ब है, हमारा परिवार है; सब कुछ जानते हैं; लेकिन स्वप्नावस्था में चले जाने पर सब भूल जाते हैं। उस समय में जो कुछ देख रहे हैं, उसी को सत्य मानते हैं। उसी तरह संत लोग कहते हैं, जब तुरीय में जाएँगे, तो सारे संसार को भूल जाएँगे। संसार स्वप्नवत् मालूम होगा।
“ सपने जेहि सन होइ लड़ाई ।
जागत समुझत मन सकुचाई ।।”
स्वप्न में हम देखते हैं कि हमारे साथी आए हुए हैं और वाद-विवाद में उनसे झगड़ा हो गया। झगड़ा में जो सब होना था, सब हो गया। लेकिन जैसे-ही नींद टूटती है, तब मन में लज्जा आती है कि यह सब झूठा ही था। उसी प्रकार जब तीसरी अवस्था को पार कर चौथी अवस्था में जाएँगे, तब मालूम पड़ेगा कि संसार स्वप्नवत् है। महात्मा गाँधीजी ने लिखा है-‘जब सब लोगों की रात होती है, तब जोगी उसमें जगते हैं।’ जो साधक होते हैं, वे सवेरे ही खा- पी लेते हैं और रात में जगकर ध्यान करते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है, ‘जब सब लोग सो जाते हैं, साधक उठकर ध्यान करते हैं। लोग समझते हैं कि मसहरी में सोए हुए हैं।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ यहि जग जामिनि जागिहिं जोगी ।
परमारथी प्रपंच वियोगी ।।”
जो जोगी होते हैं, वे संसाररूपी रात्रि में जगे रहते हैं और वे प्रपंच-त्यागी होते हैं। प्रपंच ही माया है। माया कहाँ तक है?
“ गो गोचर जहँ लग मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।”
(रामचरितमानस)
इन्द्रियों से जो कुछ भी हम ग्रहण करते हैं, मन जहाँ तक जाता है और मन से जो कुछ ग्रहण करते हैं, सब माया-ही-माया हैं, सब विषय-ही-विषय हैं। स्थूल विषय, सूक्ष्म विषय, सूक्ष्मतर विषय और सूक्ष्मतम विषय; इन सबको पार करके जाने पर ही अज्ञान की नींद खुलेगी और असली जगना होगा। विषयों से जगने का आरंभ आज्ञाचक्र से होता है। जैसे हम सोये हुए हैं, कोई उठाता है, तो उठकर बैठ जाते हैं। उठने के बाद भी ऊँघते हैं; पूरी तरह जगे हुए नहीं हैं। उसी तरह तुरीय में जाने पर भी मोहावरण बिल्कुल हटता नहीं है। जैसे-जैसे साधना में आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे मोह समाप्त होता जाता है। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
“ चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित्त अहंकार ।
विमल विचार परम पद, निज सुख सहज उदार ।।”
जहाँ तक मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार है; सबों को छोड़िए। जबतक ये रहेंगे, तबतक मोह दूर नहीं होगा, परम पद में प्रवेश नहीं कर सकेंगे और न पूरा जगना होगा। इसलिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
“ जागु जागु जीव जड़, जो है जग जामिनी ।
देह गेह नेह जानि, जैसे घन दामिनी ।।1।।
सोवत सपनेहूँ सहै, संसृति संताप रे ।
बूड़ड्ढो मृगवारि खायो, जेँवरी को साँप रे ।।2।।”
“ सुभग सेज सोवइ सपने वारिधि बूड़त भय लागे ।
कोटिन नाव न पार तरे तहँ जब लग आप न जागे ।।”
जैसे कोई राजकुमार सुन्दर शय्या पर आराम से सोया हुआ है। वह स्वप्न देख रहा है कि हम नदी में डूब रहे हैं, समुद्र में डूब रहे हैं, तो उस समय उसको कैसा लगता होगा! वास्तव में कोई समुद्र में डूबता है, तो उसकी कितनी विकलता होती है! गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं, ‘वारिधि बूड़त भय लागे।’ नाव नहीं मिले तो पार कैसे होंगे; लेकिन स्वप्न में नाव कहाँ? उसके बगल में सैकड़ों नावें लगी हुई हों, जबतक वे जगेंगे नहीं, डूबने का दुःख दूर नहीं होगा। इसलिए नचिकेता को यमराज ने उपदेश दिया था।
“ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।”
अर्थात् अरे अविद्याग्रस्त लोगो ! उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।।
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ रघुपति भगति सुलभ सुखकारी ।
सो त्रय ताप सोक भयहारी ।।”
वे ही दूसरी जगह कहते हैं-
“ रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।”
सुलभ किसके लिए और कठिन किसके लिए? जिसका मन असंयमित है, उसके लिए कठिन और जिसका मन संयमित है, उसके लिए सरल है। हम बैठते हैं ध्यान करने के लिए और मन दुनिया में चक्कर काटता है। शरीर तो एक कोठरी के अंदर है; लेकिन मन उस कोठरी के दिवार को पार कर चक्कर काटता रहता है। भक्ति को कठिन कहकर छोड़ देना ठीक नहीं है। गो0 तुलसीदासजी ने कहा घबड़ाने की बात नहीं है, अभ्यास करो सरल होगा।
“ जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।”
जो जिस कला में कुशल हो जाता है, उसके लिए वह सुलभ हो जाता है। जबतक कुशल नहीं हुए हैं, तबतक कठिनाई होती है।
बहुत वर्ष पहले की बात है। उन दिनों गुरु महाराज के साथ एक रसोइया और दूसरा मैं रहता था। हम तीनों के अतिरिक्त साथ में कोई नहीं रहते थे। संयोगवश जो रसोई बनानेवाला था, वह बीमार पड़ गया। तब गुरु महाराज की रसोई मैं बनाता था। एक बार सत्संग-कार्यक्रम में हमलोग सैदाबाद गए थे। वहाँ भारत-नेपाल का बॉर्डर है। वहाँ के सत्संग-मंदिर में हमलोग ठहरे थे, वहाँ के प्रेमी सत्संगियों ने कहा कि आज हमलोग गुरु महाराज को भोजन खीर-पूड़ी खिलाना चाहते हैं। रसोईया तो बीमार था, मैं अपने से रसोई बनाना शुरू किया। मुझे पूड़ियाँ बनाना आता नहीं था; लेकिन कभी-कभी चौका में जाकर देखता था कि रसोइया भोजन कैसे बनाता है। उस दिन मैंने कोशिश करके खीर बनाई, सब्जियाँ बनाई और आटा गूँध लिया। जब पूड़ी बनाने का समय आया, तो कढ़ाई में घी डाल दिया। घी कड़कने लग गया। अब कड़ाही में पूड़ी डालनी है, तो वहाँ पर बुद्धि काम ही नहीं कर रही थी कि घीउ में कैसे डालें? सोचने लगा, दूर से रखेंगे तो घी छिटककर हाथ में लग जाएगा। दूर से डालना ठीक नहीं है। कड़ाही में सटाकर डालेंगे, तो अँगुली ही जल जाएगी। अंततः मैंने कड़ाही में पूड़ी डाली, तो अँगुली घीउ में पड़कर जल गयी। अब अँगुली जलने से मुझे बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर लोगों ने गुरु महाराज से जाकर बात कही। गुरु महाराज बोले, ‘कोई बात नहींहै, कहिए अँगुली को आग में सेकेंगे।’ यह बात सुनकर मेरे मन में हुआ कि एक तो अँगुली घी में जली है और ऊपर से आग में सेकने के लिए कहते हैं। पर गुरु आदेश पालन अनिवार्य था। मैंने सेक दिया। ठीक ही, जब आग में सेका, तो घाव नहीं हुआ। चमड़ा जितना जला था, कुछ दिनों में सूखकर झड़ गया।
जो जिस कला में अभ्यस्त हो जाते हैं, उसके लिए वह कष्टकर नहीं होता। माताएँ प्रतिदिन रोटियाँ बनाते हैं, उनके लिए वह सरल हो जाता है। जो नहीं करते हैं, उनके लिए कष्टकर और दुःखदायी मालूम पड़ता है। जो करते हैं, उसके लिए सुखदायी होता है। किसी भी कला में कोई कुशल कैसे होता है? बारम्बार अभ्यास करते-करते।
जब पहले-पहल माई-माताएँ चौका में जाती हैं, तो दिन की रोटियाँ कैसी होती हैं? टेढ़ी-मेढ़ी-सी होती है। कोई कच्ची रह जाती है और कोई जल भी जाती है। वे ही जब बराबर बनाने लगती हैं, तो बनाते-बनाते रोटी से फलका हो जाता है, मोटा से हल्का हो जाता है। अभ्यास करते-करते वह अभ्यस्त हो जाती है। उसी भाँति ध्यान करने में पहले मन नहीं लगता है, कठिनाई मालूम पड़ती है। बैठते हैं जप करने के लिए और करने लगते है गप्प। लेकिन जो बराबर करते रहेंगे, करते-करते उनको अभ्यास हो जाएगा, तब सरल हो जाएगा। गो0 तुलसीदासजी उपमा देते हैं-हाथी बहुत मोटा और लंबा-चौड़ा जानवर होता है। सफरी मछली बहुत छोटी होती है। गंगा की धारा में सफरी मछली भाठा से सीरा चली जाती है और हाथी बह जाता है। वैसे ही जिसका मन मोटा है यानी बहिर्मुखी है, उसको भीतर प्रवेश कराना यानी दसवें द्वार में घुसाना कठिन हो जाता है। क्यों? इसलिए कि वह द्वार बहुत सँकरा है और मन बहुत मोटा है। बाइबिल में आया है-‘सकेत फाटक से प्रवेश करो।’ यह सकेत फाटक क्या है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति दुआरा साँकरा, राई दसवें भाव ।
मन ऐरावत हो रहा, कैसे होय समाव ।।”
साधारण हाथी को एक सूँड़ होती है और ऐरावत हाथी को चार सूँड़ होती है। यह मन ऐरावत है। इसे भी चार सूँड़ है। मन का चारो तरफ फैलना-चार सूँड़ है। दसवें द्वार का रास्ता बहुत साँकरा है। मन इसमें कैसे घुसेगा? चारो सूँड़ को समेटिए अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख कीजिए। सूई में हमलोग धागा पिरोते हैं। नजर स्थिर नहीं रही, तो सूई के छेद में धागा घुसा नहीं सकते। नजर को समेट करके छेद पर रखते हैं, तब धागा पिरो पाते हैं। उसी तरह जबतक मन बिखरा हुआ रहेगा, तबतक दसवें द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता। इसके लिए मन को समेटना होगा। पहले मानस जप के द्वारा कुछ समेटा जाता है। फिर मानस ध्यान से कुछ अधिक समेटा जाता है। उसके बाद दृष्टियोग है, उसमें पूर्ण सिमटाव होता है। जब पूर्ण सिमटाव होता है। जब पूर्ण सिमटाव होगा, तब ऊर्ध्वगति होगी। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाएगा। अंधकार से प्रकाश में चले जाएँगे। वहाँ शब्दानुभूति होती है।
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ।।’
ट्रांसफार्मर से जब बिजली की धनात्मक और ऋणात्मक धारा प्रवाहित होती हैं, तब दोनों के मिलन से बल्ब जल जाता है और भक् से रोशनी हो जाती है। उसी प्रकार दृष्टि की दो धाराएँ हैं। ये दोनों धाराएँ अंदर में जहाँ मिलेंगी, वहाँ प्रकाश होगा।
एक बंगाली महात्मा योगी पंचानन भट्टाचार्य ने कहा है-
“ चम्पक कलिका नवघने ढका सुधा माखा रूप अन्तरे ।
जे हेरे ताहारे आपने पासरे जाहा व्याप्त चराचरे ।।”
चम्पा फूल की कली के नीचे का भाग मोटा होता है और ऊपर पतला होता है। उसका रंग पीला होता है। जैसे दीपक का टेम नीचे मोटा होता है और ऊपर पतला होता है। उसका भी रंग पीला होता है। जब साधक साधना करता है, उसे अंदर में उसी तरह पीला रंग मालूम पड़ता है।
जो कोई अपने अंतर में उस प्रकाश को देखता है, वह अपने को भूल जाता है। बाह्य विस्मृति हो जाती है। हमारे गुरुदेव ने कहा है-
साधक की ऊर्ध्वगति होने से बाहर से सोया-अचेत मालूम पड़ता है; लेकिन भीतर से वह जगा-सचेत रहता है।
भागलपुर में मीता नाम की एक लड़की है। जब वह बहुत छोटी थी, तो अपने माता-पिता के साथ कुप्पाघाट आश्रम आया करती थी। एक दिन मैं बाहर बरामदे पर धूप में बैठकर कुछ लिख रहा था। वह बच्ची मेरे पीछे खड़ी हो गयी। मुझे पता नहीं था कि वह पीछे में खड़ी है। जब लिखना समाप्त हुआ, तो मेरी नजर बच्ची पर पड़ी। मैंने पूछा क्यों खड़ी हो? वह बोली, ‘हमको भजन-भेद दीजिए!’ मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी-सी बच्ची है और कहती है, ‘हमको भजन-भेद दीजिए।’ तो मैंने पुनः पूछा, ‘तू भजन-भेद लेकर क्या करेगी?’ वह बोली, ‘भगवान का ध्यान करूँगी।’ मैंने कहा, ‘भगवान का ध्यान करके क्या करेगी?’ वह बोली, ‘भगवान मिलेंगे।’ मुझे बड़ी खुशी हुई कि छोटी-सी बच्ची है और मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब देती है। मैंने उसको कहा, ‘आती रहो, कभी बता दूँगा।’ माँ-बाप के साथ वह बच्चा बराबर आती रही। कुछ दिनों के बीतने पर फिर उसने मुझसे आग्रह किया कि मुझे भजन-भेद बता दीजिए। मैंने सोचा जिद्द कर रही है, कुछ बता देता हूँ। उसको मानस जप बता दिया। वह करने लगी। कुछ दिनों के बाद फिर बोली, ‘और आगे बता दीजिए।’ फिर मानस ध्यान बतला दिया। मानस ध्यान करने लगी। एक दिन ध्यान करते-करते उसके मन का इतना सिमटाव हो गया कि अंतर में उसे प्रकाश मिल गया। पहले वह कुछ ध्यान करके पढ़ने के लिए चली जाती थी; लेकिन उस दिन बैठी, तो बैठी ही रही, उठी नहीं। पंद्रह मिनट हो गया, आधा घंटा हो गया, पौने घंटा हो गया, एक घंटा हो गया, टस-से-मस नहीं कर रही है। उसके पिता के मन में घबड़ाहट हुई कि क्या हो गया बच्ची को! वे कुप्पाघाट आश्रम आए। मैं तो उस समय आश्रम में था नहीं। उनके पिताजी आश्रम के साधु-महात्मा लोगों से मिले और कहने लगे कि मेरी बेटी ध्यान में बहुत देर से बैठी है, उठ नहीं रही है। लोगों ने कहा कि घबड़ाने की बात नहीं है, वह अपने आप उठ जाएगी। जब तीन घंटे बाद उसका ध्यान टूटा, तो उनके माता-पिता पूछते हैं, इतनी देर से क्यों बैठी थी? बच्ची बोली, ‘आपको नही बतलाऊँगी, गुरुजी को बतलाऊँगी।’
मैं सत्संग-कार्यक्रम के बाद आश्रम आया, तो बच्ची मुझसे मिलने के लिए आयी। मैंने पूछा, ‘ध्यान में क्या करती थी?’ उसने अपनी साधनानुभूति की बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं। सुनकर मझे बहुत प्रसन्नता हुई।
कहने का मतलब है कि जो निष्ठापूर्वक बराबर साधना करते हैं, उसकी ऊर्ध्वगति होती है। मन केन्द्रित हो जाता है। इस साधना को एक छोटा बच्चा भी कर सकता है, छोटी बच्ची भी कर सकती है। यह साधना कितना सरल है, समझ लीजिए। सर्वप्रथम एकाग्रतापूर्वक मानस जप, मानस ध्यान कर लेना चाहिए। फिर दृष्टियोग करके अंतिम क्रिया नादानुसंधान करना चाहिए। नादानुसंधान करने से साधक को शब्द सुनाई पड़ता है। साधक शब्द-धार को पकड़कर परम प्रभु परमात्मा में मिल जाता है और इस संसार-सागर से उसे मुक्ति मिल जाती है। हमारे गुरुदेव ने कहा है-
“ नाद सो नादो में चलि धरु, प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओम् सतनाम ध्वनि धरि, ‘मेँहीँ’ हो भव पार ।।”

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 02-04-2006 ई0 को अपराह्णकालीन साप्ताहिक सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2006 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 10 अध्याय 70 के चतुर्थ श्लोक में आया है-
“ ब्राह्मे मुहूर्त्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।”
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्म-स्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।
किसी समय भगवान श्रीकृष्ण आसन लगाकर ध्यान कर रहे थे। जब वे ध्यान से उठे तो अर्जुन ने पूछा-‘भगवन््! सबलोग तो आपका ध्यान करते हैं और आप आँखें बंद कर किसका ध्यान करते हैं।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘मैं भक्तों का ध्यान करता हूँ।’ अर्जुन ने पूछा-‘आप की आँखों से कौन भक्त ओझल है, जिसका ध्यान आप करते हैं? जो अपने से श्रेष्ठ होते हैं, बड़े होते हैं, ध्यान तो उनका किया जाता है!’ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखलाया। अर्जुन ने देखा कि उनके जितने भक्त हैं, वे उनके अंग-प्रत्यंग में बैठे हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा-‘अर्जुन! तुम क्या देख रहो हो?’ अर्जुन ने कहा-‘भगवन्! मैं तो देख रहा हूँ कि आपके जितने भक्तगण हैं, सब-के-सब आपके रोम-रोम में बैठे हुए हैं।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘और कुछ देखते हो?’ अर्जुन ने कहा-‘हाँ! कुछ भक्त ऐसे भी हैं, जो आपके सिर पर बैठे हुए हैं।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘अर्जुन! आँख से नीचे की चीज तो सब कोई देखते हैं, पर आँख से ऊपर बैठे हुए भक्तों को मैं कैसे देख सकूँगा? जो भक्त आँख से ऊपर बैठे हुए हैं, उन्हीं भक्तों का मैं ध्यान करता हूँ।’
इन्हीं बातों से मिलती-जुलती बातें हम रामचरितमानस में भी पढ़ते हैं। रामचरितमानस को कोई षट्संवाद कहते हैं और कोई अष्टसंवाद कहते हैं। षट्संवाद इसलिए कहते हैं कि उसमें याज्ञवल्क्य और भारद्वाज, भगवान शंकर और पार्वती, कागभुशुण्डिजी और गरुड़जी का संवाद है। साथ ही, तुलसीदासजी जन साधारण को उपदेश देते हैं, इसलिए अष्टसंवाद भी है।
जब मेघनाद ने कठोर तपस्या की, तब ब्रह्माजी ने उसे दर्शन दिया। ब्रह्माजी मेघनाद से बोले-‘वरदान माँगो!’ मेघनाद ने कहा-‘मैं राम को मार सकूँ, ऐसा आशीर्वाद दीजिए।’ ब्रह्माजी ने कहा-‘राम को तुम मार तो नहीं सकते, लेकिन एक दिन राम और लक्ष्मण को पराजित कर सकते हो।’ मेघनाद ने एक दिन युद्ध में राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को नाग-पाश से बाँध दिया था। नाग-पाश से बँध जाने पर भगवान सोचने लगे कि अब इससे छूटें तो कैसे? नारदजी ने गरुड़ का आह्वान किया। गरुड़जी जब भगवान के पास पहुँचे, तो उन्हें देखकर साँप भाग गया। भगवान नाग-पाश से मुक्त हो गए। यह देखकर गरुड़ के मन में संदेह हुआ, भ्रम उत्पन्न हुआ कि-
“ भव बंधन ते छूटइ नर, जपि जाकर नाम ।
खर्व निशाचर बाँधेऊ, नाग पास सो राम ।।”
अर्थात् हम तो सुनते थे कि भगवान का नाम लेने से भव-बंधन कट जाता है, लेकिन ये कैसे भगवान हैं कि राक्षस के नाग-पाश से बँधे हुए हैं। अगर हम नहीं आये होते, तो ये बँधे ही रहते। गरुड़जी को मोह हो गया। अब इनका मोह छुड़ावे तो कौन? गरुड़जी संदेह निवारण के लिए ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने कहा-‘मुझे तो फुर्सत नहीं है। भगवान शंकर योगी हैं, उनके पास जाओ। वे तुम्हारे संदेहों को दूर करेंगे।’ गरुड़जी चले भगवान शंकर के पास। भगवान शंकर उधर से आ ही रहे थे कि रास्ते में भेंट हो गई। रास्ते में गरुड़जी ने उन्हें सारी बातें बताईं और कहा-‘मैं आपके पास जा रहा था, जिज्ञासा-समाधान के लिए; लेकिन आप तो कहीं और जा रहे हैं।’ भगवान शंकर ने कहा-
“ मिलेउ गरुड़ मारग महँ मोही ।
कवन भाँति समझावउँ तोही ।।”
भगवान शंकर से गरुड़जी की कुछ देर बातचीत हुई। भगवान ने सोचा कि-‘खग जाने खग ही की भाषा’ अतएव उन्होंने गरुड़जी को कागभुशुण्डिजी के पास भेज दिया। कागभुशुण्डिजी के साथ कुछ समय तक सत्संग करने पर उनका भ्रम दूर हो गया।
रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में प्रसंग आया है। कागभुशुण्डिजी कहते हैं-
“ मोरे मन प्रभु अस विस्वासा ।
राम से अधिक रामकर दासा ।।”
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, जो भक्त हमारे सिर पर हैं, हम उनका ध्यान करते हैं। वे हमसे बड़े हैं। वही बात यहाँ पर कागभुशुण्डिजी कहते हैं-‘हे गरुड़जी! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि राम से बढ़कर राम के दास होते हैं।’ यहाँ भी एक शंका उत्पन्न होती है कि राम से बढ़ कर राम के दास कैसे हो सकते हैं? रामचरितमानस में इसका समाधान भी किया गया है।
“ राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चंदन तरु हरि संत समीरा ।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई ।
सो बिनु संत न काहूहि पाई ।।
अस विचारि जो कर सत्संगा ।
राम भगति तेहि सुलभ विहंगा ।।”
कागभुशुण्डिजी कहते हैं-‘राम सिन्धु घन सज्जन धीरा।’ भगवान समुद्र के समान अथाह, अनन्त हैं; लेकिन भक्त घन (बादल) हैं। समुद्र का पानी कोई पी नहीं सकता है। समुद्रयात्री जहाज में अगर पेयजल साथ में नहीं रखे, तो प्यासा मर जाएगा। इसलिए रहीम कवि कहते हैं-
“ धन रहीम जल ताल को, लघु जीव पीयत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।”
समुद्र का पानी खारा होता है। इसलिए वह पीया नहीं जाता है। उसी तरह भगवान सभी जगह सर्वव्यापक हैं, लेकिन उनका ज्ञान इतना कठिन है कि सबकी समझ में आनेवाला नहीं है। समुद्र के खारे जल से वाष्प उठता है और वही वाष्प बादल बनता है। बादल बनकर बरसता है, तो वह जल मीठा हो जाता है। उससे खेती होती है, फसल उपजती है। जैसे बादल लोक-उपकार करता है, खारा जल को पेय जल बना देता है। उसी तरह भगवान का ज्ञान अथाह है, अनन्त है, पर संत लोग उस ज्ञान को सरल ढंग से जनसामान्य के बीच रखते हैं। भगवान तो कहीं जाते-आते नहीं हैं। समुद्र भी कहीं जाता-आता नहीं है, जाता-आता बादल है। उसी तरह से बादल-रूप संत आते-जाते रहते हैं, घूमते-फिरते रहते हैं और वे सद्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। इसलिए भगवान से बढ़कर भगवान के दास होते हैं। दूसरी बात बतलाते हैं-‘चन्दन तरु हरि संत समीरा।’ चन्दन वृक्ष में सुगन्धि रहती है। वृक्ष एक जगह स्थिर रहता है, कहीं जाता-आता नहीं है। उसी तरह परमात्मा स्थिर हैं, कहीं जाते-आते नहीं हैं, उनका आवागमन नहीं है। लेकिन जो चन्दन में सुगन्धि है, वह हवा के द्वारा दूर-दूर तक पहुँचती है और हमें उसका आभास होता है। उसी तरह भगवान के यश को, गुण को, महिमा को जो उनके भक्त होते हैं, वे घूम- घूमकर दूसरे तक पहुँचाते हैं। इसलिए-
“ अस विचारि जो कर सत्संगा।
राम भगति तेहि सुलभ विहंगा।।”
सत्संग से ही सद्ज्ञान होगा। बिना सत्संग के सद्ज्ञान नहीं होता। ईश्वर तो हैं, लेकिन कितने को विश्वास ही नहीं है। कहते हैं-ईश्वर होते तो ऐसा-वैसा क्यों होता, इस तरह की बातें सामने क्यों आतीं।
महात्मा गाँधीजी के वचन में आया है-कोई सात बहनें थीं। उनमें एक मर गई। अब सात तो रही नहीं, छह रहीं। फिर भी वे कहती थीं, हम सातों के सातों बहनें हैं। लोग कितना भी समझावे कि एक मर गई है। अब तुम लोग छह बहनें हो, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं होतीं। महात्मा गाँधीजी कहते हैं, उसी तरह कोई आदमी मुझको तर्क करके, बातचीत करके हरा दे, हम उनके वाक्-जाल से हार भी जाएँगे; लेकिन हम यह नहीं कहेंगे कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर है, यही कहेंगे। कोई कहते हैं, ‘नहीं है।’ क्यों कहते हैं, ‘ईश्वर नहीं है?’ इसलिए कि उन्होंने देखा नहीं है। जिन्होंने देखा नहीं है, वे कहते हैं-नहीं है। जो संत लोग हो गए हैं, उन्होंने देखा है, इसलिए वे सदा विश्वास रखते हैं। वह कैसा है? गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।”
वह सत्य है, उस सत्य पर अपने को न्योछावर कर दो। सूर्य उगा हुआ है। सूर्य का प्रकाश हम देख रहे हैं, लेकिन जो अंधा होता है, उसको सूर्य नहीं दीखता है। वह कहता है-‘सूर्य नहीं है।’ अगर अंधा कहता है-‘सूर्य नहीं है’, तो जो सूर्य देखता है, वह क्या कहेगा कि सूर्य नहीं है? उसी तरह जो ईश्वर को देखते हैं, वे कहते हैं-‘ईश्वर है’ और जो नहीं देखे हैं, वे कहते हैं-‘नहीं है।’ रात को कोई दिन कह दे और दिन को रात कह दे, तो क्या वैसा हो जाएगा?
दिन के दोपहर का समय था, गर्मी खूब लग रही थी। पेड़ पर एक उल्लू बैठा था। इतने में एक हंस उड़ता हुआ आया। वह भी उसी डाल पर बैठ गया, जिस डाल पर उल्लू था। हंस ने कहा-‘आज सूर्य इतना गर्म हो रहा है, उसका प्रकाश इतना तेज है कि बर्दाश्त नहीं हो रहा है।’ उल्लू ने सूर्य को कभी देखा था नहीं। वह कहने लगा-‘तुम कहाँ से आए हो जी, कहाँ है सूर्य? बेवकूफ! किसने कहा सूर्य होता है? अरे! गर्मी तो बढ़ती है, जाड़ा के कारण से। किसी ने तुमको बहका दिया है कि सूर्य के कारण गर्मी होती है।’ हंस ने समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उल्लू मानने को तैयार नहीं हुआ। उल्लू ने कहा-‘शर्त रखो, मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो हमारे जाति-भाई लोग थोड़ी दूर पर जंगल में हैं, वहाँ चलो। वे लोग तुमको बतला देंगे कि सूर्य है कि नहीं।’ हंस उसके साथ-साथ वहाँ गया, जहाँ उनलोगों का डेरा था। वहाँ घना अँधेरा था। कुछ सूझता नहीं था। वहाँ बहुत-से उल्लू बैठे हुए थे। उल्लू ने अपने कुटुम्बियों से कहा-‘देखो भाई! यह जो हंस आया है, कहता है कि सूर्य है और उसके ताप से गर्मी होती है।’ सभी उल्लू एक साथ बोल उठे-‘कौन कहता है?’ उस उल्लू ने कहा-‘इसने।’ सभी उल्लुओं ने कहा-‘मारो इसे, भगाओ यहाँ से। अरे! सूर्य है ही नहीं। सूर्य नाम की कोई चीज होती नहीं है, ताप कहाँ से आएगा, गर्मी कहाँ से आएगी। जाड़ा के कारण गर्मी होती है। इसको मारकर जल्दी भगाओ, नहीं तो यह सबकी बुद्धि खराब कर देगा।’ सब उसको मारने के लिए टूट पड़े। बेचारा हंस उड़ते हुए जान बचाकर भाग चला दूसरे जंगल की ओर। जब प्रकाश में आया, तो सभी उल्लुओं ने हंस का पीछा छोड़ दिया।
उसी तरह से जो अज्ञानी है, उसको किसी तरह कितना भी ज्ञान सिखाइए, फिर भी वह नहीं समझेगा। जो ईश्वर को देखा नहीं है, वह कैसे समझेगा? जैसे स्थूल जगत् को देखने के लिए स्थूल दृष्टि चाहिए, उसी तरह सूक्ष्म जगत् को देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि चाहिए और परमात्म-दर्शन के लिए आत्म-दृष्टि चाहिए।
बिना आत्म-दृष्टि के परमात्म-दर्शन नहीं हो सकता और वह आत्म-दृष्टि होती है, ध्यान करने से। बड़ी-बड़ी मछलियाँ समुद्र के अंतस्तल में रहती हैं, जो कभी ऊपर नहीं आतीं। छोटी-छोटी मछलियाँ समुद्र की ऊपर सतह पर घूमती रहती हैं। जो समुद्र की सतह के ऊपर-ऊपर घूमती हैं, वह स्वच्छाकाश को देखती हैं; लेकिन जो गहरे अंतस्तल में बसती हैं, वे कभी स्वच्छाकाश को नहीं देखतीं। जो स्वच्छाकाश को नहीं देख पाती है, वह तो यही कहेगी-आकाश नहीं होता है, जल-ही-जल होता है। उसी तरह से जो अज्ञानी लोग हैं, वे माया को देखते हैं। माया को ही बढ़ाने के लिए दिन-रात विषयों में लगे रहते हैं। माया से परे भी सत्य है, उसे पता नहीं लगता, वह समझ नहीं पाता। माया से परे परमात्मा है। अगर कोई इस विषय में उन्हें समझाते हैं, तो वे समझना ही नहीं चाहते। ‘सो बिनु संत न काहू पाई’ जबतक संत नहीं मिलेंगे, तबतक सत्य वस्तु को नहीं समझ सकेंगे। इसलिए संत का संग करना चाहिए। सत्संग करना चाहिए। अपना आचरण पवित्र रखना चाहिए। स्वावलम्बी जीवन जीते हुए जहाँ तक बन सके दूसरे का उपकार करना चाहिए। हमारे गुरुदेव के वचन में है-
“ जीवन बिताओ स्वावलम्बी, भरम भाँडे़ फोड़िकर ।
संतों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’, माथ धर छल छोड़िकर ।।”

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 16-04-2006 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संसार में असंख्य प्राणी जन्म लेते और मरते हैं; परन्तु हम सबकी जयन्ती नहीं मनाते है। जयन्ती महापुरुषों की मनायी जाती है। आज वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को जिनकी जयन्ती मनाने के लिए हमलोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं, वे कौन थे? हमारे गुरुदेव हमलोगों के जैसे साधारण मानव नहीं थे, वे महामानव थे। नररूप में वे हरि थे। हरि ही नहीं, हरि से भी विशेष थे-संत। स्वयं हरि (श्रीराम) ने शबरी जी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए कहा था-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।”
अपने से विशेष को संत बतलाते हैं। संतवाणी पढ़ने पर भी यही बात सामने आती है कि सबसे बडे़ संत ही हैं।
संत पलटूदासजी अयोध्याजी में हुए, उन्होंने कहा-
“ सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार उन्हें प्रणाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार है ।
अरे हाँ रे पलटू, सबके ऊपर संत
मुकुट सरदार है ।।”
किसी ने जिज्ञासा की कि आपने यह बात कैसे कही? अंधेरे में टटोलकर कही या इसका कुछ आधार भी है? उसका उत्तर देते हैं-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तेंतीस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।”
हमारे गुरुदेव संत ही नहीं, संत सद्गुरु थे। संत सद्शिक्षा देते हैं और जो संत सद्गुरु होते हैं, वे सद्शिक्षा के साथ-साथ प्रभु-प्राप्ति की दीक्षा भी बतलाते हैं।
आज हमारे गुरुदेव का पार्थिव पिंड नहीं है, वे स्वदेश चले गये हैं और विदेश वासियों के लिए संदेश के रूप में कुछ उपदेश दे गये हैं। उन्होंने ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति की युक्ति दिया है। उन्होंने बतलाया कि सबका ईश्वर एक है और ईश्वर पाने का रास्ता भी एक ही है। जिनको संतों और संतवाणी का संग नहीं हो पाया है, वे कहते हैं, ‘जैसे दिल्ली जाने के लिए चारो ओर से रास्ता है, उसी भाँति से ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। लेकिन नहीं, ईश्वर के पास जाने का एक ही मार्ग है और वह है अंतरमार्ग। मानवकृत मार्ग परिवर्तनशील होता है, पर ईश्वरकृत मार्ग अपरिवर्तनशील होता है। दिल्ली तक जाने का मार्ग मानवकृत है; लेकिन परमात्मा तक जाने के लिए ईश्वरकृत मार्ग है। परमात्मा ने आँख से देखने का, कान से सुनने का, नासिका वायु ग्रहण करने का, मुँह से भोजन करने का, नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करने का एक-एक मार्ग बनाया, यह मार्ग अटल है।
रूप देखने के लिए आँख के अतिरिक्त और इन्द्रियाँ काम नहीं कर सकतीं। भोजन ग्रहण के लिए एक मार्ग मुँह है, मुँह से ही भोजन कर सकते हैं। सुनने, गंध और मल-मूत्र विसर्जन के लिए एक-एक मार्ग नियुक्त है। उसी तरह परमात्मा के पास जाने का एक ही मार्ग नियुक्त है। कुरान शरीफ के सूरे फातिहा में लिखा है, ‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ वह ‘सीधा रास्ता’ कौन-सा है? ईश्वर के पास जाने का सीधा रास्ता कहाँ से आरंभ होता है और कहाँ पर अंत होता है-यह जानना आवश्यक है। वेद कहता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
नान्यो पन्थाः, न अन्यः पन्था। और दूसरा कोई रास्ता नहीं। उस ईश्वर को पाने के लिए एक ही रास्ता है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
परमात्मा को पाने का रास्ता सुषुम्ना से आरंभ होता है, वही सीधा रास्ता है। वे कहते हैं, ‘इधर- उधर क्यों घूमते हो, वह तुम्हारे अंदर है।’ गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कस्तुरी कुण्डल बसै, मृग ढूढै़ बन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानत नाहिं ।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साहब तुझ में, अनत कहीं मत जाय ।।”
गो0 तुलसीदासजी महाराज अपना अनुभव कहते हैं-
“ एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगन्ध कहाँ तें आयो ।।”
कस्तूरी मृग की नाभि में रहती है; लेकिन वह जहाँ-तहाँ ढूँढता है कि सुगन्धि आई कहाँ से? गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल आदि में खोजने से उसे सुगंधि कहीं नहीं मिलेगी। उसी तरह सर्वव्यापी परमात्मा को खोजने के लिए अंदर चलो, तब वे मिलेंगे, अन्यथा जीवन भर बाहर में भटकते रह जाओगे।
एक नवाब था। एक दिन उसने अपने काजी से पूछा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या करते हैं और किधर देखते हैं?’ काजी साहब ने उत्तर दिया, ‘मैंने तो केवल न्याय की पुस्तकें पढ़ी हैं। इन प्रश्नों का उत्तर कैसे दूँ?’ नवाब ने कहा, ‘तुमको एक सप्ताह का समय दिया जाता है। इसके अंदर उत्तर नहीं दोगे, तो दंडित होओगे।’ बेचारे चिंतित हुए कि अब क्या करें, किनसे पूछें? परेशान होकर बिछावन पर आकर लेट गये। उनका एक नौकर था-पाजी। पाजी ने काजी से पूछा, ‘आप चिंतित क्यों हैं?’ काजी बोला, ‘कारण जानकर क्या करोगे?’ पाजी ने उत्तर दिया, ‘हाँ, मैं समाधान कर सकता हूँ।’ नवाब के दिए हुए प्रश्नों को काजी ने पाजी के सामने रखा। पाजी ने कहा, ‘इसका उत्तर तो सरल है। आप नवाब के नाम से एक खत लिख दीजिए कि मैं जाने में असमर्थ हूँ। मेरा नौकर पाजी आपके पास जा रहा है, यह आपको उत्तर देगा।’ काजी ने पत्र लिख दिया, जिसे लेकर पाजी नवाब के पास गया। नवाब ने पत्र पढ़कर पूछा, ‘तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर दोगे?’ पाजी ने कहा, ‘हाँ, मैं उत्तर दूँगा।’ दरबार लगा हुआ था। नवाब ने कहा, ‘उत्तर देना शुरू करो।’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! आप भी विचित्र आदमी हैं। जो प्रश्न पूछता है और जो उत्तर देता है, दोनों के बैठने के स्थान में अंतर होना चाहिए। मैं उत्तर दूँगा, इसलिए हमको ऊपर बैठाइए।’ नवाब साहब ने सोचा, थोड़ी ही देर में इसकी जान जाएगी ही, थोड़ी देर के लिए अपनी ही गद्दी पर बैठा देता हूँ। जहाँ पर काजी बैठते थे, वहाँ नवाब साहब स्वयं बैठ गये। पाजी ने निवेदन किया, ‘हुजूर! आपने प्रश्न तो काजी से किया था, उन्हें भी बुला लीजिए, तो अच्छा होगा।’ काजी को बुला लिया गया। काजी की जगह नवाब बैठा था। काजी नीचे पाजी की जगह बैठ गया। अब पाजी बोला, ‘नवाब साहब! एक धेनू गाय मँगाइए। उसके साथ बछड़ा और दूहनेवाला गोपाल भी हो।’ नवाब के आदेश से गाय, बछड़ा और दूहनेवाला उपस्थित हो गया। पाजी ने कहा, ‘कहिए, आपका प्रश्न क्या है?’ नवाब ने कहा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या कहते हैं और किधर देखते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘एक मोमबत्ती मँगाकर उसे जलाइए।’ मोमबत्ती जलाई गयी। पाजी ने पूछा, ‘नवाब साहब! इसका प्रकाश किधर जाता है?’ नवाब, ‘इसका प्रकाश चारो तरफ जाता है।’ पाजी, ‘इसी प्रकार खुदा चारो तरफ देखते हैं।’ अब पाजी ने गोपाल से गाय दूहने कहा। गाय दूहने के बाद दूध अपने पास मँगा लिया। नवाब ने कहा, ‘दूध तुम अपने पास मँगा रहे हो, गायी मँगायी गयी थी तुम्हारे लिए? मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब दो।’ पाजी ने कहा, ‘वही जवाब तो मैं दे रहा हूँ। देखिए, गाय का दूध मिलता है गाय के थन से। गाय का थन तो छोटा है; लेकिन इससे दस किलो दूध उसी थन में था? नहीं, दूध गाय के संपूर्ण शरीर में था और जब दूहा गया, तो उसके थन से ही दूध निकला। उसी तरह खुदा सब जगह हैं; लेकिन खुदा जब भी मिलेंगे, तो अपने अंदर ही मिलेंगे।’ नवाब ने पूछा, ‘अच्छा, बतलाओ वे क्या करते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! क्या बतलाऊँ, खुदा क्या करते हैं, यह भी पूछने की बात है! आप स्वयं अपनी आँखों से देख रहे हैं, जो पाजी था, उसको नवाब बना दिया; जो नवाब था, उसको काजी बना दिया और जो काजी था, उसको पाजी बना दिया। खुदा क्या नहीं कर सकते हैं?’
कहानी कहने का तात्पर्य यह कि परमात्मा सबके अंदर हैं, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। हमलोग शास्त्र में पढ़ते हैं, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमयः।’-हे प्रभु! हमको अंधकार से प्रकाश में ले चल। ‘असतो मा सद्गमय’-असत् से सत् में ले चल। ‘मृत्योर्मा अमृतगमय’-मृत्यु के मुख से निकाल अमृतत्व लाभ करा। इन शब्दों का मिलान करके देखिए, कितना सजा हुआ है। एक ओर तमस् (अंधकार) है, दूसरी ओर प्रकाश है। शास्त्र कहता है, ‘जबतक अंधकार में रहोगे, तबतक असत् में रहोगे और तबतक मृत्यु के मुख में रहोगे। जब तुम अंधकार से प्रकाश में जाओगे, तो असत् से सत् में जाओगे और मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व लाभ करोगे।’ लोग कहते हैं, ‘हम तो प्रकाश में ही हैं, अंधकार में कहाँ हैं?’ लेकिन विचार कर देखिये कि आपका शरीर प्रकाश में हैं या आप प्रकाश में हैं? आप शरीर के भीतर हैं, बाहर में नहीं हैं। बाहर की चीजों को आँखें खोलकर देखते हैं, भीतर की चीजों को देखने के लिए क्रिया उलट दीजिए अर्थात् आँखें बंद करके देखिए। जब आँखें बंद करके देखते हैं, तो अंधकार मालूम पड़ता है। इससे पता चलता है कि हम अंधकार में बैठे हुए हैं। अंधकार में कुछ सूझता नहीं है। इस कारण भूल-भरम होता रहता है। एक संत हुए राधास्वामी साहब, उन्होंने कहा-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
जबतक नव द्वार में रहेंगे, तबतक अंधकार में रहेंगे। जबतक हम अंधकार में रहेंगे, तबतक ‘भूल भरम हर बार’ होता रहेगा, जब नव द्वार से दसवें द्वार में जाएँगे, तब अंधकार से प्रकाश में जाएँगे। अनुचित कर्म के लिए मन में सोचते हैं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए। लेकिन मौका पाकर वह काम कर लेते हैं, क्यों? इसलिए कि हम अंधकार में हैं अर्थात् अज्ञानता में हैं। अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँगे? श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 8/9 में है-
“ कविं पुराणमनुसासितारमणोरनियां समनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।”
अंधकार से परे प्रकाश है। अंधकार से प्रकाश में जाओ। हमलोग जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में प्रतिदिन जाते-आते रहते हैं। जिस समय जाग्रत में रहते हैं, उस समय स्वप्न और सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब स्वप्न में जाते हैं, तो जाग्रत, सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब सुषुप्ति में जाते हैं, तो जाग्रत और स्वप्न का ज्ञान नहीं रहता है अर्थात् जिस अवस्था में रहते हैं, उसी अवस्था का ज्ञान रहता है। इसलिए अज्ञान की अवस्था से ज्ञान की अवस्था में अपने को ले चलो।
आँखें बंद करने पर जो अंधकार मालूम पड़ता है, उसी अंधकार में प्रकाश तक जाने का रास्ता है। वह रास्ता कौन बतावेगा? तो संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
जो पहुँचे हुए संत-महात्मा हैं, उनके पास जाओ। वे शहरग अर्थात् सुषुम्ना का बतलाएँगे। उसको छठा चक्र और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। उसका नाम ही आज्ञाचक्र है। जो उस चक्र में पहुँचते हैं, वहाँ उसको प्रभु की आज्ञा मिल जाती है कि अब हमारी आ जाओ। जबतक हम आज्ञाचक्र में नहीं जाते, तबतक आने की आज्ञा नही होती। जब सुरत दसवें द्वार में जाएगी, तब आज्ञा मिलेगी। संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ सहस कँवल चढ़ त्रिकुटी धाओ,
भँवरगुफा सतलोक निहार ।
अलख अगम के पार सिधारो,
राधास्वामी चरण सम्हार ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहिअै सोई ।’
केवल जोगी का वेश बना लेने से कोई योगी नहीं होता। जो अपनी दृष्टि को एक कर पाता है, वही असली योगी है। बाइबिल में लिखा है, ‘यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियारा होगा और अगर तेरी आँख बुरी है, तो देखो तुम्हारे अंदर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’ अंधकार के साम्राज्य को जो पार करेंगे, उसी को प्रकाश मिलेगा। दृष्टियोग की साधना से अंतःप्रकाश मिलता है और जिसको अंतःप्रकाश मिल जाता है, उसे नादानुभूति होती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ नाद से नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार ।।”
जो अंतःप्रकाश को पाता है, उसे अंतर्नाद सुनाई देता है। वह अंतर्नाद परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है; क्योंकि नाद में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है। अंधेरी रात हो, आप एक जगह खड़े होकर तू-तू की आवाज दीजिए, कुत्ता आपकी आवाज सुनकर आपके पास आ जाएगा। जो परमात्मा की ओर से ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव ध्वनि की आवाज आ रही है, उस आवाज को आप सुनेंगे, तो आप किधर जाएँगे? परमात्मा की आवाज सुनकर परमात्मा के पास जाएँगे। इसके लिए घर-वार, परिवार-रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-वार, परिवार, रोजगार में रहकर भी इस साधना को कर सकते हैं। यह सरल और सुगम साधना है। जैसे कोई रोगी डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर साहब रोग के अनुसार दवाई लिख देते हैं और परहेज भी बतला देते हैं; उसी तरह प्रभु पाने का रास्ता तो मिल गया, इसके लिए संयम भी आवश्यक है। गुरु महाराज संयम बतलाते हैं,‘ झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो, परस्त्री-परपुरुष गमन नहीं करो। इन पंच पापों से बचते रहो, तब क्या होगा? गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ सूचै भाड़ै साँचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जब हृदय पवित्र होगा, तब परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होगी। वेद कहता है कि संसार में सभी मेल से रहो, प्रेम से बातचीत करो। यहाँ जात-पात की कोई बात नहीं है।
“ जाति पाँति पूछै नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।”
‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई। जैन बौद्ध सब भाई-भाई।।’ परमुखापेक्षी मत बनो। अपने जीवन- यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। यह संतमत का थोड़ा सार आपलोगों के सामने कहा। आपलोग दूर-दूर से कष्ट झेलकर यहाँ आए हुए हैं। मैं सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और सबकी मंगलकामना करता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक
15-05-2006 ई0 को महर्षि मेँहीँ जयन्ती के उपलक्ष्य में आयोजित सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून 2006 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
बरसात का मौसम था। एक जैनाचार्य अपने आश्रम में शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। आचार्य ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘बताओ, बारह में से चार निकल जाए, तो कितना बचता है?’ एक शिष्य को छोड़कर सभी शिष्यों ने एक स्वर से कहा, ‘आठ बचता है।’ आचार्य ने चुप बैठे शिष्य से पूछा, ‘तुम चुपचाप हो, जानते नहीं कि बारह में से चार निकल जाने पर कितना बचता है?’ उस शिष्य ने कहा, ‘आचार्यदेव! बारह में से चार निकल जाने पर आठ बचता है। यह तो बच्चा भी जानता है; लेकिन जब हम वयस्कों से पूछ रहे हैं, तो आपके पूछने का अर्थ कुछ और होगा! इसलिए हम चुप होकर बैठे हुए हैं।’ आचार्य ने पूछा, ‘तुम इसका अर्थ क्या समझ रहे हो?’ उस शिष्य ने कहा, ‘आचार्यदेव! बारह में से चार निकल जाने पर कुछ भी नहीं बचता है।’ जितने शिष्य थे, सब एक-दूसरे का मुँह देखने लग गए। आचार्य ने पूछा, ‘अच्छा, बारह में से चार निकल जाने पर कुछ भी नहीं बचता है, यह कैसे, सो बताओ?’ शिष्य ने कहा, ‘आचार्यदेव! हमलोग भिक्षाटन में जीवन-यापन करते हैं। आठ महीने हमलोग भिक्षाटन करते हैं और बरसात में दिनों में चार महीने कहीं जा नहीं पाते हैं। जब हमलोग भिक्षाटन करते हैं, तो बहुत लोगों से संपर्क होता है, बहुत तरह की बातें दिमाग में आती हैं। भजन करने के लिए बैठते हैं, तो भिन्न-भिन्न तरह की बातें मन में आती रहती हैं। भिक्षाटन करते हुए भजन करने में कठिनाई होती है। आपका कहने का मतलब यह है कि बरसात के इन चार महीने तुमलोग कहीं जाओगे नहीं। इसलिए बैठ करके भजन करो। अगर चार महीने भजन नहीं किया, तो तुम्हारा बारहो महीने बेकार चले जाएँगे।’
यही हालत हम प्रवचनकर्ताओं की भी है। हमलोग प्रवचन करने के लिए जाते हैं। सोचते हैं कि आज इस विषय पर कहना है। जब ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो उसी विषय का चिंतन होता रहता है। इस तरह ध्यान नहीं बनता है। कहावत है कि ‘बैठे चूत, तब निकले सूत।’ जबतक शान्त-एकान्त में स्थिर होकर नहीं बैठेंगे, तबतक भगवद्भजन नहीं होगा। इसलिए जब हमलोगों के सामने चातुर्मास हो, उसमें बैठकर भजन करना चाहिए।
चातुर्मास को कोई आषाढ, श्रावण, भादो से आश्विन तक लेते हैं और कोई ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण और भादो लेते हैं। भजन करने के विषय में हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ जेठ मन को हेठ करिये, मान मद बिसराइये ।
गुरु सद्गुरु पद सेव करि करि, कठिन भव तरि जाइये ।।”
मन को हेठ करिये अर्थात् अपने को अहंकार-रहित, विनम्र बनाइए। मन में जो उग्रता है, उसको शांत करिये। जबतक उग्रता रहेगी, तबतक भजन नहीं बनेगा। जबतक घट में घोर अंधकार है, तबतक अपार दुःख है। इसलिए इस दुःख से हमें छूटना है। कैसे छूटेंगे? ‘गुरु सद्गुरु पद सेव करि करि, कठिन भव तरि जाइए।’
“ आषाढ़ गाढ़ अंधार घट में, जातें दुःख अपार है ।
गुरु-कृपा तें भेद लहि तम, तोड़ि दुःख निवारिये ।।
सावन सुखमन दृष्टि आनत, दामिनि छिन-छिन दमकई ।
हील डोल तजि सुरत थिर करि, प्रणव तार उगाइये ।।
भादो भव दुख छोड़ि चलिये, जोति छेदि पड़ाइये ।
सारशब्द में लीन होइ कर, ‘मेँहीँ’ गुरु-गुण गाइये ।।”
दृष्टि जो ऊपर-नीचे दायें-बायें होती हैं, उसको स्थिर करिए। तब क्या होगा? ‘प्रणव तार उगाइए’- अपने अंदर में प्रणव तार उगेगा। तारा मिलेगा और शब्द भी मिलेगा। तब ‘भादो भव दुख छोड़ि चलिये’, यदि हमारा मन विषयों की ओर जाता है, तो उस तरफ से अपने मन को समेटकर भगवद्भजन में लगाइए, तब मन शान्त होगा।
चौबीस घंटे में आठ पहर होते हैं-चार पहर रात और चार पहर दिन। दिन के चार पहरों में लोग अपने कार्यों में व्यस्त रहते हैं, उसमें क्या भजन होगा? रात के चार पहरों में एक पहर तो खाने-पीने में ही बीत जाता है। बाकी जो बचे हुए तीन पहर हैं, उनमें किसी-न- किसी पहर में जगकर भजन करो। किसी ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ प्रथम पहर जागे सबै, पहर दूसरे भोगी ।
चोर जगे तीजे पहर, चौथे पहर जोगी ।।”
पहले पहर में सब लोग जगे रहते हैं, दूसरे पहर में भोग-विलास करनेवाले जगते हैं। जब भोग-विलासवाले सो जाते हैं, तब तीसरे पहर चोरी करने के लिए चोर जगता है; लेकिन जो साधु- महात्मा होते हैं, वे चौथे पहर ब्राह्ममुहूर्त में उठकर योग करते हैं। श्रीमद्भागवत में लिखा है-
“ ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।”
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।
कतिपय सज्जन का कथन है-तीन पहर कहने का मतलब-बाल, युवा और जरा। बालपन में भजन होगा नहीं और जरापन में रोग सताएगा। जवानी में नहीं करेंगे, तो कब करेंगे? कोई तीन पहर का अर्थ लगाते हैं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथे पहर का अर्थ तुरीय लगाते हैं। तीन अवस्थाओं को पार कर चौथी अवस्था में जाओ अर्थात् तुरीय में जाओ और भजन करो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ तीन अवस्था-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति को छोड़ो और चौथी अवस्था में जाओ, तब मन-कर्म-वचन अगोचर प्रभु मिलेंगे। बंगला में एक भजन है-
‘तीन दिन परे त्रिगुणेर परे स्त्रोतेर जले ते डूबिल प्रतिमा ।’
दशहरा-दुर्गापूजा में सप्तमी, अष्टमी और नवमी; तीन दिनों तक पूजा होती है और दसमी दिन मूर्ति का विसर्जन करते हैं। ‘तीन दिन परे’ कहने का मतलब है, अपने को तीन गुणों से पार करो। सत्, रज और तम; तीनों से अपने को ऊपर उठाओ। जबतक हम बायीं वृत्ति में रहेंगे, तबतक तमोगुण में रहेंगे़ जब दायीं वृत्ति में रहेंगे, तब रजोगुण में रहेंगे। जब मध्य की धारा में रहेंगे, तब सतोगुण में रहेंगे। न रजोगुण में भजन होगा और न तमोगुण में भजन होगा। भजन होगा, तो सतोगुण में होगा। रजोगुणी में चंचलता रहती है, तमोगुणी में मूढ़ता रहती है और सतोगुणी में स्थिरता रहती है।
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।”
दाएँ-बाएँ को छोड़ो। कबीर साहब ने कहा-
अगल बगल को मारि उड़ाये, सनमुख डगर धारी ।
तेरो को है रोकन हार, मगन से आव चली ।।
रजोगुणी और तमोगुणी; यह खैबर और बोलन घाटी है। आर्यलोग खैबर-बोलन घाटी को पार करके भारत आए थे। यही इड़ा और पिंगला साधक के लिए खैबर और बोलन घाटी है। जबतक इस घाटी को पार नहीं करेंगे, तबतक आर्यदेश अर्थात् आज्ञाचक्र में नहीं पहुँचेंगे, दसवें द्वार में नहीं जाएँगे। इसलिए मध्यवृत्ति को पकड़ो। एक संत हुए चरणदासजी महाराज, उन्होंने कहा-
“ दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
तन काम में, मन राम में लगाकर रखो। महाभारत के समरक्षेत्र में अर्जुन खड़े थे, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध्य च ।’
(गीता 8/7)
अर्जुन! युद्ध भी करो और मेरा स्मरण भी करो। स्मरण करोगे, तो सहायता मिलेगी।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा- बंगाल में एक बाउल सम्प्रदाय के साधु होते हैं। वे एक हाथ से तम्बूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुँह से गाना भी गाते हैं। उसी तरह तुम भी दोनों हाथों से संसार के कामों को करो और मुँह से भगवान का नाम भी लिया करो, चूको मत। यही है ‘दिन में हरि सुमिरण करो, रैणि जागि कर ध्यान।’ रात में जगकर ध्यान करो। कब करो, कैसे करो? कहते हैं-‘चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।’ चारो पहर नहीं जग सकोगे; क्योंकि दिन में काम-धंधे को करके थक जाते हो, इसलिए आधी रात को जगो। वर्णात्मक नाम का जप करो और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करो। अब कहते हैं-‘जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।’ दोपहर रात्रि में जगकर ध्यान नहीं कर सको, तो ‘पिछले पहरे चेत’। चौथे पहर रात में जगो और ‘उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।’ लेकिन उस चौथे पहर में भजन नहीं करते हो, तो पाप लगेगा। ‘जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप । मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।’ जिनको साधना की क्रिया मालूम है, अगर वह नहीं करता है और सोया रहता है, तो उसके लिए कहते हैं-‘ताकूँ लागै पाप’ इसलिए पिछले पहर में जगकर भजन अवश्य करो।
“ या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।”
-गीता 2/69
जिस समय सब सोते हैं, उस समय संयमी लोग जग करके ध्यान करते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा, ‘जो ध्यान करनेवाले होते हैं, वे रात में बैठकर ध्यान करते हैं, लोग समझते हैं कि वे सोए हुए हैं। लेकिन वे तो मसहरी में बैठकर ध्यान करते हैं।’
जिनको इसकी लत (आदत) लग जाती है, उनका प्रेम बढ़ जाता है, वे उसमें पिल पड़ते हैं। वैसे तो दिन काटने के लिए सब करते ही हैं, पर इससे काम चलने को नहीं है। जबतक उसमें पिलेंगे नहीं, तबतक सफलता नहीं मिलेगी। गुरु महाराज के वचन में आया है-
“ आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा ।
मन-निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा ।।”
यहाँ हटने की बात नहीं है, डटने की बात है और वीर बनने के लिए कहा गया है। मन चंचल है, इसका निग्रह करना बहुत कठिन है। जब जप करने के लिए बैठते हैं, तो मन में कितनी बातें किधर- किधर से आती हैं, ठिकाना नहीं। बैठते हैं जप करने के लिए, करने लग जाते हैं गप। गप में मन ऐसा जुड़ जाता है कितना समय निकल जाता है, पता नहीं चलता। जब ध्यान से उठते हैं, देखते हैं कि इतना समय तो गप में ही बीत गया।
एक सज्जन बड़े अच्छे थे। उनका नाम बाबू बलराम सिंह था। वे बनमनखी कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल थे। गुरु महाराज से उन्होंने दीक्षा ली थी। जब गुरु महाराज धरहरा गए, तो वे उस समय बनमनखी में ही थे। बलराम बाबू गुरु महाराज के दर्शन करने आए और प्रणाम करके बैठ गये। गुरु महाराज पूछते हैं, ‘बलराम बाबू! आपने जो भजन-भेद लिया है, भजन करते हैं न?’ थोड़ी देर चुप रहकर कहते हैं, ‘जी हाँ, भजन-भेद तो लिया था, कुछ दिन भजन किया, इसके बाद भजन करना छोड़ दिया।’ गुरु महाराज ने पूछा, ‘क्यों?’ बलराम बाबू बोले, ‘क्या कहूँ, जिस समय ऑफिस में लिखने-पढ़ने का काम में रहता हूँ, तो उस समय मन में कोई बात नहीं आती है; लेकिन जब ध्यान करने के लिए बैठता हूँ, तो न मालूम किस-किस जमाने की बातें याद आती हैं। ऐसी-ऐसी पुरानी बातें याद आती हैं कि कहने योग्य नहीं। इसलिए मन में हुआ कि जब ध्यान करने के लिए बैठता हूँ, तभी बुरी-बुरी बातें याद आती हैं, तो ध्यान करना ही छोड़ दो। इसलिए छोड़ दिया।’ गुरु महाराज बोले, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए। देखिए जब गंदगी हट जाती है, तब मन साफ हो जाता है।’ तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ बरसा ऋतु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास ।
राम नाम वर वरन युग, सावन भादो मास ।।”
ईश्वर की जो भक्ति है, वर्षा ऋतु के समान है। वर्षा ऋतु में गंगाजी का पानी कितना अपवित्र बहता है, उसमें कीचड़ मिला रहता है। साफ कपड़े पहननेवाले जब स्नान करने के लिए जाते हैं, तो उस कपड़े को उतारकर गंगा के किनारे रख देते हैं और तौलिया लपेट लेते हैं, तब स्नान करते हैं। बाढ़ के समय गंगा में घास भी बहती है और लाश भी बहती है; लेकिन जो गंगा का प्रेमी है, वह हाथ से घासों को हटाकर डुबकी लगाता है। श्रावण-भादो के बाद जब आश्विन-कार्तिक महीना आता है, तो जल साफ हो जाता है। उसी तरह ध्यान के आरंभ में ऐसा होता ही है। मन में जितनी गंदी बातें आती हैं, उनको हटा-हटाकर भजन में लगाइए।
शाम का समय था। मैं गुरु महाराज को प्रणाम करके टहलने के लिए जाने लगा, तो बलराम बाबू कहते हैं, ‘बाबा! मैं भी आपके साथ टहलने के लिए चलूँ?’ मैंने कहा, ‘चलिए।’ सिकलीगढ़ धरहरा सत्संग-मंदिर की दक्षिण तरफ बहुत बड़ा आम का बगीचा है। बगीचा में हमलोग टहलने लगे, तब मैंने बलराम बाबू से कहा, ‘बलराम बाबू! आपने तो बड़ा गजब किया।’ बलराम बाबू बोले, ‘क्या हो गया?’ मैंने कहा, ‘आप तो जानवर को पढ़ा-लिखाकर आदमी बना देते हैं, ज्ञानवान बना देते हैं। आप तो सबको समझाते-बुझाते हैं, आपको कौन समझावेगा। आपने भजन-भेद लिया और थोड़े दिनों तक करके छोड़ दिया, यह तो ठीक नहीं हुआ।’ उन्होंने कहा, ‘बाबा! क्या बताऊँ। झूठ तो कभी बोलना ही नहीं चाहिए; लेकिन कभी-कभी हमलोगों के मुँह से झूठ निकल जाता है। जहाँ गुरु महाराज पूछ रहे हैं, तो गुरु महाराज से झूठ कैसे कहता? इसलिए जो बात सत्य थी, मैंने बता दी।’ मैंने कहा, ‘बलराम बाबू! एक बात बताइए, आपने कभी अपने से कपड़ा साफ किया है?’ वे बोले, ‘आजकल तो नहीं, जब विद्यार्थी था, तो बहुत बार अपने से कपड़ा धोता था।’ मैंने कहा, ‘किस तरह साफ करते थे?’ उन्होंने कहा, ‘किस तरह करेंगे? कपड़े को पानी में भिंगो दिया, साबुन घिस दिया और पानी से धो दिया, कपड़ा साफ हो गया।’ मैंने कहा, ‘जिस समय साबुन लगाकर कपड़ा धोने लगते हैं, उस समय उससे कुछ निकलता भी है?’ उन्होंने कहा, ‘हाँ, मैल निकलती है, गंदगी निकलती है।’ मैंने कहा, ‘उलटी बात हो गयी न!’ वे बोले, ‘कैसे?’ मैंने कहा, ‘आप तो चले थे कपड़ा साफ करने के लिए और निकलने लग गयी गंदगी; यह बात तो ठीक नहीं हुई।’ बलराम बाबू बोले, ‘गंदगी नहीं निकलेगी, तो कपड़ा साफ कैसे होगा?’ मैंने कहा, ‘उसी तरह जब भजन करने बैठते हैं, तो मन में जो गंदगी है, वह नहीं निकलेगी, तो मन साफ कैसे होगा? भजन कैसे बनेगा? इसलिए जो गंदगी निकलती है, निकलने दीजिए।’ बलराम बाबू बोले, ‘बाबा! अच्छा, अब मैं अवश्य ध्यान करूँगा।’
सबको ध्यान करना चाहिए। मन भागता है, समेटकर लक्ष्य पर लगाना चाहिए। यह प्रत्याहार है। जो प्रत्याहार में हार जाएगा, उसकी धारणा कभी नहीं हो सकती है। जिसकी धारणा नहीं होगी, उसका ध्यान क्या होगा? कबीर साहब ने कहा, ‘मन तू थकत थकत थकि जाई’। अरे मन! तुम जड़ हो और मैं चेतन हूँ। एक दिन मन को थकना पड़ेगा। इसलिए हिम्मत नहीं हारिये, सफलता अवश्य मिलेगी।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक
11-06-2006 ई0 को अपराह्णकालीन साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अगस्त 2006 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आज आषाढ़ की पूर्णिमा है, इसे लोग गुरु-पूर्णिमा भी कहते हैं। ऐसा इसलिए कि आज के ही दिन इस धराधाम पर एक महान गुरु व्यासदेवजी महाराज का अवतरण हुआ था। वे बहुत बड़े विद्वान थे। विदेशों में भी उनकी ख्याति फैली हुई थी। एक बार उनको शास्त्रर्थ के लिए विदेश बुलाया गया। जब व्यासदेवजी वहाँ गए, तो वहाँ जितने भी विद्वान थे, सबको शास्त्रर्थ में पराजित कर दिया। तबसे इनको जगद्गुरु की संज्ञा दी गई। इनकी जयन्ती के अवसर पर जितने गुरु-भक्त हैं, सब अपने-अपने गुरु की पूजा-अर्चना किया करते हैं।
सृष्टि का अवलोकन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आदि गुरु परमात्मा हैं। बच्चा जब जन्म लेता है, तो उसके मुँह में बोली नहीं रहती है। भूख लगती है, बच्चा रोता है। उसकी माँ उसको दूध पिलाती है, लेकिन दूध चूसने के लिए और निगलने के लिए उसे कौन सिखलाता है? वह ज्ञान आदि गुरु परमात्मा ही देते हैं। वे सबको सिखाते हैं। परम प्रभु परमात्मा निर्गुण-निराकार हैं। उन्हीं के सगुण-साकार रूप संत-सद्गुरु होते हैं।
संत-सद्गुरु की परम्परा आज से नहीं प्राचीन काल से चली आ रही है। सतयुग में राजा श्वेतकेतु ने उद्दालक से, मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्यजी से, भृगु ने वरुण से, नारदजी ने सनत्कुमारजी से, नचिकेता ने यम से, इन्द्र ने प्रजापति से ज्ञान प्राप्त किया था। इस तरह गुरु-शिष्य-परम्परा की लम्बी सूची है। जब हम त्रेता में आते हैं तो देखते हैं, स्वयं भगवान श्रीराम ने गुरु-धारण किया था। उनके गुरु वशिष्ठजी थे। भगवान राम के शिष्य हनुमानजी। मतंग ऋषि ने शवरी को आत्मज्ञान दिया था। जब हम द्वापर में आते हैं तो देखते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के गुरु गर्ग मुनि थे, उनसे उन्होंने आत्मज्ञान सीखा था और भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मज्ञान दिया। सबसे पहले यह ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने सूर्य को बताया था। सूर्य ने मनु को बतलाया। मनु ने इक्ष्वाकु को बतलाया। इस तरह की परम्परा में यह ज्ञान बहुत दिनों तक रहा।
हम देखते हैं कि सभी युग में गुरु हुए हैं। कलियुग में आप लीजिए, गौड़ पादाचार्य के शिष्य गोविन्दाचार्यजी हुए, गोविन्दाचार्य के शिष्य शंकराचार्य हुए, शंकराचार्य के शिष्य सुरेश्वराचार्यजी हुए। अगर हम नाथ सम्प्रदाय में देखना चाहें, तो वहाँ मत्स्येन्द्र नाथ हुए, उनके शिष्य गोरखनाथ हुए, उनके शिष्य निवृत्तिनाथ हुए, उनके शिष्य ज्ञानदेवजी हुए। यारी साहब के शिष्य बुल्ला साहब, बुल्ला साहब के शिष्य गुलाल साहब, गुलाल साहब के शिष्य भीखा साहब, भीखा साहब के शिष्य गोविन्द साहब और गोविन्द साहब के शिष्य पलटू साहब हुए। तोतापुरीजी के शिष्य श्रीरामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्दजी हुए। इस तरह गुरु-शिष्यों की लम्बी परम्परा चली आ रही है। वस्तुतः गुरु कहते किसको हैं? गुरु शरीर को नहीं, ज्ञान को कहते हैं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ गुरू नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
जो ज्ञानवान हैं, क्रियावान हैं, शुद्धाचारी हैं, ब्रह्मनिष्ठ हैं, वे गुरु होते हैं। साधु का वेश लेने से, घर-घर घूमकर दीक्षा देने से कोई गुरु नहीं हो जाते। गुरु नानकदेवजी महाराज ने तो कहा-
“ घर महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकर धुनि तह बाजै सबदु निसाणु ।।”
घर क्या है? यह शरीर हमारा घर है। यह स्थूल घर है, इसके भीतर सूक्ष्म घर है, इसके भीतर कारण घर है, इसके भीतर महाकारण घर है तथा इसके भीतर कैवल्य घर है। इन घरों को जो दिखला दे और पाँचों घरों के विभिन्न शब्दों को जो सुना दे, वही सद्गुरु है।
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”
जो कोई स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य को पार करके परम प्रभु परमात्मा से मिलानेवाले हैं, वे संत सद्गुरु होते हैं। जिस लकड़ी में आग है, वही लकड़ी सूखी लकड़ी को जला सकती है। लेकिन जिस लकड़ी में स्वयं आग नहीं है, वह दूसरे को जला नहीं सकती। उसी तरह से जिस गुरु में आत्मज्ञान नहीं है, वह दूसरे को आत्मज्ञान क्या दे सकता है। जिसमें आत्मज्ञान है, वही आत्मज्ञान दे सकता है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु सतगुर मूआ जनमु हारि ।।”
अगर मनुष्य-शरीर मिल गया, पर संत- सद्गुरु से नहीं हम मिले, उनकी शरण में नहीं गए, उनके कथन के अनुकूल आरचण नहीं किए, तो मनुष्य-जन्म निरर्थक चला गया। अगर मनुष्य- शरीर पाकर गुरु-कृपा का पात्र बन गए, तो उद्धार हो गया। संत सुन्दरदासजी के वचन में है-
“ गुरु के प्रसाद बुद्धि उत्तम दशा को गहै ।
गुरु के प्रसाद भव दुःख विसराइये ।।
गुरु के प्रसाद प्रेम प्रीतिहु अधिक बाढ़ै ।
गुरु के प्रसाद राम नाम गुण गाइये ।।
गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै ।
गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।।
सुन्दर कहत गुरुदेव जू कृपालु होइ ।
तिन के प्रसाद तत्त्वज्ञान पुनि पाइये ।।”
आत्मज्ञान संत सद्गुरु ही दे सकते हैं और जबतक आत्मज्ञान नहीं होगा, तबतक कल्याण नहीं होगा। भौतिक विद्याओं के ज्ञाता होने पर भी आत्मज्ञान की आवश्यकता बनी रहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ चौदह चारो अष्ट दस, रस समझब भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
भगवान शंकर या विरंची (ब्रह्मा) के समान कोई हो जाए, अगर गुरु नहीं करे, तो उसे आत्मज्ञान नहीं होगा, उसका कल्याण नहीं होगा।
“ गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई ।
जौं विरंचि संकर सम होई ।।”
-गोस्वामी तुलसीदासजी
भगवान शंकर ने ब्रह्माजी से कहा था-
“ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।”
गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान बताया गया है। क्यों? इसलिए कि गुरु में तीनों देवों के कार्य करने की क्षमता परिलक्षित होती हैं। ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और महेश संहार करते हैं; ये तीनों शक्तियाँ तीनों देव में हैं, लेकिन यह तीनों शक्तियाँ एक गुरु में निहित हैं। वह कैसे? ब्रह्मा का काम सृष्टि करना है। गुरु अपने शिष्य के अन्दर ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, इसीलिए उनको ब्रह्मा कहते हैं। जो ज्ञान वे देते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, इसलिए उनको विष्णु कहते हैं और शिष्य के अंदर जो विकार उत्पन्न होता है, उसका वे संहार करते हैं, इसलिए उनको महेश भी कहते हैं। इतना ही नहीं संत-महात्मा कहते हैं, गुरु तो प्रत्यक्ष में परमात्मा हैं। ‘गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।’ यह तो सद्गुरु की महिमा बतलाई गई। जब हम सगुण-साकार सद्गुरु की शरणागत होते हैं, तो वे हमें आदिगुरु परमात्मा से मिलने का मार्ग बतलाते हैं। यह मार्ग अन्तर का मार्ग है, बाहर का नहीं। परमात्मा सर्वव्यापी होने के कारण हमारे अन्दर भी विराजमान है और जो वस्तु हमारे ही अन्दर विद्यमान हो, उसे बाहर में ढूँढ़ना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।”
जो भ्रम की काई लगी है, वह बाहर में खोजने से नहीं मिटेगी। अन्दर-ही-अन्दर चलने से जीवात्मा के ऊपर पड़ा मलावरण उतरता जाएगा और परमात्मा का साक्षात्कार भी होगा। इसलिए हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के वचन में हैं-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
‘गुरु की कृपा के बिना कुछ नहीं हो सकता। इसलिए उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए और उनके बताए अनुकूल साधन-भजन करना चाहिए। संतमत की साधना विधि सरल-से- सरल है-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान। इसके लिए परहेज है-झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो (मांस-मछली सदृश अखाद्य पदार्थों को ग्रहण नहीं करो) और परस्त्री-परपुरुष गमन नहीं करो। अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। जहाँ तक बन सके, दूसरे का उपकार करो। इस तरह इहलोक भी कल्याणमय होगा और परलोक भी कल्याणमय होगा।
बरसात का समय है, लोगों को बहुत दूर-दूर जाना है, इसलिए मैं अपने वचन में विराम देता हूँ। आप सज्जनवृन्द दूर-दूर से इस समारोह में भाग लेने के लिए कष्ट उठाकर यहाँ आए हैं, आप सबों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद और आशीर्वाद देता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 11-07-2006 ई0 को गुरु-पूर्णिमा के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2006 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जयंती किन्हीं महापुरुष की मनायी जाती है। मैं तो एक छोटा-से-छोटा साधू हूँ, लेकिन प्रेमियों ने अपनी श्रद्धा-भाव प्रगट की है। इसके लिए मैं उन सबों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।
संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया सम्प्रदाय, नया मजहब, नया रिलीजन (त्मसपहपवद) आदि नहीं है। यह परम पुरातन सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी भी अवैदिक मत से घृणा, राग-रोष, ईर्ष्या-द्वेष नहीं करता है। संतमत में सभी संतों का, चाहें वे किसी देश के, किसी वेश के क्यों न हों; समान रूप से सम्मान किया जाता है।
सभी संतों ने मानव-कल्याण के लिए ईश्वर भक्ति बतलायी है, और वह आंतरिक भक्ति है। यह ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर की भक्ति है। जैसे-बिना पृथ्वी के पौधा उत्पन्न नहीं होता है। उसी तरह बिना ईश्वर की भक्ति किये परम कल्याण की प्राप्ति नहीं होती है।
ईश्वर की भक्ति में सदाचार का पालन अत्यावश्यक होता है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार इन पंच पापों से बचना होगा। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइया नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जबतक मन विषय से निर्विषय की ओर नहीं होगा तो सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं होगा। जबतक साक्षात्कार नहीं होगा, तबतक परम कल्याण भी नहीं होगा। ईश्वर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। गुरुनानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ काहै रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।”
ईश्वर कहीं दूर नहीं है।
“ है नेरे सूझत नहीं ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को भयो मोतियाबिंद ।।”
-तुलसी साहब
जिस तरह मोतियाबिंद हो जाने पर कोई चीज नहीं सूझता है, उसी तरह ही परमात्मा हमारे निकट हैं, जितना हमारे निकट कोई नहीं हैं। फिर भी हम नहीं देखते, चीन्हते हैं। जिस तरह मोतियाबिंद का ऑपरेशन कर देने के बाद सबकुछ दिखने लग जाता है। उसी तरह संत सद्गुरु के निकट जाकर अन्तः साधना करता है तो उसका मोतियाबिंद दूर हो जाता है। (श्रोताओ की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) गो0 तुलसीदास जी ने कहा है-
“ सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।”
“ जथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
संतमत बतलाता है एक ईश्वर पर विश्वास करो और उस ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी। उसके लिए कोई कठिन साधना नहीं है।
“ बिन्दु-ध्यान विधि नाद ध्यान विधि,
सरल सरल जग में परचारी ।”
सब कोई कर सकते हैं।
“ जितने मनुष तन धारि हैं,
प्रभु भक्ति कर सकते सभी।”
जितने मनुष्य हैं, चाहें नर हो या नारी हो सभी ईश्वर भक्ति के अधिकारी हैं। हमारे यहाँ नारियाँ भी भक्तिन हुई हैं और उन्होंने भी ईश्वर की प्राप्ति की है। नर-नारी में कोई भेद नहीं है, सबमें आत्मा एक ही है। शरीर की भिन्नता है आत्मा अभिन्न है।
“ ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”
राजा का पुत्र ही राजा की गोद में बैठ सकता है। उसी तरह जो ईश्वर का अंश है। जीव है, चेतन आत्मा हैं, वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। जैसे-हम आँख से ही देख सकते हैं और आँख के अतिरिक्त किसी इन्द्रियों से हम देख नहीं सकते हैं। कान से ही हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं। नासिका से ही हम गंध को ग्रहण कर सकते हैं। त्वचा से ही हम स्पर्श का ज्ञान कर सकते हैं। मुँह से ही हम भोजन ग्रहण कर सकते हैं। मल-मूत्र विसर्जन के लिए एक-एक रास्ता नियुक्त है। उसी तरह ही ईश्वर प्राप्ति का रास्ता एक है, वह चेतन आत्मा के द्वारा ही प्राप्त होगा और दूसरे से नहीं। इसलिए गुरु महाराज की वाणी में है-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बनाके ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़के खोजना ।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजै ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
अपने में खोजना कहीं जाना नहीं है। घर-बार परिवार-रोजगार को छोड़ना नहीं है। जो घर-बार परिवार रोजगार करते हुए भगवद् भजन करके अपना कल्याण बना लेता है, वही दूसरे का भी कल्याण करेंगे। जो अपना कल्याण नहीं बनाएँगे, वे दूसरे का भी कल्याण नहीं बना सकते हैं। इसलिए संतों ने कहा-ईश्वर-भजन करो, सदाचार का पालन करो, सदाचार के आधार पर ही ईश्वर भक्ति का दृढ़ भवन बन सकता है। सदाचार हीनता बढ़ने से ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती, ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-आध्यात्मिकता ऊपर रखो, जहाँ आध्यात्मिकता रहेगी, वहाँ सदाचारिता रहेगी, क्योंकि आध्यात्मिकता का और सदाचारिता का क्यू (फ़) और यू (न्) का संबंध है। जहाँ सदाचारिता रहेगी, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी वहाँ की राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकती। इसलिए पंच पापों से अपने को बचाओ, ईश्वर पर विश्वास करो, वे अपने अंदर में मिलेंगे, बाहर कहीं नहीं मिलेंगे। जब एक बार वे अंदर में मिल जाएँगे तो बाहर में भी मिलेंगे। संतों ने कहा-ईश्वर का भजन करके अपना परम कल्याण बना सकते हैं।
जाड़ा का समय है, दूर-दूर से लोग आए हुए हैं। इस समय में इतना ही कहूँगा। सबलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ जो प्रणाम करने योग्य हैं, उनको प्रणाम करता हूँ, जो आशीर्वाद के योग्य हैं, उसे मैं आशीर्वाद देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज की 87वीँ पावन जयंती के शुभ अवसर पर यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 20-12-2006 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोग अभी रामचरितमानस का पाठ सुन रहे थे। रामचरितमानस एक महान ग्रंथ है। उसमें सभी प्रकार के ज्ञान का समावेश है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समझाने की कला इतनी अच्छी है कि वे एक रूपक के माध्यम से आध्यात्मिकता को सरल रूप में प्रकट करते हैं। अभी आपलोगों ने मानस रोगों की चर्चा सुनी-
“ मानस रोग कछुक मैं गाये ।
हैं सबके लख बिरलन्हि पाये ।।”
मानस रोग का अर्थ है-मन के रोग। जैसे तन के रोगों के लिए डॉक्टर होते हैं। उसी तरह मन के रोगों के भी डॉक्टर होते हैं। तन के रोग सर्दी, खाँसी, बुखार आदि और मन के रोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि हैं। ‘हैं सबके’; लेकिन इसको बिरले ही देख-समझ पाते हैं और इससे बच भी बिरले ही पाते हैं।
काम ने किसको बदनाम नहीं किया। बड़े-बड़े वीरों पर इसका शासन-प्रभुत्व है। देव, यक्ष, गन्धर्व, खर्ग; सबको प्रभावित करनेवाला, सबको अपनी मुट्ठी में रखनेवाला काम है। रावण काम के कारण आज भी बदनाम है। क्रोध आदमी को अबोध कर प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करता है। लोभ मन में क्षोभ उत्पन्न करता है। मोह क्या नहीं करता है? आदमी मोह के कारण अंधा हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ मोह न अंध कीन्ह केहि केही ।
को जग काम नचाव न जेही ।।
तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा ।
केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्हकर हुनर न कबनिहु ओरा ।।”
आदि ये सब मानस रोग हैं। हम दूसरे को तो समझाते हैं कि ये-ये रोग हैं, इनसे बचना चाहिए; लेकिन हम स्वयं इन रोगों से ग्रसित होते हैं।
“ सुनिय गुनिय समुझिय समझाइय ।
दशा हृदय नहिं आवै ।।”
हम दूसरे को समझाते हैं; लेकिन वैसी स्थिति हमारी बन नहीं पाती है। मान के अभिमान में पड़कर क्या नहीं करते हैं। अपनी जान तक गँवा देते हैं। इसलिए गुरुनानक देवजी कहते हैं-‘साधो मन का मान तियागो ।’ हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ पाखंड अरुऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो ।
सब कुछ समर्पण कर गुरू की, सेव करनी चाहिए ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
‘मान मणी को यौं तजै जस तेली पीना रे ।’
कोल्हू में सरसों देकर पेरते हैं, सरसों से तेल निकाल लेते हैं और खल्ली फेंक देते हैं। जैसे लोग खल्ली को फेंक देते हैं, उसी तरह मानरूपी मणि को फेंक दो। जबतक मान का अहंकार घट के भीतर में घर किए हुए हैं, तबतक अंधकार-ही-अंधकार रहेगा, कुछ सूझेगा नहीं। गुरु महाराज कहते हैं-
“ आँधरि आँखि सूझत रहे नाहीं थे पड़े अंध अचेत हे ।
करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे ।।”
विवेक दृष्टि से हीन होने के कारण हमें कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता था। हम अज्ञानी बनकर बेसुध पड़े थे। गुरुदेव ने कृपा करके हमें साधना की युक्ति बतलाई, जिसके अभ्यास से हमारी बेहोशी मिट गई अर्थात् चेतन जागृत हो गई और अन्तर्दृष्टि खुल गई।
जिसकी दिव्य दृष्टि खुलती है, उसे अन्तर का मार्ग मिलता है, अंतःप्रकाश मिलता है। तभी विकारों का नाश होता है। सिर्फ लंबा-लंबा प्रवचन कर लेने से ही मानस रोगों से हम मुक्त नहीं हो सकते। मुक्त होना मामूली बात नहीं है।
“ राम कृपा नासहिं सब रोगा ।
जो एहि भाँति बनै संयोगा ।।”
-गोस्वामी तुलसीदास
जबतक राम की कृपा नहीं होगी, तबतक इन रोगों का नाश नहीं होगा। क्या उनकी कृपा अभी नहीं है? अभी भी है, तो फिर नाश क्यों नहीं हो रहा है? जबतक अपने को कृपा-पात्र नहीं बनावेंगे, तबतक कृपा नहीं मिलेगी। सूर्य की किरण किसी पर कम, किसी पर अधिक नहीं, सब पर समान रूप से पड़ती है; लेकिन सूर्य की किरण जब मिट्टी पर पड़ती है, तो उसमें कोई चमक नहीं आती है। जब पानी पर पड़ती है, तो वहाँ चमक आ जाती है। शीशा पर इतनी तेज रोशनी होती है कि हम उसपर आँख टिका नहीं सकते। मिट्टी में मैल भरी पड़ी हुई है, इसलिए उसमें चमक मालूम नहीं पड़ती है। पानी में मिट्टी से कम मैल है। इसलिए उसमें कुछ चमक मालूम पड़ती है और काँच बिल्कुल साफ है, इसलिए उसपर तेज रोशनी मालूम पड़ती है। उसी तरह से जिसका हृदय जितना साफ होगा, उसके अंदर उतना प्रकाश होगा। जबतक अपने हृदय को साफ नहीं करेंगे, तबतक ईश्वर का तेज हमारे अंदर नहीं आ सकेगा। इसलिए संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दिल का हुजरा साफकर जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा उसको बिठाने के लिए ।।”
सद्गुरु मिल जाने पर भी अगर उनकी बातों पर हमें विश्वास नहीं है, तो हमारा कल्याण नहीं, सर्वनाश ही होगा। सतगुरु रूप वैद्य के वचन पर विश्वास कर तद्नुरूप चलेंगे, तब भव रोगों से मुक्त होंगे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ सतगुरु वैद वचन विस्वासा ।
संयम यह न विषय कर आशा ।।”
भगवान शंकर को वर-रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती तपस्या कर रही थी। भगवान शंकर को जब मालूम हुआ, तो भगवान शंकर ने सोचा-‘वह मुझको पति बनाना चाहती हैं, मेरे प्रति कहाँ तक उसकी श्रद्धा है, इसकी परीक्षा लेनी चाहिए।’ उन्होंने ऋषि-मुनियों से कहा कि जाकर पार्वती की परीक्षा लो। ऋषि-मुनि लोग पार्वती के पास गए और कहा-‘अरी! किसके लिए तुम तपस्या कर रही हो! महादेव के लिए? उसको तो अपना कुछ है ही नहीं। घर तक का पता नहीं है। क्या खाएगा, क्या पीएगा, कैसे रहेगा, कोई ठिकाना नहीं। अगर तुम भगवान विष्णु के लिए तपस्या करो, तो वह तुम्हारा भरण-पोषण ठीक से करेंगे; क्योंकि वे तीनों लोकों के पालनहार हैं। शंकर के पास सब चीजों की कमी-ही-कमी रहेगी। विष्णु के पास सब चीजें भरपूर हैं, इसलिए उनको प्राप्त करने की तपस्या करो।’ पार्वती के गुरु नारद मुनि थे। नारदजी ने पार्वती को समझा दिया था कि तुम शंकर की तपस्या करो। इसीलिए पार्वती कहती है-
“ जनम कोटि लगि रगड़ हमारी ।
वरौं शम्भु न तो रहौं कुमारी ।।”
एक दो जन्म की बात नहीं, अगर करोड़ों जन्म तपस्या करते-करते बीत जाए, तब भी मैं शंकर को ही चाहूँगी। आप कहते हैं कि महादेव के पास कुछ नहीं है, वे सब अवगुणों से भरे हैं और विष्णु सब गुणों की खान हैं। लोग विष्णु की प्रशंसा करते हैं, ‘विष्णु सकल गुण धाम हैं’; लेकिन ‘जाके मन रम जाहि से, ताहि ताहि से काम।’ भगवान विष्णु में कितने भी गुण क्यों न हों, उनके गुण रहें उनके पास; लेकिन मेरा मन शंकर में रमा हुआ है। मुझे तो शंकर ही चाहिए।
“ गुरु के वचन प्रतीत न जाके ।
सपनेहु सुख सिधि सुलभ न ताके ।।”
जिसको अपने गुरु के वचन में विश्वास नहीं है, उसको स्वप्न में भी सुख और सिद्धि नहीं मिल सकती है। गुरु के वचन पर विश्वास नहीं रखने का परिणाम क्या होगा? ‘गुरु गए कहके और चेला मुए बहके।’ गुरु क्या कह गए हैं? हमलोग प्रतिदिन पढ़ते हैं-
“ श्री सद्गुरु की सार शिक्षा याद रखनी चाहिए ।
अति अटल श्रद्धा प्रेम से गुरु भक्ति करनी चाहिए ।।”
पढ़ते रोज हैं; लेकिन करते नहीं हैं। सिर्फ तोता रटन्त से क्या होगा? कुछ कीजिए भी।
मानस रोगों के वैद्य संत-सद्गुरु हैं। उनके वचन पर विश्वास कीजिए और संयम कीजिए। डॉक्टर दवाई और संयम; दोनों बता देते हैं। हम दवाई लें और खाने-पीने का परहेज नहीं करें, तो क्या लाभ होगा? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ रघुपति भगति संजीवन मूरी ।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।”
रघुपति की जो भक्ति है, वही संजीवनी बूटी है। वैद्य लोग दवाई के साथ अनुपान भी बतलाते हैं। उसका अनुपान है-अटल श्रद्धा। गुरु जो कह दिए, वह पानी की लकीर नहीं, पत्थर की लकीर की तरह नहीं मिटनेवाली है। पानी की लकीर तो मिटनेवाली होती है। गुरु के बताए मार्ग पर श्रद्धा-भक्ति से साधना करेंगे, तो क्या होगा? गोस्वामीजी उत्तर देते हैं-
“ यहि विधि भले हि सब रोग नसाहीं ।
नाहिं त कोटि जतन नहिं जाहीं ।।”
इसलिए हमलोगों को गुरु के वचन पर दृढ़ विश्वास करना चाहिए। उन्होंने जो क्रिया बतलाई है, उसे निष्ठापूर्वक-श्रद्धापूर्वक करनी चाहिए। अपने मन को मान-बड़ाई की ओर नहीं ले जाना चाहिए। अगर मान-बड़ाई की ओर ले जाएँगे, तो मूल बात को भूल जाएँगे। गुरु के वचन पर अटल रहना चाहिए।
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
अपने मन को पंच-विषयों से, पंच-पापों से अलग करके रखना चाहिए। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; जो इन पंच-पापों का त्याग करेंगे, उसी को भगवद्चरण में अनुराग होगा और उसी का कल्याण होगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 04-02-2007 ई0 को अपराह्णकाल में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2007 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
विद्वजनों का कथन है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। आज लाखों की संख्या में जो आपलोग यहाँ यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं क्या कारण है? मात्र सत्संग के लिए, सत्संग को सभी संतों ने विभिन्न भाँति समझाने की चेष्टा की है। कबीर साहब ने इसको सद्गुरु की हाट कहा है-
“ चल सतगुरु की हाट, ज्ञान-बुद्धि लाइये ।
कीजे साहब से हेत परम पद पाइये ।।”
तो गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज सत्संग को सुजन समाज, संत समाज कहा है।
‘मुद मंगल मय संत समाजु,
जो जग जंगम तीरथ राजु ।’
आज जिसको आपलोग अखिल भारतीय संतमत-सत्संग कहते हैं इसका पूर्व नाम साधु-मेला था। उसी सत्संग के निमित्त हमलोग यहाँ उपस्थित हुए हैं। सत्संग दो शब्दों के योग से बना है-सत् और संग। सत् क्या है? सत् सोई जो विनसै नाहीं। अविनाशी तत्व को सत् कहते हैं जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। त्रिकाल अबाध तत्व को सत् कहते हैं, वह कौन और क्या है? परम प्रभु परमात्मा है। वह सत् है। उन्हीं का अभिन्न अंश जीवात्मा सत् है। इस सत् को उस सत् से मिला देना, इस सत् को उस सत् से संग कर देना यह सत्संग है। यह उत्तम कोटि का सत्संग है, प्रथम श्रेणी का सत्संग है, किन्तु जबतक सत्य स्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ तबतक हमलोगों का सत्संग कैसा? जिन्होंने उन प्रभु का दर्शन किया है ऐसे पुरुषों के संग को भी सत्संग कहते हैं, किन्तु ऐसे संत भी दुर्लभ हैं। जिस समय संत होते हैं उस समय लोग उनकी पहचान नहीं करते हैं। अवश्य ही उनपर थूकते हैं, गाली देते हैं, गालियों का बौछार करते हैं, मारपीट करते हैं, जान मारने को उद्धत रहते हैं और अवसर पाने पर जान भी मार देते हैं। अब वैसे संत कौन हैं? इसकी पहचान हमारी आँखों में नहीं है तो एकबार वैसे संत का संग मिल जाय तो यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग होगा। कबीर साहब ने कहा-
“ साधू मिलै साहब मिलै, अंतर रहा न रेख ।
मनसा वाचा कर्मणा, साधू साहब एक ।।”
ऐसे संतों के अभाव में उनकी जो सद्वाणी है उनकी सद्वाणी का संग करना भी सत्संग है। यह तृतीय श्रेणी का सत्संग है। अगर हमलोग तृतीय श्रेणी का सत्संग करते रहेंगे तो एकदिन उत्तम श्रेणी का सत्संग भी हो जायेगा। गोस्वामी जी कहते हैं-
‘मुद मंगल मय संत समाजु, जो जग जंगम तीरथ राजु ।’
संतों के समाज में क्या मिलता है? मुद मंगल मुद=आनन्द, मंगल=कल्याण। आनंद और कल्याण सबकोई चाहते हैं, कल्याण सभी चाहते हैं और अकल्याण कोई नहीं चाहते हैं, अगर हम आनंद और कल्याण चाहते हैं तो हमें संतों का संग करनी चाहिए। यह क्या है? यह जंगम तीर्थराज है। प्रयागराज में त्रिवेणी है, वह जड़ है, तो तीर्थराज उनको भी हम कहते हैं। सत्संग जंगम तीर्थराज है। आज यहाँ पर तो कल वहाँ पर और इसके द्वारा संतों के वाणियों का प्रचार-प्रसार होता है। कोई कहेंगे कि प्रयागराज में तो त्रिवेणी है गंगा, जमुना और सरस्वती। सत्संग में कौन सी त्रिवेणी है यह तीर्थराज कैसे हुआ? बहुत वर्ष पूर्व की बात है। गुरुदेव के साथ मैं भी प्रयागराज गया था। मेरे मन में उत्सुकता हुई कि जहाँ पर त्रिवेणी संगम है वहाँ जाकर देखा जाय। गुरु महाराज तो साथ में थे ही नाव पर सवार हुए और जहाँ गंगा और जमुना की दोनों धाराएँ मिलती थी वहाँ नाव ले गए और कहा यही त्रिवेणी है तो मैंने कहा द्विवेणी है। त्रिवेणी कहाँ है सरस्वती को तो देखते नहीं हैं तो पंडा ने बताया कि सरस्वती अंतः सलिला है तो यहाँ त्रिवेणी कौन सी है। संतों की संगति में। गोस्वामी जी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि
“ राम भगति जहँ सुर सरि धारा ।
सरसइ ब्रह्म-बिचार प्रचारा ।।”
परमात्मा के सगुण रूप की जो चर्चा होती है। राम भक्ति की चर्चा होती है वह गंगा की धारा है और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा होती है वह सरस्वती की धारा है।
“ बिधि निषेधमय कलि मल हरनी ,
करम कथा रबि नन्दिनि बरनी ।”
विधि निषेध की जो चर्चा होती है वह यमुना की धारा है। विधि क्या है और निषेध क्या है? विधि एक ईश्वर पर विश्वास करना, दृढ़ निश्चय रखना कि अंतर में मिलेंगे, सत्संग करना, ध्यान करना, गुरु की सेवा करना। ये है पंच विधि। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार ये ही पंच निषेध है। दो त्रिवेणी तो हमलोग समझते हैं प्रयागराज कि त्रिवेणी और सत्संग की त्रिवेणी, लेकिन एक और त्रिवेणी है वह है अपने अंदर में। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तीन नाड़ियाँ हैं। शास्त्र का कथन है-
“ इड़ा भगवती गंगा पिगला यमुना नदी ।
इड़ पिगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणी संगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।”
(ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
इड़ा बायीं और पिगला दायीं ओर रहती है। इड़ा को गंगा और पिगला को यमुना नदी कहते हैं। बीच की नाड़ी को सुषुना (सरस्वती) कहते हैं। इस त्रिवेणी-संगम में जो स्नान करते हैं, उनको सर्व पापों से मुक्ति मिलती है। हमारे गुरुदेव ने सत्संग को दो भागों में विभक्त किया है-
“ नित सतसंगति करो बनाई, अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।
धर्म कथा बाहर सत्संगा, अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
भगवद् चर्चा और प्रभु कथा यह बाहर का सत्संग है। जो अंतः साधना करते हैं जिससे जीव और पीव का मिलन होता है वह आंतरिक सत्संग है तो यह दोनों प्रकार का सत्संग करना चाहिए। बाह्य सत्संग भी और अंतर सत्संग भी। बाह्य सत्संग में जो संत हैं उनके दर्शन दुर्लभ हैं, दर्शन होने पर भी हम उनकी पहचान नहीं कर पाते हैं। संतो की लीला भी विचित्र हुआ करती है। संत दादू दयाल जी महाराज ने कहा है-
‘संतन की गति गोई, दादू जानै न कोई ।’
जो संत हो चुके हैं, जो शरीर में नहीं है उनकी चर्चा हम पुस्तकों में सुनते हैं, पढ़ते हैं, लेकिन जो हमलोगों के गुरु महाराज थे उनको तो हमलोगों ने अपनी आँखों से देखी। एक लघु घटना है-
गुरु महाराज बहुत वृद्ध हो गए। चल-फिर नहीं सकते थे वे दिनचर्या के अनुसार सुबह-शाम टहलते थे। इसीलिये व्हील चेयर पर बैठकर सुबह-शाम घूमते थे। एकदिन व्हील चेयर पर बैठकर घूमने के लिए जा रहे थे। सत्संग आश्रम में एक चबूतरा है जिस पर दो ताल वृक्ष है, व्हील चेयर जब वहाँ पर पहुँचा तो साथ में बहुत से लोग व्हील चेयर के साथ जा रहे थे। एक अपरिचित व्यक्ति आते हैं और गुरु महाराज के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हैं। गुरु महाराज पूछते हैं कि कहाँ से आये और काैन हो तथा किसलिए आए हो? तो उन्होंने अपने रहने का स्थान बतलाया और बतलाया कि आपके दर्शन के लिए आया हूँ। गुरु महाराज बोले-‘ऐ जी इसको बाँध दो’ तो जितने लोग उनके साथ थे किसी को अच्छा तो नहीं लगा कि कोई अपरिचित आदमी आवे तो उनको बँधवा दें। तो बहाना किया कि हुजूर उनको बाँधने के लिए कोई सामान यहाँ नहीं है। तो वे धोती पहने हुए थे तो गुरुदेव बोले कि धोती से ही बाँध दो। तो उन्हीं की धोती से दोनो हाथों को लटपटा दिया गया। गुरु महाराज बोले कि बैठो यहाँ तो वे अपरिचित व्यक्ति बैठ गए। गुरु महाराज चले गए टहलने के लिए। एक घंटा के बाद गुरु महाराज घूमकर लौटे तबतक वह व्यक्ति बैठा रहा। कोई बंधन तो था नहीं, लेकिन वहीं वह श्रद्धावश बैठा रहा। गुरुदेव उसे देखकर कहते हैं कि बैठा हुआ है तो इसका बंधन खोल दो तो जो हाथ लटपटा दिया गया था उसे खोल दिया गया। गुरु महाराज ने कहा कि सीधे घर चले जाओ रास्ते में कहीं रुकना नहीं। बेचारा चला गया जितने लोगों ने इस दृश्य को देखा सबके मन में यही हुआ कि गुरु महाराज ने अच्छा नहीं किया। कोई सज्जन आ जाए दर्शन करने तो उसको बँधवा दे। तो होता क्या है कि पन्द्रह-बीस दिनों के बाद वही व्यक्ति फिर आता है वैसे तो सैकड़ो व्यक्ति प्रतिदिन आते-जाते रहते हैं, लेकिन जब किसी के साथ कोई घटना घट जाती है तब लोगों का उनके प्रति विशेष ध्यान होता है। तो जैसे ही वे आये लोगों ने पहचाना कि वही आदमी है। वे आये और गुरु महाराज के चरणों में गिर गये और कहा कि गुरुदेव ने मेरा उद्धार कर दिया। हुजूर मेरा कोई अपराध नहीं था। झूठा इल्जाम लगाया गया था, मुझे सजा होती इसलिए लोगों ने कहा कि हाकिम को घूस दे दो तो मैंने सोचा कि मैं जितना दूँगा मेरे दुश्मन दूना दे देंगे। हमने सोचा हम सच्चे दरबार में जाए। गुरुदेव के शरण में आया और उन्होंने बँधवा दिया और बंधन से मुक्त हो गया। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संत की पहचान नहीं होती है तो हम संतवाणी का संग करे, संतलोग क्या कहते हैं? संतलोग सदैव देते ही रहते हैं लेते नहीं। संत सुंदरदास जी महाराज कितना सुंदर कहते हैं-
“ साँचो उपदेश देत, भली-भली सीख देत ।
समता सुबुद्धि देत, कुमति हरतु है ।।
मारग बताई देत, भाव भगति देत ।
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरत है ।।
ज्ञान देत ध्यान देत, आतम विचार देत ।
ब्रह्म को बताई देत, ब्रह्म में चरतु है ।।
सुन्दर कहत जग संत कुछ लेत नाहीं ।
निशदिन संतजन देवो ही करत है ।।”
जो संत होते हैं वे देने के लिए आते हैं, लेकिन हमलोग अभागे होते हैं ले नहीं पाते हैं उनकी कृपा बराबर रहती है लेकिन उन कृपा को भी हम नहीं ले पाते हैं। सूर्य की किरण है। सूर्य किसी को कम किसी को अधिक प्रकाश नहीं देते हैं, लेकिन जब सूर्य की किरण मिट्टी पर पड़ती है तो उसका रूप देखिये कि उसका रूप कैसा होता है और जब वही किरण पानी पर पड़ती है तो देखिये कि उसका रूप कैसा होता है, वही किरण जब काँच पर पड़ती है तो देखिये कि उसमें कितनी चमक होती है। जिसमें जितनी सफाई होती है, जितनी पवित्रता होती है उसमें उतनी कृपा पड़ती है। संत की कृपा पाने के लिए अपने को कृपा पात्र बनाने की आवश्यकता है। संतों का चरित्र कपास के समान उज्जवल और परोपकारी होता है। सभी आनन्दों को देनेवाला सत्संग ही है। शठ भी सत्संग करते-करते सुधर जाते हैं, सुधार हो जाता है तो उद्धार हो जाता है। गोस्वामी जी महाराज कहते हैं-
‘सठ सुधरहि सत संगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई ।’
संतों का संग करने से उनकी नैसर्गिक आभा प्रवेश करती है। इसलिये कबीर साहब ने कहा-
“ कबीर संगति साधु की, ज्यों गंधी का वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास ।।”
गंधी की दुकान पर जाइए, वह आपको इत्र की फुहार नहीं भी दे, लेकिन अगर आप उसके दुकान पर खड़े भी रहिए तो दुकान से सुगंधी आएगी वह आपको मिलेगी। उसी तरह संतों के संगति करने से अगर संत कुछ बोले भी नहीं तो भी उनकी नैसर्गिक आभा आपमें प्रवेश कर पवित्रता प्रदान करेगी। पाश्चात्य देश की एक घटना है-
जिस समय महात्मा सुकरात थे उसी समय बहुत बड़े पण्डित अरस्तु थे। अरस्तु के मन में कुछ शंकाएँ थी जिसका समाधान वे महात्मा सुकरात से करना चाहते थे, लेकिन प्रमादवश नहीं पहुँच पाए। संयोग सुकरात को मृत्युदंड की सजा सुना दी गयी तब अरस्तु सुकरात से मिलने के लिए कारागार पहुँच गये। सुकरात ने उनसे पूछा-‘क्या बात है।’ तब अरस्तु ने कहा-‘महाराज मेरे पास बहुत-सी जिज्ञासाएँ थी, लेकिन आपके पास पहुँचते-पहुँचते सबका समाधान हो गया। अब एक ही जिज्ञासा है यह हुआ कैसे? तब सुकरात ने कहा-‘जो व्यक्ति जिस प्रकृति के होते हैं उनमें उस प्रकार की आभा निकलती है। जो तमोगुणी व्यक्ति होते हैं उनसे तमोगुणी आभा निकलती है तथा जो रजोगुणी व्यक्ति होते हैं उनसे रजोगुणी आभा निकलती है और सतोगुणी व्यक्ति से सतोगुणी आभा निकलती है। जबतक तुम आभा से बाहर थे तबतक तुम्हारे मन में बहुत सारी जिज्ञासा थी। जैसे-जैसे तुम उस आभा में प्रवेश करते गये, वैसे-वैसे तुम्हारी जिज्ञासा समाप्त होते गयी और यहाँ आने पर तुम्हारी सारी जिज्ञासा समाप्त हो गयी। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) इसलिए कहा कि जो भी गंधी दे नहीं तो भी वास सुवास। संग का रंग लग जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ कदलि सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन ।
जैसी संगति बैठिए, तैसी ही फल दीन।।”
केले के वृक्ष में स्वाति की बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह कर्पूर हो जाती है। सीपी में जब स्वाति-बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह मोती हो जाती है। साँप के मुँह में यदि वह बूँद पड़ जाती है, तो वह मणि का रूप धारण करती है। स्वाति बूँद एक ही है; लेकिन स्थान-भेद से गुण-भेद हो जाता है। उसी तरह यह जीव सुजन का सत्संग करेगा, तो सज्जन बन जायगा और दुर्जन का संग करेगा, तो दुर्जन बन जायगा।
परमभक्तिन मीराबाई कहती है-
“ मनवाँ रामनाम रस पीजै ।
तजि कुसंग सत्संग बैठ नित्य हरि चर्चा सुन लीजै ।।
काम क्रोध मद लोभ मोह को बहा चित्त से दीजै ।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर वाहि के रंग में भींजै ।।”
रामनाम का रस कहाँ मिलेगा, संतों के संग में ही मिलेगा। कुसंग को छोड़ो और हरिचर्चा सुन काम, क्रोध, लोभ, मोह को अपने चित्त से दूर करो। इसीलिये संत कबीर साहब ने भी संतों के वचन के महत्त्व को दर्शाते हुए कहा-
“ कबीर दर्शन साधु की साहब आवै याद ।
लेखे के वाहि घड़ी बाकी के दिन बाद ।।”
जब साधु-सन्तों के दर्शन होते हैं तो प्रभु की याद आती है। जब हमलोग वकील साहब को देखते हैं तो कोर्ट, कचहरी, मुकदमा, गवाही की याद आती है और जब डॉक्टर साहब को देखते हैं तो अस्पताल, रोग, दवाई की याद आती है तथा जब मुल्ला को देखते हैं तो मस्जिद, कुरान और नमाज की याद आती है। जब हम पण्डित को देखते हैं तो पोथी, मंदिर और पूजा की याद आती है। जब हम संतों को देखते हैं तो परमात्मा की याद आती है क्यों? इसीलिए संत कबीर साहब की वाणी है-
“ परम पुरुष की आरसि साधुन हीं कि देह ।
लखा जो चाहौ अलख को इन्हीं में लखि लेह ।।”
जो सत्संग करते हैं उसका सबकुछ बन जाता है। उसका लोक और परलोक दोनों बन जाता है। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ नित प्रति सत्संग कर ले प्यारा, तेरा काज सरै सारा ।
सार कार्य को निर्णय करके, धर चेतन धारा ।।”
एकबार सत्संग के कार्यक्रम में मैं बाहर गया था। वहीं का एक प्रसंग है-वहाँ एक ठण्क्ण्व् साहब मुझसे भेंट करने आये। वे मुसलमान थे। उन्होंने अपना परिचय दिया। और लोग भी उनेक साथ थे। मैंने ठण्क्ण्व् साहब से पूछा-‘आप इस्लाम धर्म के माननवाले हैं, तब तो आप पंचबख्ती नमाज अदा करते होंगे?’ उन्होंने कहा-‘मुझे जनसेवा से फुर्सत कहाँ है। और जनसेवा से बढ़कर कोई और सेवा हो भी क्या सकती है?’ मैंने उनसे पूछा-‘आप कुरान शरीफ भी पढ़ते हैं? आपका तो वह धर्मग्रन्थ है।’ उन्न्होंने कहा-‘हाँ, फुर्सत के दिनों में कभी-कभी पढ़ लेता हूँ।’ मैंने उनसे पूछा-‘कुरान शरीफ में सबसे बड़ा किनको बतलाया गया है?’ ठण्क्ण्व् साहब ने कहा-‘सबसे बड़ा अल्लाह को बतलाया गया है।’ तब मैंने पुनः उनसे पूछा-‘जब सबसे बड़ा अल्लाह को बतलाया गया है, तो अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी कि जनसेवा सबसे बड़ी होगी?’ उन्होने कहा-‘अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी।’ मैने कहा-ठण्क्ण्व् साहब कयामत के दिन के लिये आप पंचबख्ती नमाज अदा कीजिए। उसमें आपका दीन बनेगा। और आप ठण्क्ण्व् साहब तो हैं ही। जनसेवा करते ही हैं। अतः वह भी कीजिये तो आपकी दुनिया भी बनेगी। उन्होंने कहा-‘अच्छा बाबा! अब से मैं अवश्य नमाज पढ़ूँगा।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ सत्संग करना मन तोड़ शरण संतन की ।
अन्दर अभिलाषा लगी रहै चरण की ।।”
संसार की ओर से मन को तोड़ो और सत्संग से मन को जोड़ो। जो एक-न-एक दिन प्रभु से मिला देगा। जीवन सफल होगा, कल्याणमय होगा और यह लोक और परलोक सुखमय होगा। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन पर विराम देता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन बरारी, भागलपुर में 10-02-2007 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभिनन्दन पत्र तो जो कोई बाहर से आये हुए विशिष्ट लोग होते हैं, उनके लिए चाहिए। मैं तो यहाँ का ही रहनेवाला एक छोटा-सा साधु हूँ। मेरे लिये तो अभिनन्दन की कोई आवश्यकता नहीं, फिर भी जिन सज्जनों ने अभिनन्दन पत्र मुझे समर्पित किया है, उन सबलोगों का मैं अभिवंदन करता हूँ और हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया सम्प्रदाय, नया रिलीजन (त्मसपहपवद) या नया मजहब आदि नहीं है। संतमत परम पुरातन, परम सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी किसी अवैदिक मत से राग-रोष या ईर्ष्या-द्वेष नहीं करता। संतमत सभी संतों का मत है। संतमत शांति का मत है। शांति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं। शांति को जो प्राप्त कर लेते हैं, संत कहलाते हैं। उन्हीं संतों के मत का प्रचार होता है।
“ जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, सबकी एकै जात ।।”
संतमत में जात-पात की कोई बात नहीं होती है।
“ हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई ।
बौद्ध-जैन सब भाई-भाई ।।”
यह सर्वधर्म समन्वय मत है। संतमत में कोई संत बड़े और कोई छोटे नहीं, सभी एक-से होते हैं। इसलिए संतमत में ‘सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी’ का नित्य प्रति पाठ किया जाता है। संतमत अर्थात संतों का मत। संतों का मत क्या कहता है? तो बतलाता है, अपने को जानो, ईश्वर को जानो। संतमत के द्वारा ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर भक्ति का प्रचार होता है। सभी संतों की वाणियों का पाठ होता है। सभी संतों की एक ही बात है। सभी संतों ने कहा ईश्वर एक है और उसको पाने का रास्ता भी एक ही है। वह है अपने अंदर में।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस से मर्यादा पुरूषोत्तम के उपदेश को पाठ में सुना होगा-
“ बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहिं गावा ।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा ।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।।”
यह मनुष्य शरीर देव दुर्लभ शरीर है। जो देवता के लिए दुर्लभ है, वह हमलोग के लिए सुलभ है। इसलिए दुर्लभ शरीर को पाकर दुर्लभ कर्म ही करना चाहिए। वह है ईश्वर की भक्ति। मनुष्य शरीर देखने में जितना सुन्दर है, उतना ही यह क्षण भंगुर भी है। भगवान श्रीराम ने अपने उपदेश में कहा यह केवल मेरी ही बात नहीं है। सभी सद्ग्रंथ यही कहते हैं। क्या कहते हैं तो ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा पाइये न जेहि परलोक सँवारा।’ यह मनुष्य शरीर साधनों का घर है। इस शरीर के अंदर सभी ज्ञान भरे पड़े हैं।
“ देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः ।
देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।”
जिनको गुरु मिलते हैं, उनको इन सारी बातों की जानकारी मिलती है। शरीर के मध्य सारे तीर्थ, सारे देवता और सारी विद्याएँ उपलब्ध है। गुरु कृपा से सबकुछ इसी तन में मिलता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि किसी भी कार्य में सफलता के लिए पाँच चीजों की आवश्यकता होती है-(1) कर्ता, (2) क्षेत्र, (3) साधन, (4) कार्यान्वयन और (5) अज्ञात।
कर्ता सुयोग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, तब तो ठीक है। अगर कर्ता अयोग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल नहीं हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, पर उसके पास साधन ही नहीं हो, तो भी सफलता नहीं मिलेगी। अगर वह साधन सम्पन्न भी हो, लेकिन समुचित ढंग से कार्यान्वयन नहीं कर रहा हो, तब भी सफलता नहीं मिलेगी। यहाँ योग्य कर्ता है, अनुकूल भूमि है, साधन सम्पन्न है और मनोयोग पूर्वक कार्य करता है। जहाँ ये चार बातें आ जाती है तो पाँचवीं बात है अज्ञात। अर्थात प्रभु कृपा। वह प्रभु कृपा हो जाती है। जैसे-दूध को हम कितना भी औंटे, लेकिन उसमें जामन नहीं दिया जाएगा तो दही नहीं बन सकती है। उसी तरह हम कितना भी कुछ कर लें अगर ईश्वर की कृपा नहीं होगी तो कुछ भी नहीं होगा, लेकिन जहाँ चार चीजों के लिए पुरुषार्थ करते हैं। परमात्मा हमारी सहायता करते हैं। शुभ काम को यथाशीघ्र करना चाहिए। किसी कवि ने कहा है-
“ काल्ह करो सो आज कर, आज करो सो अब ।
पल में परले होयेगा, बहुरि करोगे कब ।।”
लेकिन जब हम साँस लेते हैं तो जो साँस भीतर लेते हैं वह हम छोड़ेगे कि नहीं, हम सक्षम होंगे कि नहीं, इसका ठिकाना नहीं है। यह शरीर क्षणभंगुर है। तन की क्षणभंगुरता को देखते हुए भगवद्भजन यथा शीघ्र करना चाहिए। श्री रामचरित मानस में एक बड़ा ही रोचक प्रसंग है कि भगवान श्रीराम के वाण से जब रावण धराशायी हो गया तब प्रभु ने लक्ष्मण से कहा-रावण बहुत बड़े पंडित और राजनीतिज्ञ थे। उनके पास जाकर कुछ सीख लो। लक्ष्मण रावण के पास गया और कहा-भाई साहब ने मुझे आपके पास भेजा है कुछ सीखने के लिये। तब रावण ने कहा-लक्ष्मण अगर तुम पहले आये होते तो मैं बहुत कुछ सिखलाता अब तो मौत की बारी आ गयी है। मैं क्या कुछ सिखलाऊँ। वह तो मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम स्वयं त्रिकालदर्शी और सबकुछ जानते हैं, उनसे कोई भी बात छिपी हुई नहीं है। वो सबकुछ जानते हैं, फिर भी उनकी इच्छा है कि मैं कुछ बोलुँ तो जाकर कहो कि एकबार मुझको आकर दर्शन दे दें, तब जो कुछ होगा बोलूगाँ। लक्ष्मण आ गये भगवान के पास और कहा कि रावण ने ऐसा-ऐसा कहा। भगवान श्रीराम रावण के पास गये तब रावण ने कहा-‘प्रभु आप तो सर्वज्ञ हैं, सर्व अंतर्यामी हैं, सबकुछ जानते हैं। मैं लक्ष्मण को क्या समझाऊँगा, क्या सिखाऊँगा; फिर भी आप मेरे मुँह से कुछ सुनना चाहते हैं तो मैं यही लक्ष्मण से कहुँगा कि जो शुभ काम हो उसे तुरंत ही कर देना चाहिए और जो अशुभ काम हो उसे आज-कल के लिए टाल देना चाहिए। देखिये मैं एकबार स्वर्ग जा रहा था। रास्ते में नरक कुण्ड दिखलायी दिया, नरकवासी लोग दुःखों से आकुल-व्याकुल और चीत्कार कर रहे थे। उनलोगों को दुखी देखकर मेरे मन में आया कि क्यों न नरक कुण्ड को पाट दिया जाय और स्वर्ग तक सीढ़ी लगा दी जाय, जिससे सबकोई नरक-यातना से बचकर सीधे स्वर्ग पहुँच जाय, लेकिन वह भी नहीं कर पाया। मैंने सोचा कि सभी समुद्रों को उलीचकर किसी में दूध तो किसी में घी भरूँगा जिसको खा-पीकर सभी सुखी हो जायेंगे। मैंने यह भी सोचा था कि पिता के रहते किसी के पुत्र की मृत्यु नहीं हो, लेकिन इन शुभ कर्मों मे से कोई एक भी नहीं कर सका और पर नारी का हरण करना जो अशुभ काम था; इसमे मैंने शीघ्रता किया तो अपनी जान तो जा ही रही है और रहा न कोई कुल रोवनहारा। वंश का संहार हो गया, राज-पाठ, धन-दौलत सभी का नाश हो गया। इसलिए अच्छा काम को शीघ्र करना चाहिए और बुरे कामों को टाल देना चाहिए।
लोग कहा करते हैं कि जो कुछ होता है ईश्वर की इच्छा से ही होता है। ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता है, एक पत्ता तक नहीं डोलता है, लेकिन समझने की बात यह है कि जिस समय हम अच्छा काम करना चाहते हैं तो प्रभु का पत्ता नहीं डोलता है और जब बुरे काम करना चाहते हैं तो प्रभु का पत्ता हिल जाता है। यही तो हमारी मन की कमजोरी है। मनुष्य शरीर को पाकर के आजकल करके शुभ कामों को नहीं टालना चाहिए। यह मनुष्य शरीर प्रभु भजन के लिये ही तो मिला है। अगर प्रभु भजन नहीं करेंगे तो अंत में पश्चाताप करना पड़ेगा।
“ सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहि कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।”
वह परलोक में जाकर दुःख पाता है और काल-कर्म को मिथ्या दोष लगाता है। मेरा मन तो था शुभ कर्म करने का लेकिन कलि काल कुछ करने नहीं दिया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
‘काल धर्म व्यापहिं नहिं तेहि ।’
जिसको प्रभु पद में प्रीति हो उसको काल धर्म कुछ नहीं कर सकता है। हमारे गुरुदेव की वाणी में आया है-‘गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करै।’ इसलिये आजकल-आजकल करके नहीं टालना चाहिए। मनुष्य शरीर पाने का फल विषय भोग में रहना नहीं है। इसको पाकर निर्विषय की ओर जाना है। प्रभु भजन के लिये उम्र की भी कोई सीमा नहीं है। गुरु नानकदेव जी का सत्संग प्रातःकाल हुआ करता था। बहुत सवेरे लोग सब आ जाते थे और श्रद्धालु भक्त के साथ एक पाँच वर्ष का शिशु भी जाता था। एक दिन गुरुनानक देव जी उस बच्चे से पूछा-अरे बड़े लोग जो हैं, वह सबकुछ समझते हैं मगर तुम तो छोटे हो, क्या कुछ समझते हो? तो लड़के ने कहा-बाबा मैं तो कुछ समझता नहीं हूँ, लेकिन एक दिन की घटना है मेरी माँ रोटी बना रही थी मैं वहीं बैठा हुआ था लेकिन चुल्हे में वे जो लकड़ियाँ दे रही थी। जो मोटी-मोटी लकड़ी जल्दी नहीं जलती थी। पतली टहनियाँ जल्दी जल जाती थी तो मैंने समझा कि जो बड़े लोग हैं वे मोटी लकड़ी के समान हैं जो देर से जलती है। मैं तो छोटा बच्चा हूँ पतली लकड़ियों के समान जो जल्द ही जल जाऊँगा। मैं तो कम उम्र का हूँ। कब मर जाऊँगा इसका ठिकाना नहीं है। इसलिये गुरु महाराज का सत्संग करने आता हूँ। गुरुनानक साहब की वाणी में है-
“ नहि बालक नहि यौवने, नहि बिरधी कछु बंध ।
वह अवसर न जानिये, आये पड़ै यम फंद ।।”
वहीं गोस्वामी जी कहते हैं-
‘कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाय ।’
इस शरीर को पाने का फल निर्विषय है तो विषय से निर्विषय की ओर कैसे जायेंगे। इसके यत्न के लिए संत सद्गुरु चाहिए। इसलिए आगे चलकर कहा कि
“ नरतन भव बारिध कहँ बेरो,
सनमुख मरुत अनुग्रह मेरो ।
करनधार सद्गुरु दृढ़नावा,
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए मनुष्य का शरीर नाव है। अनुकूल वायु प्रभु की कृपा है। अनुकूल वायु हो और खेनेवाला न हो तो कैसे नाव पार कर सकते हैं। नाव को खेने के लिए संत सद्गुरु चाहिए। नाव के मल्लाह संत सद्गुरु हैं। संत सद्गुरु के शरण जाते हैं तो उसका बेड़ा पार होता है। मनुष्य शरीर पाकर के संसार सागर से पार होने के यत्न नहीं करता, पार नहीं होता। वैसे कृतघ्न का अंत में अधोगति होता है, उसे आत्महत्या का पाप लगता है। गुरु महाराज की वाणी है-
“ यहि मानुष देह समैया में, करु परमेश्वर में प्यार ।
कर्म धर्म को जला खाक कर, देगें तुमको तार ।।”
मनुष्य शरीर पाकर प्रभु में प्रेम करना चाहिए। प्रभु की कृपा होने से सभी कर्म-धर्म जलकर खाक हो जायेंगे। मनुष्य शरीर भगवद् भजन के लिए ही मिला है। अतः हमें भगवद् भजन करना चाहिए, इसी में हमलोगों का कल्याण निहित है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन बरारी, भागलपुर में 10-02-2007 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में बिहार के माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी एवं अश्विनी कुमार चौबे जी का भी पदार्पण हुआ था जिनके द्वारा अभिनंदन पत्र प्रस्तुत किया गया था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर की भक्ति से ही जीवों का कल्याण होता है।
“ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।”
जिस तरह थल के बिना जल नहीं रह सकता, उसी तरह भक्ति के बिना मुक्ति रह नहीं सकती। ईश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व परोक्ष ज्ञान करने की आवश्यकता है। जबतक ईश्वर के स्वरूप के संबंध में ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होगा तो उसकी भक्ति नहीं कर सकते हैं। गोस्वामी जी ने लिखा है-
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल के चिकनाई ।।”
बिना जाने प्रीति नहीं होती, बिना प्रीति के भक्ति नहीं हो सकती। वह ईश्वर कैसा है कहना कठिन है, क्योंकि वह वाणी का विषय नहीं है। वह एक-ही-एक है। हिन्दु, मुसलमान, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई जितने धर्मावलंबी हैं, जो नहीं भी हैं। सबके ईश्वर एक ही हैं। कहने के लिए नाम अनेक हैं, ‘यद्यपि प्रभु के नाम अनेका, श्रुति कह प्रभु एक ही एका।’ वह प्रभु एक-ही-एक है। विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है उसमे एक मंत्र आया है-
‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ।’
वह प्रभु एक है; लेकिन विद्वज्जन उसे बहुत-से नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उसे गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहते हैं। मुसलमान उसे अल्लाह या खुदा कहते हैं। (यह ‘खुदा’ शब्द हमलोगों के संस्कृत शब्द ‘स्वयंभू’ का पर्याय है।) पारसी उसे अहुरमज्द कहते हैं। चीनी उसे तितीन कहते हैं। यहुदी उसे जेहोवा कहते हैं और वैदिक धर्मावलंबी उसे ब्रह्म, परमात्मा या ईश्वर कहते हैं। कोई उसे स्त्री रूप में पूजते हैं, कोई उसे पुरुष रूप में पूजते हैं। वास्तव में वह न स्त्री है और न पुरुष ही। कोई उसे सगुण रूप में पूजते हैं, कोई निर्गुण रूप में। यथार्थ में वह सगुण-निर्गुण से परे है, सभी नाम-रूपों से परे हैं। कितने व्यक्ति कहते हैं कि ईश्वर है ही नहीं, जिन्होंने देखा है वे कहते हैं। वह कैसा है, ‘अवाघ्मनसगोचर’ तथा ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ कहकर घोषित किया गया है।
वेद के पश्चात् हमें उपनिषद् के ऋषि से जिज्ञासा करना चाहिए। वैदिक कालिक ऋषि की ईश्वर संबंधी उक्ति तो यह है, उपनिषद् काल के ऋषि-मनीषी इसके संबंध में क्या कहते हैं? केनोपनिषद् में आया है-
“ यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।”
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है।।
कठोपनिषद् अध्याय 2, वल्ली 2 में लिखा है, नचिकेता की आत्मज्ञान संबंधी जिज्ञासा पर यमराज ने उत्तर दिया है-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।।
आप देखेंगे, जब आप गाड़ी के चक्के में हवा देते हैं, तो हवा का रूप चक्राकार होता है, फुटबॉल में वही हवा गोलाकार हो जाती है और लंबे बैलून में वह हवा बैलूनाकार अर्थात् लंबी हो जाती है; किन्तु वास्तव में हवा का रूप न तो चक्राकार है, न गोलाकार और न लंबाकार ही। बचपन में जब मैं छोटा था, एक किताब में पढ़ा था। एक बच्चा अपनी माँ से पूछता है-
“ होती कैसी हवा जरा तू इसका भेद बता दे ।
पाँव पड़ूँ और शीश नवाऊँ मैया मुझे बता दे ।।
पत्तों के हिलने-डूलने से जो इससे हवा निकलती है ,
तो उसमें हवा कहाँ से आती मैया मुझे बता दे।।”
हवा क्या रूप है? हवा का कोई रूप नहीं है। वह जिस वस्तु में रहती है, उसी का रूप धारण कर लेती है। उसी तरह ईश्वर सबमें है और सबमें रहकर, सर्वाकार होकर भी उससे कितना अधिक बाहर है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती; क्योंकि वह स्वरूपतः अनंत है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मेरा साहब एक तू, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहब जौं कहौं, साहब खड़ा रिसाय ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज बतलाते हैं-
‘एकोएक सो अपर परंपरु परखि खजाने पाइदा ।’
ये भी कहते हैं-ईश्वर एक हैं।
और संत सुन्दरदासजी महाराज की वाणी सुनिए, वे क्या कहते हैं-
“ एक सही सबके उर अंतर, ता प्रभु कूँ कहु क्यूँ नहीं ध्यावै ।
संकट माहि सहाय करैं पुनि, सो अपनी पति क्यूँ बिसरावै ।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं, आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।
सुन्दर छार पड़े तिनके मुख, जो हरि कूँ तजि आन कूँ ध्यावै ।।”
वह प्रभु स्वरूपतः अनादि, अनन्त असीम है। कठोपनिषद् में यम नचिकेता का प्रसंग आया है।
नचिकेता के पिता ने बहुत बड़ा यज्ञ किया था, उस यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुत दान-पुण्य भी दिया। अंत में बूढ़ी-बूढ़ी गायें भी दान करने लगा। यह देखकर नचिकेता के मन में हुआ कि पिताजी बूढ़ी-बूढ़ी गायें दान क्यों कर रहे हैं? ये बेचारी तो अंतिम घास खा चुकी हैं, अंतिम पानी पी चुकी हैं। नचिकेता था तो बच्चा; लेकिन बड़ा बुद्धिमान था। उसने कहा, ‘पिताजी! आप तो सर्वस्व दान कर ही रहे हैं, उसमें तो मैं भी हूँ। आप मुझे किसको दान कर रहे हैं?’ नचिकेता के पिताजी ने समझा कि ‘बच्चा है, ऐसे ही बोल रहा है।’ नचिकेता ने पुनः अपनी बात दोहराई, ‘पिताजी! आप मुझको किसको दे रहे हैं?’ इस बार भी उसने अनसूना कर दिया। तीसरी बार फिर पूछा, ‘मुझे किसको दे रहे हैं?’ अंत में उसके पिता ने क्रोधित होकर कहा, ‘जा, तुमको यमराज को देता हूँ।’ बस, सुनते ही नचिकेता चल पड़ा और यमराज के घर पहुँच गया। उस समय यमराज घर में नहीं थे। वे तीन दिनों के बाद आए। तबतक वह भूखा-प्यास वहाँ पड़ा रहा। जब यमराज घर आए, तो देखा कि एक बालक मेरे दरवाजे पर भूखा-प्यासा पड़ा है। यमराज ने सोचा कि कोई मेरे यहाँ आवे और उसका कोई सत्कार नहीं हो, यह बहुत बड़ा पाप है। यमराज ने कहा, ‘नचिकेता! तुम तीन दिनों तक मेरे दरवाजे पर भूखे-प्यासे रहे, इसलिए तुम मुझसे तीन वरदान माँग लो।’ नचिकेता ने पहला वरदान माँगा, ‘मेरे पिताजी का क्रोध दूर हो, दूसरा-मैं जब आपके यहाँ से लौटकर जाऊँ, तो वे मुझे आदर से रखें और तीसरा मुझे मृत्यु के मुँह से निकालकर अमृतत्व की प्राप्ति कराओ।’ यह सुनकर यमराज सोचने लगे कि यह बच्चा नहीं, कोई ज्ञानी बालक हैं यमराज उसे प्रलोभन देने लगे कि तुमको हम अपार धन देंगे, हाथी-घोड़े देंगे, सोना-चाँदी देंगे। संसार का सारा वैभव तुम मुझसे ले लो; लेकिन अमृतत्व की जिज्ञासा नहीं करो। नचिकेता ने कहा, ‘सोना, चाँदी, हीरा, जवाहरात एक-न-एक दिन खत्म हो जाएँगी। एक दिन सब कुछ छोड़कर संसार से जाना पड़ेगा। हमको यह सब नहीं चाहिए। मृत्यु के मुख में नहीं जाना पड़े, ऐसा उपदेश दीजिए। यमराज ने कहा-
“ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।”
(अरे अविद्याग्रस्त लोगो !) उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
यमराज ने कहा-प्रभु को जानना बहुत कठिन कार्य है। जानने का तात्पर्य केवल बौद्धिक ज्ञान से नहीं है इसकी निष्पति तभी हो पाती है जब मनुष्य को सिद्धि मिल जाय। वह आत्मा क्या है? वह प्रत्येक शरीर में व्याप्त है, इसी आत्मा का ज्ञान सभी संतों ने दिया है। भगवान महावीर कहते हैं-‘अत्तानं विद्धि।’ अपने को जानो, जियो और जीने दो, अहिंसा परमो धर्मः यह है भगवान महावीर का ज्ञान। उस समय की भाषा कुछ और थी। भगवान बुद्ध ने भी यही बात कही कि मनुष्य अपना स्वामी आप है। इसका स्वामी दूसरा कौन बन सकता है। जो अपने को अच्छी प्रकार दमन कर लेता है वह दुर्लभ स्वामी को प्राप्त करता है। वह दुर्लभ स्वामी कौन है? वह दुर्लभ स्वामी परमात्मा है। उसी परमात्मा का ज्ञान सबको होना है। हिन्दू हो या मुसलमान, सबका ईश्वर एक ही है। एक कामिल फकीर हुए हैं दीन दरवेश। उन्होंने कहा-
“ हिन्दू कहै हम बड़े मुसलमान कहै हम ।
एक मूँग दो फाड़ है, कुन ज्यादा कुण कम ।।
कुन ज्यादा कुण कम कभी करियो मत कजिया ।
एक भजत है राम दूजे रहमान से रजिया ।।
कहै ‘दीन दरवेश’ दोई सरिता मिलि सिन्धू ।
सबका मालिक एक है, क्या मुसलमान क्या हिन्दू ।।”
हिन्दू हो या मुसलमान, सबका मालिक एक ही है। सब सन्तों का यही विचार है कि एक की टेक पकड़ो, तुम्हारा जीवन नेक होगा।
बादशाह अकबर के दरबार में नौ रत्न रहते थे। उनमें कवि गोष्ठी भी थी। कवि लोग बादशाह को अपनी-अपनी कविता सुनाया करते थे। उन कवियों में एक थे-कवि श्रीपति। उनकी जितनी भी कविताएँ होतीं, ईश्वरपरक होतीं। बादशाह को खुश करने की कविताएँ वे नहीं बनाते थे। सब दरबारी कवियों ने विचारा कि श्रीपति कवि केवल ईश्वरपरक कविताएँ लिखते हैं, बादशाह अकबर की प्रशंसा में कविताएँ कभी नहीं लिखते। बादशाह से यह बात कहलवा दी जाय की कल की जो कविता बने, उसमें यह पंक्ति अवश्य रहनी चाहिए कि-‘करो सब आस अकब्बर की’। यदि श्रीपति यह पंक्ति देते हैं, तो उनकी जो ईश्वरवाली टेक है, वह टूटेगी। यदि वे यह पंक्ति नहीं देते हैं, तो बादशाह अकबर की नजर में गिरेंगे। बादशाह से यह बात कहलवा दी गई। दूसरे दिन सभी कवि अपनी-अपनी कविता बनाकर लाए। सबने अपनी-अपनी कविता सुनाई। अब सब प्रतीक्षा करने लगे कि श्रीपतिजी की कविता कैसी होती है। जब श्रीपतिजी की बारी आई तो उन्होंने अपनी कविता इस प्रकार सुनाई-
“ एकहि छाड़ि जो दूजो भजै,
सो जरै रसना अस लब्बर की ।
अबकी गुनिया दुनिया जो बनी,
सब बाँधत फैट अडम्बर की ।।
कवि श्रीपति आसरो रामहिं को,
हम फैट गहो बड़ जब्बर की ।
जिनको उस एक की टेक नहीं,
तो करो सब आस अकब्बर की ।।”
(श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय तथा गुरुदेव रो पड़े)
जितने भी संत हुए हैं सभी संत एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
‘एक अनीह अरुप अनामा, अज सच्चिदानंद परधामा ।’
वह एक ही एक है। वह न जन्म लेता है न मरता है। इसी को हमारे गुरुदेव ने कहा-जो परम तत्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मंडल एक महान यंत्र की नाईं परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, संतमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्मस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।
गुरु गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं-
“ बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती,
अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहिं,
वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।”
भरे हुए स्थान को बस्ती कहते हैं और जो खाली स्थान होता है, उसको शून्य कहते हैं। उस परमात्मा के लिए न बस्ती कहा जा सकता है, न शून्य ही।
एक यात्री यात्र के क्रम में एक बार एक जंगल में गया। वहाँ उसको एक महात्माजी से भेंट हुई। उसने महात्माजी ने पूछा-‘बाबा! बस्ती कितनी दूरी पर है?’ महात्माजी ने उत्तर दिया-‘जैसे ही जंगल पार करोगे, बस्ती मिल जाएगी।’ चलते-चलते जब उसने जंगल को पार किया, तो उसको श्मशानघाट मिला। वह लौटकर आता है और महात्माजी से कहता है-‘बाबा! आपने कहा था कि जंगल पार करने पर बस्ती मिलेगी, पर वहाँ तो श्मशानघाट मिला।’ महात्माजी ने उत्तर दिया-‘तुम किसको बस्ती कहते हो? बस्ती तो उसको कहते हैं, जहाँ आकर लोग बसते हैं। श्मशान में जाकर जो बसते हैं, उसको कोई उजाड़ सकता है? असली बस्ती तो वही है, जहाँ बसने पर कोई उजाड़ न सके। तुम जिनको बस्ती कहते हो, वह तो उजाड़ है। प्रतिदिन मर-मरकर लोग वहीं, श्मशानघाट में जाकर बसते हैं। इसलिए उसको मैंने बस्ती कहा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
वह परमात्मा न बस्ती है, न शून्य है। वह अगम अर्थात् बुद्धि के परे है, अगोचर अर्थात् किसी इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य नहीं है। गुरु नानकदेव जी महाराज उसी परमात्मा को कहते हैं-
“ अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।।”
संत गरीबदास जी महाराज कहते हैं-
“ मौला मगन मुरारि बिसंभर चीन्ह रे ।
दिल अंदर दीदार अरस दुरबीन रे ।।”
परमात्मा अपने अंदर है, अगोचर है जो इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। सबने वही एक बात कही है। ईश्वर इन्द्रिय ज्ञान से परे है। ऋषियों ने भी कठोपनिषद् में कहा है-
“ इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ।।”
इन्द्रियो से मन पर (उत्कृष्ट) है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है; बुद्धि से महत्तत्त्व बढ़कर है तथा महत्तत्व में अव्यक्त उत्तम है। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। इन ज्ञान इन्द्रियों और कर्म इन्द्रियों में घनिष्ठ संबंध है। ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण की इन्द्रियों से परे हैं। परमात्मा को प्राप्तकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है।
सभी संत एक ही ईश्वर की भक्ति बतलाते हैं जो ईश्वर की भक्ति करते हैं उसे किसी प्रकार की कमी नहीं रहती है। जैसे-हमलोंगो के घरों में पानी की टंकी रहती है। कभी-कभी टंकी खाली हो जाती है तो जब हम टंकी से संबंध लिये हुए हैं तो पानी कभी-कभी समाप्त भी हो जाती है, लेकिन बोरिंग से जिसका संबंध है उसका पानी कभी समाप्त नहीं होगा। बोरिंग का पानी ही उस टंकी में जाता है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) उसी तरह से परमात्मा की ही शक्ति सभी देवताओं और देवियों में जाती है। एक-एक देवी-देवता एक-एक टंकी के समान है जिससे हम एक-एक चीज माँगते हैं, लेकिन वह टंकी भी खाली होती है। अर्थात् देवी-देवता की भी शक्ति क्षीण हो जाती है। संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर की भक्ति करो। एक ईश्वर की भक्ति में ही परम कल्याण है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) संतमत उसी ईश्वर की भक्ति बतलाता है और उसकी प्राप्ति अपने अंदर मे बतलाता है उसपर दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। इसी में हमलोगों का लोक और परलोक कल्याणमय होगा। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन को विराम देता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन बरारी, भागलपुर में 11-02-2007 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना, जिसमें प्रसंग आया कि राजा दशरथ की आज्ञा से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जंगल गए। उनके साथ में जगज्जननी जानकी और लक्ष्मण भी थे। रात्रि का समय था। भगवान श्रीराम और सीताजी जंगल में पत्ते के बिछावन पर सोए थे। थोड़ी दूर पर लक्ष्मणजी बैठकर पहरा दे रहे थे। इतने में निषादराज आए और लक्ष्मणजी के पास बैठ गये। भगवान श्रीराम और सीताजी की अवस्था देखकर निषादराज दुःख प्रकट करने लगे। बोले-‘कहाँ राज-रानी का राज-सुख और कहाँ दुर्गम वन! कैकेयी ने अच्छा नहीं किया।’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-
“ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निजकृत करम भोग सुनु भ्राता ।।”
हे भाई! कोई किसी को सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। सभी अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं।
भगवान बुद्ध ने कहा है-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। वह हमारे विचारों से बना है। इसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है। मनुष्य यदि बुरी कल्पना से बोलता है या काम करता है, तो दुःख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे बैल-गाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे गाड़ी का चक्का।’ उन्होंने पुनः कहा-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। वह हमारे विचारों से बना है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है। मनुष्य यदि अच्छी कल्पना से बोलता या काम करता है तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे उसके शरीर की छाया, जो उसे कभी नहीं छोड़ती।’
हमलोग जिस तरह का कर्म करते हैं, उस तरह का फल भोगते हैं। कर्म दो तरह के होते हैं-शुभ कर्म और अशुभ कर्म। शुभ कर्म का फल सुख होता है और अशुभ कर्म का फल दुःख होता है। कोई भी दुःख पाना नहीं चाहता, इसलिए किसी को भी अशुभ कर्म, अधार्मिक कर्म नहीं करना चाहिए।
महाभारत के युद्ध में कौरवों का संहार हुआ और पांडव विजयी हुए। जब पाँचो भाई पांडव महाप्रयाण के क्रम में हिमालय की ओर जा रहे थे तो पहले द्रौपदी गिर गई। भीम ने युधिष्ठिर से पूछा-‘द्रौपदी पतिव्रता नारी थी, यह क्यों गिर गई?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-हम पाँचो भाई उसके पति थे, लेकिन वह अर्जुन से अधिक प्रेम करती थी, इसी पाप के कारण वह गिरी है।’ उसके बाद सहदेव गिर गये। भीम ने पूछा कि सहदेव तो बहुत पंडित था, विद्वान और ज्ञानवान था, वह क्यों गिर गया?’ युधिष्ठिर ने कहा-‘इसको घमंड था कि हम बहुत बड़े ज्ञानी हैं। जिस समय हमलोग लाक्षागृह में थे, तो यह जानता था कि निकलने का रास्ता कहाँ है, लेकिन इसने बिना पूछे कुछ नहीं बताया। अगर हमलोग नहीं पूछे होते, तो जल कर मर गए होते। ज्ञान के घमंड के कारण इसका शरीर छूटा है।’ संत कबीर साहब का वचन है-
“ मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
इतने मद को रद करै, तब पावै अनहद्द ।।”
चलते-चलते नकुल गिर गए। भीम ने पूछा कि नकुल क्यों गिर गया? युधिष्ठिर ने कहा-‘नकुल देखने में बहुत सुन्दर था। इसको घमंड था कि हमारे जैसा सुन्दर कोई नहीं है। इसी घमंड के कारण यह गिरा है।’ चलते-चलते अर्जुन गिर गए। भीम को बड़ा दुःख हुआ और कहा-‘यह तो बड़ा वीर था, यह क्यों गिर गया?’ युधिष्ठिर महाराज ने उत्तर दिया-‘इसने कहा था कि महाभारत का युद्ध तीन-दिनों से अधिक नहीं चलने दूँगा, लेकिन युद्ध को जीतने में अठारह दिन लग गए। इसी झूठ के कारण यह गिरा है।’ चलते-चलते जब भीम गिरने लगे तो उन्होंने पूछा कि मैं क्यों गिर गया हूँ? युधिष्ठिर ने कहा कि तुम्हें अपने बलवान शरीर का बहुत घमंड था, इसीलिए तुम गिरे हो। इसतरह द्रोपदी सहित चारो भाई गिरे और मरकर नरक में चले गए। युधिष्ठिर को भी कुछ काल तक नरक देखना पड़ा, फिर वे नरक से मुक्त हुए। बाद में जब ये सभी स्वर्ग पहुँचे तो देखा कि सभी कौरव वहाँ पहले से मौजूद हैं। ये सभी सोचने लगे कि इतने पुण्य करने पर भी हमलोगों को नरक भोगना पड़ा, किन्तु ये सब इतने पापी होकर भी पहले से स्वर्ग में विराजमान हैं। धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा-‘देखो, पाप और पुण्य सभी कोई करते हैं, पर किन्हीं की पाप की मात्र अधिक होती है और किन्हीं की पुण्य की। जिसकी मात्र अधिक होती है, वह पीछे भुगवाया जाता है और जिसकी मात्र कम होती है, उसको पहले भुगवाया जाता है। कौरवों ने भी थोड़ा पुण्य किया था, इसलिए कुछ दिनों के लिए स्वर्ग आया है। पाप अधिक होने के कारण अब जो नरक में जाएगा, तो वहाँ लम्बे समय तक रहेगा।
जिनका पाप कम होता है, वे पहले पाप को भोगकर फिर पुण्य भोगते है, और जिनका पुण्य कम होता है, वे पहले पुण्य को भोगकर पाप भोगते हैं। इसतरह कहीं भी जाएँ, कर्म का फल साथ रहता है। ऐसा नहीं होता कि हम पाँच पाप और सात पुण्य किए हैं, तो सात में पाँच घट जाएगा और दो पुण्य हमारे खाते में जमा रह जाएगा। वहाँ पर प्लस (जोड़) माइनस (घटाव) नहीं है। जितना पुण्य करेंगे, उतना सुख भोगेंगे और जितना पाप करेंगे, उतना दुःख भोगेंगे।
महाभारत युद्ध के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को समझाया था कि पांडवों का राज्य वापस कर दो, लेकिन दुर्योधन तैयार नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘पांडवों को सारा राज्य उनका मिलना चाहिए। अगर सारा राज्य वापस नहीं करना चाहते हो, तो कम-से-कम पाँचो भाइयों के लिए पाँच गाँव ही दे दो।’ दुर्योधन ने कहा-
‘शुची अग्र न दातव्यम् बिना युद्धेन केशव ।’
अर्थात् हे केशव! सूई की नोक से जितनी जमीन छिदती है, उतनी जमीन भी मैं बिना युद्ध के नहीं दूँगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को कहा कि धर्म क्या है, अधर्म क्या है; कर्त्तव्य क्या है, अकर्त्तव्य क्या है? इसको समझो। दुर्योधन ने उत्तर दिया-
“ जानामि धर्मं न चे मे प्रवृत्ति ।
र्जानाम्यधर्मं न चे मे निवृत्तिः ।।
केनापि देवान हृदयस्थितेन ।
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।।”
आप मुझे धर्म और अधर्म की बात समझाते हैं। क्या मैं नहीं जानता हूँ कि धर्म क्या है? लेकिन हमारी प्रवृति उस ओर नहीं है। मैं अधर्म को भी जानता हूँ, लेकिन उस ओर से मेरी निवृत्ति नहीं है। कोई देवता हमारे भीतर बैठा हुआ है। वह जैसा आदेश करता है, मैं वही काम करता हूँ।
अब सोचने की बात है कि उसके हृदय में देवता बैठा था या राक्षस! लोग जानते हैं कि पाप का फल दुःख होता है, पुण्य का फल सुख होता है। फिर भी पाप करने से बाज नहीं आते हैं, बल्कि व्यासदेवजी ने कहा है-
“ पुण्य फल मिच्छन्ति न पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ।
पाप फल न मिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।”
लोग पुण्य फल (सुख) की इच्छा करते हैं, लेकिन पुण्य करना नहीं चाहते। उसी तरह से पाप-कर्म का फल (दुख) भोगना नहीं चाहते, लेकिन प्रयत्नपूर्वक पाप करते हैं।
जो जिस तरह के कर्म करते हैं, वे उस तरह का फल पाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है-
‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते, मा फलेसु कदाचन ।’
मनुष्य को कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसका फल अपने से लेने का अधिकार नहीं है। अगर लोगों को कर्म करने की स्वतंत्रता के साथ फल लेने में भी छूट मिली होती, तो वे सभी बुरे-बुरे कर्मों को करते और फल लेते समय अच्छे-अच्छे फल चुनकर ले लेते, लेकिन ऐसा नहीं होता है। भगवान ने कहा-‘कर्म तो तुम करो, लेकिन फल मैं दूँगा।’ भगवान कैसा फल देते हैं? खेत में हम जैसा बीज बोते हैं, तदनुरूप ही उसमें फल लगता है। जिस खेत में हम धान बोएँगे, उसमें धान ही फलेगा। धान बोएँगे तो चना नहीं फलेगा। आज हम जो बोएँगे, वही कल फलेगा। लेकिन कितना फलेगा? एक-के बदले अनेक फलेगा। एक मन अनाज हम खेत में बो देते हैं और जब काटने के लिए जाते हैं, तो कई गुणा काटकर ले आते हैं। हम आम की एक गुठली लगाते हैं और जब वह पेड़ फल देने लगता है, तो अनेक फल देता है। उसी तरह जो कुछ भी हम कर्म करते हैं, अच्छा या बुरा, वह कई गुणा होकर फल देता है। गोस्वामी तुलसी दास ने कहा है-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दोइ बीज है, बुदै सो लुनै निदान ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं कि यह शरीर खेत है और मन, वचन, कर्म; ये तीन किसान हैं। हम तीन तरह से काम करते हैं-तन से, मन से और वचन से। पाप और पुण्य; ये दोनों बीज हैं। इस शरीररूपी खेत में हम पाप या पुण्य जो भी बोएँगे, उसी के अनुरूप फल मिलेगा और मिलेगा भी तो कई गुणा होकर। इसीलिए अशुभ कर्मों को करना ही नहीं चाहिए। कुछ लोग कहते हैं-‘हम देखते हैं कि जो अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं, वे तो दुःखी देखे जाते हैं और जो बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं, वे सुखी देखे जाते हैं। तो कैसे माना जाएगा कि पाप-कर्मों से दुख होता है और पुण्य-कर्मों से सुख होता है?’ वस्तुतः हमलोग जो कर्म करते हैं, उसका फल हमको कुछ अलग ढंग से मिलता है। किसी कर्म का फल हमको तुरत मिल जाता है और किसी कर्म का फल कुछ दिनों के बाद मिलता है। कुछ कर्मों का फल शरीर छूटने के बाद जब दूसरा शरीर मिलता है, तो उस शरीर में प्राप्त होता है। जैसे, हमने एक घण्टे के अन्दर एक केला का, एक आम का और एक अखरोट का पेड़ लगाया। तीनों ही पेड़ एक साथ फल नहीं देंगे। केला छः महीने से साल भर में फल जाएगा। आम पाँच-छः साल में फलेगा और अखरोट चालीस वर्ष के बाद फलेगा। मान लीजिए कि जिस समय हमारी उम्र चालीस साल की थी, उस समय हमने ये तीनों पेड़ लगाए। जब हमारी उम्र 60 वर्ष की हुई, तो हमारा शरीर छूट गया। हमने केला और आम के फल खा लिए, लेकिन अखरोट का फल तो हम तब खाते, जब 80 वर्ष की हमारी उम्र होती। 60 वर्ष में ही शरीर छूट जाने के कारण हम अखरोट का फल तो खा नहीं सके। अब जो हमारा दूसरा शरीर होगा, उस शरीर में हम इसका फल पाएँगे। कहने का मतलब यह कि हम जो कुछ भी कर्म करते हैं, कुछ कर्मों का फल तो हम इस शरीर में ही पा लेते हैं और कुछ कर्मों का फल आगे के जन्म में प्रारब्ध के रूप में पाते हैं।
मान लीजिए कि हम अच्छे-अच्छे कर्म किए और शरीर छूट गया। जब हमारा दूसरा जन्म हुआ, तो संगति बुरी हो गई और हम बुरे-बुरे कर्म करने लग गए। अब बुरे-बुरे कर्म करने पर भी पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का जो फल है, वह शुभ फल हम पाएँगे ही। यदि पूर्व जन्म के बुरे-बुरे कर्मों का हमारा प्रारब्ध शेष है, तो वर्त्तमान जीवन में अच्छे-अच्छे कर्मों को करने पर भी पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का फल हमें भोगना पड़ता है। इसीलिए लोग अच्छे कर्मों को करते हुए भी दुःखी देखे जाते हैं और बुरे कर्मों को करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं। बंगला में एक कहावत है-
“ जेई करे पाप सेइ सात छेलेर बाप ।
जेई करे पुण्य तारे काय लागे घुन ।।”
लेकिन यह बात सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि-
“ कर भला होवे भला, करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवे बुरा, करके बुराई देख ले ।।”
किसी जमाने की बात है। दो मित्र थे, वे साथ-साथ व्यापार करते थे। माल खरीदकर बम्बई आढ़त में जाकर रख देते थे। जब भाव तेज होता तो वहाँ से खबर आती और दोनों मित्र वहाँ जाकर माल बेच देते। जो लाभ होता था दोनों बाँट लेते थे। एक बार आढ़त में माल जमाकर दोनों मित्र घर आए। कुछ दिनों के बाद वहाँ से खबर आई कि भाव तेज हो गया है, आकर अपना माल बेच लें। दोनों मित्र बम्बई गए। माल बेचने पर एक लाख रुपए का लाभ हुआ। रुपए लेकर वे लोग वहीं एक धर्मशाला में ठहर गए। अब दोनों में से एक के मन में होने लगा कि अगर मित्र को किसी तरह मार दें तो हम लाखपति बन जाएँगे, अन्यथा जीवन भर हजारपति ही बने रहेंगे। उसने मित्र से कहा-‘देखिए इतने रुपए लेकर हमलोग कहाँ-कहाँ भटकेंगे। आप रुपए लेकर यहीं धर्मशाला में रहिए। मैं होटल जाता हूँ, भोजन कर लूँगा और आपके लिए भोजन लेता आऊँगा।’ मित्र ने कहा-‘ठीक है, जाइए।’ वह गया, स्वयं भोजन किया और भोजन में विष मिलाकर मित्र के लिए ले आया। भोजन करते ही उस मित्र का रामनाम सत्य हो गया। उसने शव को कार पर लादकर समुद्र में लुढ़का दिया और मित्र के पुत्र को टेलीग्राम कर दिया कि तुम्हारे पिता बहुत बीमार हैं, जल्दी आकर भेंट करो।
कुछ दिनों के बाद उसने घर जाने के लिए बम्बई से प्रस्थान किया। इधर टेलीग्राम पाकर उसके मित्र का पुत्र भी बम्बई की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन आया। पहला मित्र उसी ट्रेन से उतरा। उसकी मित्र के पुत्र से भेंट हुई तो उसने दिखावटी रोना शुरू कर दिया। रोते-रोते वह कहने लगा-‘हम एक रोटी को दो टुकड़ा करके दोनों मित्र एक साथ खाते थे। हमारे दिल का टुकड़ा हमसे छिना गया, हम बर्बाद हो गए।’ आगे कहने लगा-‘हमारे मित्र तो चले ही गए, तकदीर भी फूट गई। हमलोग मन में सोचे थे कि एक लाख रुपए का लाभ होगा। लेकिन जब तक वहाँ गए, भाव घट गया। मात्र दस हजार रुपए का लाभ हुआ। पाँच हजार तुम्हारे और पाँच हजार मेरे। दवाई, डाक्टर को दिखाने में, गाड़ी भाड़ा करने आदि में जो खर्च हुआ, वह सब मेरा हुआ। मेरा मित्र ही तो था, कोई बात नहीं है। उसके लिए तुम कोई चिन्ता मत करना। ये पाँच हजार रुपए लो।’ बेचारे का बाप भी मर गया और रुपए भी मिले पाँच हजार ही। आखिर क्या करता, रोते-रोते घर आ गया।
जिसने मित्र को मारकर रुपए लिए थे, वह व्यक्ति निःसन्तान था। सालभर के बाद उसको पुत्र हुआ। बुढ़ापे में बाप बना, घर में बहुत खुशियाली थी। कारोबार भी तेज हो गया। खूब कमाई होने लगी। वह समझने लगा कि वास्तव में पाप करने में ही लाभ है। इतने दिनों तक तो कुछ लाभ नहीं हुआ था, अब लाभ-ही-लाभ है। पाप नहीं करते तो बाप भी नहीं कहलाते।
अचानक लड़का बीमार हुआ। बड़े-बड़े डाक्टरों को बुलाया गया। इलाज चलने लगा, पर सुधार नहीं हुआ। अन्त में डॉक्टरों ने कह दिया-‘इस रोग का इलाज यहाँ नहीं हो सकेगा, इसे स्वीटजरलैंड ले जाइए।’ पैसे की कमी तो थी नहीं। ले गए स्वीटजरलैण्ड। वहाँ पर रहने, डॉक्टरों की फीस भरने, दवाई आदि में बेसुमार खर्च होने लगे। पर कब तक रोगी को आराम होगा, कोई ठिकाना नहीं। इधर जो मुनीमलोग करोबार देखते थे, उन्होंने देखा कि मालिक कब तक आएँगे कोई ठिकाना नहीं है। बस सब मनमानी करने लगे। मालिक जो खर्च माँगते, भेज देते। मुनीम लोगों ने खाते में घाटा दिखलाना शुरु कर दिया। अन्त में वहाँ के डॉक्टर ने भी कह दिया-‘अब तुम्हारे पुत्र को भगवान ही बचा सकते हैं, इसे अपने देश ले जाओ।’ निराश होकर वह बच्चे को लेकर भारत आ गया। यहाँ फिर से इलाज शुरु हुआ। डॉक्टर आते, देखते और दवाई दे देते। इधर व्यापार में घाटा-ही-घाटा होने लगा। कर्ज बढ़ने लग गया।
एक दिन वह व्यथित मन से बच्चे को गोद में लेकर उसकी ओर देख रहा था। एकाएक बच्चा हँसने लगा। उसके मन में हुआ कि बच्चे को आराम हो गया। पूछा-‘बेटा, तबियत ठीक है ना?’ बच्चे ने कहा-‘पहचान लो मैं कौन हूँ। तुमने जो रुपए लिए थे, मैंने वसूल कर लिए। अब जो बचे हैं, उन्हें मेरे श्राद्ध में खर्च कर देना।’ इतना कहकर उसने शरीर छोड़ दिया।
इस प्रसंग से यह सीख मिलता है कि शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ मिलता है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 11-02-2007 ई0 को अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन, बरारी, भागलपुर में अपराह्नकालीन सत्संग के
सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च, 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
इस प्रकार की वर्षा झंझावात के चलते भी आपलोग पंडाल में दृढ़ होकर बैठे हुए हैं। आपलोगों के कष्टों को देखकर तो दुःख होता है, किन्तु आपलोगों की दृढ़ता, गंभीरता और सत्संग के प्रति प्रेम देखकर प्रसन्नता भी होती है। इसलिए आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर भक्ति का प्रचार होता है। यह पवित्र अध्यात्म ज्ञान है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ ईश्वर नहीं। इतने निकट वे हमारे हैं जितने निकट और कोई हमारे नहीं है, लेकिन समस्या विकट है कि निकट में रहते हुए भी हम उसे देख नहीं सकते हैं। एक रेकार्ड वाला भजन गाता था।
“ हायरे! इंसान की मजबूरियाँ, पास रहकर भी है कितनी दूरियाँ ।
कुछ अंधेरे में नजर आता नहीं, कोई तारा राह दिखलाता है नहीं ।।”
हमारे निकट हैं, लेकिन हम देख नहीं रहे हैं, क्यों नहीं देख रहे हैं? जबकि वह सर्वव्यापी है तो सर्वत्र है, सर्वत्र है तो हमारे अंदर भी है, तो हम देखते क्यों नहीं हैं? जो चीज जैसी होती है, उसके ग्रहण के लिये वैसे ही औजार की आवश्यकता होती है। एक घड़ी हमारे हाथ में बँधी हुई है, एक घड़ी दीवार में टंगी हुई है। जितने कल-पूर्जे हमारे हाथ की घड़ी में है, उतने ही कल-पूर्जे दीवार में लटकी हुई घड़ी में भी है; लेकिन जिस औजार से हम दीवार की घड़ी को खोल सकते हैं, बंद कर सकते हैं, ठीक कर सकते हैं, उस औजार से हम हाथ की घड़ी को नहीं खोल सकते हैं, नहीं बंद कर सकते हैं, नहीं ठीक कर सकते हैं; क्योंकि दीवार की घड़ी के कल-पूर्जे मोटे-मोटे हैं और हाथ की घड़ी के कल-पूर्जे महीन-महीन हैं। मोटे औजार से महीन तत्व को नहीं पकड़ सकते हैं, उसी तरह जो परम प्रभु परमात्मा इतने सूक्ष्म हैं कि वह सर्वव्यापी हैं, सबमें हैं। जो जितना सूक्ष्म होता है उसकी व्यापकता उतनी ही अधिक होती है। एक किलो बर्फ का ढेला आपके सामने रखा हुआ हो, वह जितनी दूरी ढकता है अगर उसी बर्फ को आप पानी बना दें तो उसका पसार अधिक होगा, उसको यदि आप वाष्प बना दें तो उसका पसार और अधिक होगा। विद्युत में परिवर्तित कर दीजिए तो उसका पसार और अधिक हो जाएगा, क्योंकि वह अधिक सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है वह अपने से स्थूल में व्यापक होता है। सूक्ष्म पहले होता है, स्थूल पीछे होता है। जिस स्थूल वस्तु को आप देख रहे हैं उसका पूर्व रूप सूक्ष्म है। कोई भी वस्तु देखिए। आप एक मकान बनाते हैं, देखते हैं जिसका रूप इतना लम्बा-चौड़ा है उसका रूप पहले दिमाग में बनता है। इतनी लम्बाई होगी, इतनी चौड़ाई होगी, इतने कमरे होंगे; ये सब तो पहले दिमाग में ही आता है। फिर उसे कागज पर दिखाते हैं, फिर उसको आकार देते हैं। एक वृक्ष आप देखते हैं कि विशाल है। वह ऐसे ही विशाल नहीं हो गया है। उस विशाल वृक्ष का पूर्व रूप अंकुर था, बीज से अंकुर, और अंकुर से विशाल वृक्ष तो यह जो हम अपना स्थूल शरीर देख रहे हैं। यह स्थूल शरीर ही नहीं है। यह केवल एक ब्रह्माण्ड को देख रहे हैं जो हमारे सामने है। यह स्थूल पहले नहीं बना, पीछे बना है। हमलोगों का शरीर पाँच तत्वों से बना हुआ है। जिसमें मिट्टी है, जल है, अग्नि है, वायु है, आकाश है। अब विचार कीजिए कि इन पाँच तत्वों में सबसे पूर्व का तत्व कौन होगा?
“ क्षिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित यह अधम शरीरा ।।”
सबसे पूर्व का आकाश है। अगर आकाश नहीं हो तो कोई चीज कहाँ रहेगा। इसलिए सबसे पहले का आकाश है, उसके बाद वायु है, उसके बाद अग्नि है, उसके बाद जल है और स्थल है। अर्थात् मिट्टी। आप देखते हैं जो पूर्व का होता है वह अपने से पश्चात् में व्यापक होता है। एक मिट्टी का ढेला है और पानी है, तो पानी व्यापक हो जायेगा मिट्टी के ढेले में। एक ग्लास में आप मिट्टी घोलकर रख दीजिए जो मिट्टी का अंश होगा वह नीचे में जम जाएगा और उसके ऊपर पानी होगा। उसमें व्यापक होकर उसके ऊपर होगा। उसी तरह जो पूर्व का होता है, उससे भी जो पूर्व का है; उसमें व्यापक होता है। जैसे-अग्नि जल में और मिट्टी में व्यापक है। उससे पूर्व में वायु है, वायु अग्नि में, जल में और मिट्टी में भी व्यापक है। उसके पहले आकाश है तो आकाश वायु में, अग्नि मे, जल में और मिट्टी में भी व्यापक है। जो जितना व्यापक है। उस तत्व की सूक्ष्मता भी उतनी ही अधिक है। इस पाँच तत्वों में सबसे अधिक सूक्ष्म आकाश है। इसलिए आकाश इन चारों तत्वों मे व्यापक है। उसी तरह जो परम प्रभु परमात्मा सबमें व्यापक है। वह कितना सूक्ष्म होगा। उस सूक्ष्म परमात्मा को हम इन स्थूल आँखों से पाना चाहें तो वह संभव नहीं होगा। इस स्थूल आँखों से हम शरीर के पाँच तत्वों को भी नहीं देख सकते हैं। मिट्टी, जल, अग्नि को देख सकते है, लेकिन क्या हवा को देखते हैं। किसी कवि ने कहा है-
“ इस नजर से हवा भी नहीं दिखलाएगी ।
इससे परमात्मा दिखे हँसी आएगी ।।”
वायु का स्पर्श होता है तो हम उसे जानते हैं, लेकिन आकाश का स्पर्श नहीं होता है। इसलिए हम उसे नहीं जानते हैं। वह परम प्रभु परमात्मा अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण हमारे अंदर भी हैं और बाहर भी। लेकिन बाहर हम देखेंगे इन्द्रियों से। हमारी इन्द्रियाँ इतनी मोटी-मोटी हैं कि उन सूक्ष्म तत्व को ग्रहण करने में सक्षम नहीं है। इसलिए ऐसी सूक्ष्म चीज होनी चाहिए जिससे उसको हम ग्रहण कर सकें।
“ जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये ।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिये ।।”
जैसे महदाकाश का ही अटूट अंश मठाकाश, घटाकाश और पटाकाश है। भिन्नता आवरण के कारण है। अगर आवरण नहीं हो, तो एक-ही-एक महदाकाश है। उसी तरह जीव के ऊपर अन्धकार, प्रकाश और शब्द के तीन आवरण हैं। ये तीनों आवरण नहीं रहें, तो जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं।
वह परमात्मा सबमें है तो हममें भी है। इसीलिए उसकी खोज अपने अंदर में होगी, बाहर में नहीं। गुरु नानक साहब कहते हैं-
“ सब किछु घर महि बाहरि नाहीं ।
बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।”
जो बाहर में खोजते हैं वे भ्रम में भूले हुए हैं, क्योंकि बाहर में वह इन इन्द्रियों से खोजेंगे और वह परम प्रभु परमात्मा के लिए कहा गया है, ‘आवांग मनसा गोचर।’ वह वचन और मन से परे हैं। इसलिए गुरुनानक देव जी कहते हैं-
“ काहै रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।”
गुरुनानक देव जी महाराज ने कहा कि वन में खोजने के लिए जाने की जरूरत नहीं है। जो सर्व निवासी परमात्मा हैं, वह तुम्हारे अंदर में व्यापक है। लेकिन किस तरह हैं-‘पुहप मधि जिउ बासु वसतु है।’ पुष्प को हम देखते हैं, लेकिन उसकी जो सुगंध है उसको हम नहीं देखते हैं। अगर सुगंध लेना चाहें तो हम नासिका से ले सकते हैं। हमारी चौदह इन्द्रियाँ हैं, इन चौदह इन्द्रियों में नासिका को छोड़कर और कोई भी इन्द्रियाँ गंध ग्रहण करने में सक्षम नहीं है। रूप देखते हैं, रूप देखने के लिए एक इन्द्रिय आँख है। आँख से हम रूप देखते हैं बाकी तेरह इन्द्रियों से हम रूप नहीं देख सकते हैं। उसी तरह जितने भी विषय हैं, उनके लिए एक-एक इन्द्रिय है, एक-एक इन्द्रिय एक-एक विषय के लिए है। जो निर्विषय तत्व है उसके लिए भी कुछ होना चाहिए। उस ईश्वर को देखने के लिए, प्राप्त करने के लिए केवल चेतन आत्मा है। केवल आप हैं, दूसरे नहीं। इसलिए भगवान महावीर ने कहा-‘अत्तानम् विद्धि।
अपने को जानो, जो अपने को जानते हैं, वही परमात्मा को जानते हैं। किसी शायर ने कहा है-
‘खुदी मिटाओ, खुदा मिलेंगे ।’
गुरु ज्ञान से बाहर-भीतर परमात्मा का ज्ञान होता है, जो परमात्मा बाहर में है, भीतर में भी वही है। लेकिन बाहर में उनकी सूक्ष्मता और हमारी इन्द्रियों की स्थूलता के कारण उनके दर्शन नहीं होंगे। इसलिए अपने अन्दर चलना होगा। अपने अंदर चलने के लिए सिमटाव करना होगा। हमारी बहिर्मुखी इन्द्रियाँ बाहर की चीजों को ग्रहण करती हैं, लेकिन भीतर की चीजों को ग्रहण करने के लिए क्रिया उलटनी होगी। बाहर की चीजों को हम आँखें खोलकर देखते हैं और भीतर की चीजों को देखने के लिए आँख, मुँह बंद करके देखेंगे। आँखों को बंद कर देखेंगे तो कुछ भी दिखेगा नहीं। अंधकार-अंधकार मालूम पड़ेगा, पूछेंगे भी कि आँखें बंद करके क्या दिखता है तो कहेंगे कि कुछ नहीं दिखता है। कुछ तो जरूर दिखता है? अरे अंधकार तो दिखता है। अंधकार तो जरूर दिखता है मगर जो अंधकार है उसमें क्या दिखेगा? तो अंधकार में हम कैसे देखें।
एक साधक कवि की उक्ति है-
“ भेद यह गुप्त पाना, किसी ग्रन्थ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ बिन दया संतन की ‘मेँहीँ’, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं ।।”
जैन धर्म में इसी को ‘प्रेक्षा ध्यान’ और बौद्ध धर्म में इसी को ‘विपश्यना’ कहा गया है। अभी आपलोगों ने जाबालदर्शनोपनिषद् के पाठ में सुना-
“ नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः ।।”
कहाँ देखें, किस तरह देखें? देखने की कला क्या है? इसी का यत्न संत सद्गुरु बतलाते हैं।
इस अवसर पर जैन धर्म की एक कथा स्मरण हो जाती है। जैन धर्म में मृगावती नाम कीएक सती हुई है। पहले तो वह राजरानी थी, पीछे श्रमणी बन गयी। उस मृगावती के पति का नाम था चंड प्रत्योदन। मृगावती देखने में अति सुन्दरी थी। उसके यहाँ एक कलाकार रहता था। संयोग से एक दिन मृगावती छत से ऊपर घूम रही थी। मृगावती को उस कलाकार ने देखा। उसका उसने चित्र बनाया। मृगावती देखने में अतीव सुन्दरी तो थी ही। उस कलाकार ने कलात्मक ढंग से बहुत सजा-धजाकर उसका चित्र बनाया और उस चित्र को राजा के सामने रखा। उस चित्र को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और कलाकार को पुरस्कृत करना चाहता ही था कि राजा की नजर पड़ गयी उस चित्र की जाँघ पर। मृगावती की जाँघ पर एक काला तिल का-सा दाग था। राजा के मन में कलाकार के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। उसने सोचा-कोई भी कलाकार एक सुंदर-से-सुंदर चित्र बना सकता है; लेकिन जो अंग वस्त्र से आच्छादित हो, उसको बिना देखे चित्र में कैसे बना सकता है! हो-न-हो, कलाकार के साथ मृगावती का कुसंग हो। मंत्री ने समझाया, ऐसी बात नहीं हो सकती। मृगावती सती है और कलाकार भी पवित्र है। लेकिन राजा को मंत्री की बात पर विश्वास नहीं हुआ। मंत्री ने विश्वास दिलाने के लिए कहा कि यह कलाकार इतना कुशल है कि इसको किसी के शरीर का कोई भी एक छोटे-से-छोटा अंग दिखला दिया जाए, तो वह उसके संपूर्ण शरीर का ठीक-ठीक-हु-ब-हू चित्र सामने रख देगा। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मंत्री ने एक कुबड़ी नारी को परदे में रखा और मात्र उसका एक अंगूठा कलाकार को दिखलाया। मात्र अंगूठा देखकर कलाकार ने उसके पूरे शरीर का ठीक-ठीक चित्र बनाकर सबके सामने रख दिया, जिसमें उस नारी का कूबड़ भी उभरा हुआ था। मंत्री ने राजा से कहा, ‘देखिये, कुबड़ी तो परदे में थी, फिर भी उसका सही चित्र कलाकार ने बना दिया है। लेकिन राजा को संतोष नहीं हुआ। उसने अपमानित करके कलाकार को निष्कासित कर दिया। इससे कलाकार को बहुत दुःख हुआ। उसने इसका बदला लेने की मन में ठान ली। मृगावती का चित्र लेकर कलाकार वहाँ चला जाता है, जहाँ चण्ड प्रत्योदन से बड़ा राजा था। चित्र देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। कलाकार ने कहा,‘राजन्! आप-जैसे सुयोग्य श्रेष्ठ राजा के योग्य ही यह देवांगना-सी नारी है, जो कि एक छोटे राजा के पास रह रही है।’ वह राजा कलाकार की बात में आ गया और उसने राजा प्रत्योदन के पास पत्र लिखा कि तुम अपनी पत्नी को मेरे पास भेज दो। भला अपनी पत्नी को कौन किसके पास भेजता है? नहीं भेजा। उस राजा ने सेना लेकर राजा प्रत्योदन पर चढ़ाई कर दी। राजा का किला चतुरंगिनी सेना से घिर गया। जब चंड प्रत्योदन को मालूम हुआ कि दुश्मन की फौज ने किला घेर लिया है, तो डर के मारे हार्ट अटैक हो गया और तत्क्षण उसका प्राणान्त हो गया।
आक्रामक राजा को मृगावती ने समझाया प्रेम करने का एक समय होता है। अभी मेरे ऊपर वज्र का पहाड़ गिर गया है। मुझे शांति लेने दें। अभी आप वापस जाएँ, मैं पीछे बात करूँगी। मृगावती की बात सुनकर राजा लौट गया। बीच-बीच में परस्पर पत्रचार होता रहा। येन-केन प्रकारेण मृगावती टालती रही। इस प्रकार कई वर्ष बीत गये। राजा ने देखा, मृगावती टालमटोल कर रही है। उसने फिर फौज लेकर मृगावती पर चढ़ाई कर दी। फौज से किले के घिर जाने पर मंत्री ने मृगावती से पूछा, ‘अब क्या किया जाए?’ संयोग ऐसा होता है कि उसी अवसर पर भगवान महावीर आते हैं और आम्रवन में जाकर ठहरते हैं। मृगावती को मालूम हुआ कि भगवान आम्रवन में आये हुए हैं। वह अपने किले का दरवाजा खुलवाती है और पुत्र के साथ भगवान के दर्शनार्थ वहाँ के लिए प्रस्थान करती है। मंत्री ने मना किया। कहा-‘दुश्मन ने किले को घेर लिया है। जैसे ही फाटक खुलेगा, दुश्मन प्रवेश कर जाएँगे।’ मृगावती ने कहा, ‘भगवान हमारी रक्षा करेंगे। मुझे जाने दो।’ मृगावती आम्रवन में पहुँचकर भगवान महावीर के दर्शन करती है। संयोग ऐसा होता है कि उसी समय वह राजा भी, जिसने मृगावती के किले को घेर रखा था, भगवान के दर्शनार्थ वहीं आता है। भगवान महावीर के दर्शन मात्र से उस राजा का मन पवित्र हो जाता है। मृगावती को बहन कहकर संबोधित करता है और जिज्ञासा करता है, ‘कहो बहन! कुशल समाचार?’ मृगावती अपने पुत्र को आगे करते हुए कहती है,‘सब कुशल है। यह तुम्हारा भगना है, इसे सँभालो।’ संत के दर्शन से राजा का हृदय परिवर्तन हो चुका था। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) उसने उसको वहाँ का राजा बना दिया और स्वयं ससैन्य वापस लौट गया।
रानी भिक्षुणी बन गयी। वह मठ में जहाँ जैन मुनि थे, वहीं महिला के संरक्षण में रहने लगी। उस महिला ने उसको कुछ क्रिया बतलायी उस क्रिया को बतलाने पर वह जो ध्यान करने लगी। ध्यान करते समय अंदर में प्रकाश मिला। एक दिन जिसके अंदर में रहकर वह ध्यान करती थी। वह सोयी हुई थी। उसके बाँह पर से एक साँप जा रहा था। मृगावती जो बैठकर ध्यान कर रही थी वह उनके बाँह को समेट दी, तो उसकी नींद टुट गयी और बोली कि क्यों जगायी? मृगावती बोली कि एक साँप था जो आपके बाँह पर से जा रहा था इसलिए मैंने बाँह समेट दी। महिला ने बोली तुमको अंधेरे में भी सूझता है? तो कहा- “ हाँ, आपने जो क्रिया बतलायी है उस क्रिया से मुझे अंधेरे में भी दिखता है।” (श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
वह कौन सी क्रिया है जिस क्रिया से अंधेरे में भी दिखता है? वह सूक्ष्म क्रिया है। जिससे अंधेरे में भी दिखता है। कोई विद्यार्थी जब पढ़ने विद्यालय जाता है तो उसको पहले वर्णमाला सिखाया जाता है, वर्णमाला को सीखता है और धीरे-धीरे वह आगे बढ़ता है। पहले स्थूल अवलम्ब लिया जाता है अ=अनार, आ=आम, इ=इमली, स्थूल अवलम्ब लिया जाता है। अनार तो बच्चा खा चुका है इसीलिए जो देखा जा चुका है उसी के अवलम्ब से वह अनार का ज्ञान दिया जाता है। अनार का ज्ञान देना नहीं है ‘अ’ का ज्ञान देना है। बच्चे आम खा चुके हैं, लेकिन आम के माध्यम से ‘आ’ का ज्ञान दिया जाता है। जिस तरह एक रूप के आधार पर एक अक्षर का बोध दिया जाता है उसी तरह अपने अंदर जो अक्षर है ‘न क्षरति इति क्षरः’ जिसका क्षरण कभी नहीं होता उसका जो ज्ञान होगा उसके लिए एक अवलम्ब चाहिए, उसी अवलम्ब के लिए है मन का सिमटाव।
मन का सिमटाव कैसे होगा? मन जड़ है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दीक्षा दी। अर्जुन ने कहा-
“ चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाधिबलवद्दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता)
हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसका वश करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यंत दुष्कर मानता हूँ।
भगवान कृष्ण ने कहा-
“ असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चंचलम ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च ग्रहयते ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता)
श्री भगवान बोले-हे महाबाहु! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है। परन्तु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।
किसी शास्त्रकार ने कहा है-
“ मनमधुकरमेधो माननीय मदनमरुतः ।
मा मदः मर्कटमत्सयो मकार दस चंचलाः ।।”
दस मकार बहुत चंचल होते हैं। इन दस चंचल में पहले मन को ही रखा गया है। मन इतना चंचल है कि इसको वश में करना कठिन है। जिस तरह वायु को वश में करना कठिन है उसी तरह मन को वश में करना कठिन है, लेकिन वायु को तो वश में कर लेते हैं। जब हम गाड़ी के पहिये में हवा देते हैं तो वहाँ हवा बन्द हो जाती है। जब बैलून में हवा देते हैं तो वहाँ हवा बन्द हो जाती है। जब हम पानी पीते हैं, तब श्वांस बन्द हो जाता है तो हवा तो बंद हो जाती है, लेकिन मन नहीं रूकता है। मन को कैसे रोका जाय। इसी मन को रोकने के लिए जिस तरह नदी में कोई डूब रहा हो तो पानी से निकलने के लिए पानी का ही अवलम्ब लेते हुए तैर कर निकलता है। उसी प्रकार जिन विषयों को लेकर यह मन चंचल है उन्हीं विषयों में से किसी एक विषय को लेते हैं। यह जगत नाम रूपात्मक है। जो नामरूप है उसी का अवलम्ब लेकर नामरूपविहीन परमात्मा के पास पहुँचते हैं। इसीलिए किसी एक नाम का जप बतलाया जाता है। जप भी कई प्रकार के होते हैं-वाचिक जप, उपांशु जप, श्वांस जप और मानस जप।
वाचिक जप से दस गुणा लाभ उपांशु जप में और उपांशु जप से सौ गुणा लाभ श्वांस जप और श्वांस जप से हजार गुणा लाभ मानस जप में है। मानस जप को जपों का प्राण कहा गया है। ठीक-ठीक जप करने से सिद्धि मिल जाती है।
एक सत्संगी लड़का अभी भी मौजूद है। जिस समय गुरु महाराज स्वस्थ थे, स्वयं दीक्षा दिया करते थे, वह लड़का उस समय आई0एस-सी0 में पढ़ता था। दीक्षा ली थी गुरु महाराज से। उसने कुछ किया। उसमें यह सिद्धि आ गयी थी कि आप जो प्रश्न करते, उस प्रश्न का उत्तर मुँह से नहीं दिया करता था। लकड़ी के कोयले को पीसकर पुड़िया बनाकर रखे हुए था। जब कोई पूछते तो उस काजल को वह अपनी बाँह पर लेप लेता था। प्रश्न का उत्तर उसकी बाँह में निकल आता। यह तमाशा करने लगा वह। गुरु महाराज को यह बात मालूम हुई। गुरु महाराज ने उसके पिता से कहा, ‘लड़के को मना कर दीजिए। यह तमाशा दिखाने की चीज नहीं है।’ उसको मनाही की गयी। लेकिन लड़के ने मानी नहीं बात। गुरु महाराज ने कहा, ‘उसको यहाँ भेज दीजिए।’ उसके पिता उसको लेते हुए यहाँ कुप्पाघाट आये। कुप्पाघाट आश्रम में बहुत-से लड़के रहते हैं। उनलोगों ने पूछा, ‘बताओ! इस बार हम परीक्षा में पास होंगे या फेल? कितने नम्बर आयेंगे?’ वह बताने लगा उनको। लड़के की बारी जब खत्म हो गयी, तो बड़के की बारी आयी। कहा, ‘चलो गुरु महाराज के सामने पूछेंगे, उत्तर देना, तो समझेंगे कि ठीक है।’ गुरु महाराज ने तो मनाही कर दी थी। ‘मायापति सेवक तन माया। करइ तो उलटि परइ खगराया।।’ जिनकी माया थी, उनके सामने ही वह माया दिखाने पहुँच गया। गुरु महाराज बैठे हुए थे और जो सत्संगी लोग वहाँ थे, वे सब भी बैठ गये। प्रश्न कर दिया। काजल उसने पोता। काजल पोता ही रह गया, कुछ निकला नहीं, समाप्त हो गया। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
“ मंत्रकर्षण जप दस भाला ।
अहिरावण मन डोल पताला ।।”
जब रावण ने मंत्रकर्षण किया तब अहिरावण जो पाताल में था, उसका मन डोलने लगा। मंत्र जप एक प्रकार का आवाहन है। किसी नाम का जब हम जप करते हैं, जप के द्वारा पुकारते हैं तो उसका रूप भी हमारे सामने आता है। अब प्रश्न होता है कि किस मंत्र का जप करें? महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में आया है-
‘अति पावन गुरु मंत्र, मन ही मन जाप जपो ।’
गुरु प्रदत्त मंत्र ही सर्वोत्तम होता है। संत कबीर साहब ने भी कहा है-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत्भाव ।।”
गुरु रूप का ध्यान एवं गुरु चरण की पूजा और गुरु वचन ही मंत्र है। मानस जप के बाद मानस ध्यान होता है। अगर मानस ध्यान ठीक से कोई कर पाता है, तो गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ सतिगुर की मूरति हिरदै बसाए ।
जो ईछे सोई फलु पाए ।।”
अगर ठीक-ठीक मानस ध्यान कर पाता है, तो जो वह कामना करेगा, वह पूरी हो जाएगी। आपलोगों ने पढ़ी होगी कथा एकलव्य की। एकलव्य आचार्य द्रोण के पास गया था धनुर्विद्या सीखने के लिए। लेकिन आचार्य द्रोण ने धनुर्विद्या नहीं सिखलायी। उन्होंने कहा, ‘मैं केवल राजपुत्रें को ही यह विद्या सीखलाता हूँ।’ लेकिन इसने धारण कर लिया अपने मन में कि ये ही मेरे गुरु हैं। आचार्य द्रोण की मूर्ति की प्रतिष्ठा करता है, वह जंगल आकर। उनका वह ध्यान करता है और जैसे-जैसे संकेत मिलता है, वैसे-वैसे वह शर-संधान करता है। शर-संधान करते-करते वह इतना कुशल निकलता है कि कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। आचार्य द्रोण ने अर्जुन से कहा था कि तुमसे बेशी किसी को नहीं सिखलाऊँगा। वह अर्जुन से भी विशेष निकला। जब सब-के-सब पाँचो भाई पांडव गये जंगल में आचार्य द्रोण के साथ, तो उनके साथ एक कुत्ता भी गया था। एकलव्य बैठकर ध्यान कर रहा था। कुत्ता भुँकने लग गया। ध्यान उसका भंग हो गया। इतने तीर मारे उस कुत्ते के मुँह में कि उसका मुँह तरकश हो गया। एक भी बूँद खून नहीं निकली। मुँह भर गया, वापस हुआ कुत्ता। अर्जुन की दृष्टि पड़ी कुत्ते पर। अर्जुन ने पूछा, ‘गुरुदेव! आपने तो कहा था कि तुमसे बढ़कर धनुर्विद्या की शिक्षा किसी को नहीं दूँगा। मुझसे बढ़कर यह किसको दी?’ द्रोण ने कहा, ‘मैंने तो इस तरह की विद्या किसी को नहीं दी है। चलो, आगे इसका भेद खुलेगा।’ सब-के-सब वहाँ पहुँच गये, जहाँ एकलव्य ध्यान कर रहा था। पग की आहट से उसका ध्यान भंग हुआ, तो देखता है कि आचार्य द्रोण है। पैर छूकर प्रणाम करता है। आचार्य द्रोण पूछते हैं, ‘कुत्ते को इस तरह बाण किसने मारा है?’
एकलव्य ने कहा, ‘आपका जो शिष्य है, उसने मारा है।’ द्रोण ने पूछा, ‘वह मेरा शिष्य कौन है?’ उसने कहा, ‘मैं।’ द्रोण ने पूछा, ‘कब तुमने मुझसे शिक्षा ली? कब तुम मेरे शिष्य बने?’ उसने कहा, ‘महाराज! मैं जब आपके यहाँ दीक्षा लेने गया था, तो आपने मुझे दीक्षा नहीं दी थी, तो मैंने आपको गुरु मान लिया और आपकी मूर्ति का गठन करके साधना की, उसका जो परिणाम है, सो आपके सामने है।’ एकलव्य के मन में केवल यही कामना थी कि धनुर्विद्या में मैं कुशल हो जाऊँ, तो कुशल हो गया। यह मानस ध्यान में गुण है। जो मानस जप, मानस ध्यान एकाग्रतापूर्वक कर लेते हैं, तो उनमें वह शक्ति आ जाती है कि वे दृष्टिसाधन करें। जो महीन क्रिया है।
आचार्य तुलसी ने कहा-
“ ध्यान-केन्द्र प्रसिद्ध है, हितकर आज्ञाचक्र ।
ज्योतित कण-कण को करे, जो मन रहे अवक्र ।।
प्राण-केन्द्र नासाग्र पर, लगता जिसका ध्यान ।
उसके प्राणों में सदा, भर जाती मुसकान ।।”
जो आज्ञाचक्र का ध्यान करता है, जो नासाग्र का ध्यान करता है उनको अंतःप्रकाश मिलता है। कण-कण ज्योति होता है। ऐसा आचार्य तुलसी ने कहा है। तो यह आज्ञाचक्र क्या है? उसका नाम ही है आज्ञाचक्र। आज्ञाचक्र को छठा चक्र भी कहते हैं। इसके नीचे पाँच चक्र हैं-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, नाभि, हृदय और कंठचक्र। छठा चक्र ही आज्ञाचक्र है।
स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो तब उर होत इंजोर ।।”
जब दृष्टि साधन की क्रिया करते हैं तब अपने अंदर प्रकाश होता है। दृष्टि साधन में भी भेद है। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमादृष्टि। अमादृष्टि में आँखें बन्द करके तथा प्रतिपदा में आधी आँख खुली रखकर और पूर्णिमादृष्टि में खुली आँखों से ध्यान करते हैं। प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमादृष्टि कष्टकर होता है, लेकिन अमादृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता है। इसलिये अमादृष्टि को सुगम दृष्टि कहा गया है।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से, चीरि तेजस विन्दु ।
सुनो अन्दर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु ।।”
जो ध्यान करते हैं उसे अपने अंदर सूर्य, तारे और इन्दु भी मालुम पड़ते हैं। कुरानशरीफ में भी लिखा है-‘एक सज्जन थे। उसने अपने पिता से कहा आप जिस मार्ग से चलते हैं। मैं उस मार्ग पर नहीं चलुँगा। वह जब ध्यान करता था तो अंधकार मालूम पड़ा और अंधकार में देखने लगा तो देखते-देखते उसे एक तारा मालूम पड़ा तो उसके मन में आया कि ये ही अल्लाह है, लेकिन वह तारा टिका नहीं विलीन हो गया। तब कहा नहीं यह अल्लाह नहीं है। फिर चाँद को देखा तब उसने कहा कि यही अल्लाह है, लेकिन वह चंद्रमा भी नहीं टिका थोड़ी देर में विलीन हो गया। तब उसने कहा कि यह भी अल्लाह नहीं है। कुछ देर के बाद सूर्य (आफताब) का दर्शन हुआ तो वह भी विलीन हो गया। तब उसे हुआ कि यह भी अल्लाह नहीं है तो अपने अंदर में जो साधक साधना करते हैं तो उसे सूर्य, तारे और चंद्र ये सब दिखायी पड़ते हैं। रामचरितमानस में भी आया है-
“ जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहु ओरा ।।
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।।”
“ यह प्रताप रबि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
जैसे दीपक के प्रकाश में फतिंगे जा-जाकर जलकर मरते हैं, उसी तरह अंदर के प्रकाश में सभी विकार जल-जलकर विनाश हो जाएँगे। आवश्यकता है अपने अंतःप्रकाश को प्राप्त करने की। प्रकाश प्राप्त करने का यत्न क्या है, गुरु से जानो। नहीं तो भटकते रहेंगे। बिना गुरु के अध्यात्म पग में एक पग भी नहीं बढ़ाया जा सकता है। गुरु के महत्त्व को दर्शाते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ रवि पंचक जाके नहीं, ताहिं चतुर्थी नाहिं ।
तेहि सप्तक घेरे रहै, कबहुँ तृतीया नाहिं ।।”
जिसको रवि पंचक नहीं है, यानी-रवि, सोम, मंगल, बुध और गुरु; जिनको गुरु नहीं है। रवि पंचक का अर्थ होता है गुरु; क्योंकि रवि का पाँचवाँ दिन होता है-बृहस्पति। बृहस्पति ही गुरु कहलाता है। जिनको गुरु नहीं है, उनके जीवन में कभी चतुर्थी नहीं आयेगी। चतुर्थी किसको कहते हैं? रवि सोम, मंगल, बुध। उसको सद्बुद्धि नहीं मिलेगी। परिणाम क्या होगा? ‘तेहि सप्तक घेरे रहै।’ सप्तक क्या होता है-रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि। अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा। परिणाम क्या होगा-‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’ तृतीया क्या होती है? रवि, सोम, मंगल। उसके जीवन में मंगल कभी नहीं होगा। इसलिए यदि मंगल चाहते हैं, तो संत सद्गुरु की शरण जाइए। इसलिए जिनकी गुरु में श्रद्धा है, भक्ति है, प्रेम है, तो उनके लोक-परलोक-दोनों बन जाते हैं। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
“ बिन दया संतन की मेँहीँ, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं ।।”
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
एक तो अंतर्ज्योति की बात जानो और दूसरी अंतर्नाद की। संत चरणदासजी महाराज अंतर्नाद की महिमा इस भाँति गाते हैं-
“ जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्रिय थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।।”
अंतर्नाद की साधना से इन्द्रियाँ थक जाएँगी, मन गल जाएगा। विचारणीय विषय है कि इन्द्रियाँ विषयों में कैसे जाती हैं? मन की प्रेरणा से। जब नाद-साधना में मन गल जाएगा, तब इन्द्रियों को विषयों में प्रेरित कौन करेगा? इस प्रकार अंतर्नाद की साधना से मन वशीभूत होता है और इन्द्रियों की चपलता छूटती है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
अर्थात् नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।।44।।
जो अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की साधना करते हैं, उनके सारे विकार समूल नष्ट हो जाते हैं। नादानुसंधान करके साधक शब्द से निःशब्द में चले जाते हैं, परमात्मा को पा लेते हैं। परमात्मा के गुण से भी गुणान्वित हो जाते हैं। इसीलिए लोग कहते है कि फलाने साधु हैं, संत हैं, त्रिकालदर्शी हैं। क्यों कहते हैं? क्योंकि उसके अंदर कुछ-न-कुछ गुण आ जाता है। इसलिए संतमत की साधना बहुत सरल साधना है। वह है मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसन्धान। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी है।
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
जो उस शब्द को पकड़ता है, जो ईश्वर का निकटतम शब्द है, उससे खिंचकर वह ईश्वर तक पहुँच जाता है। उसका आवागमन छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक इन त्रितापों से मुक्त हो जाता है। इतना ही कहकर मैं अपने वाणी को विराम देता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन बरारी, भागलपुर में 12-02-2007 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
दो तरह की मिठाईयाँ हैं, एक में चीनी अधिक पड़ी है और दूसरी में चीनी कम पड़ी है जब अधिक चीनी वाली मिठाई पहले खा लेते हैं और कम चीनी वाली मिठाई पीछे खाते हैं तो पीछे की मिठाई फीकी लगती है। इसी तरह तेज गले की आवाज आपलोगों ने सुन ली है। मेरे मन्द गले की आवाज सुनकर फीका लगेगा, यह स्वाभाविक है। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संतमत सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। आज रामचरित मानस से भक्ति विषयक पाठ हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम परम भक्तिन शबरी को उपदेश किया है। शबरी मातंग ऋषि की शिष्या थी और भक्ति के सभी अंगों में निष्णात (पारंगत) थी, फिर भी मर्यादा पुरुषोत्तम ने जग उपकार के लिए उसको माध्यम बनाकर के हमलोगों को शिक्षा दी है।
भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय लगाने से बनता है। भक्ति का अर्थ है सेवा। सेवा कई प्रकार की होती है। मातृ सेवा, पितृ सेवा, गुरु सेवा, समाज सेवा, देश सेवा और विविध प्रकार की सेवा। कोई भूखा है, उसको खिला दिया; कोई प्यासा है, उसको जल पिला दिया; वह उसकी सेवा हो गयी। कोई वस्त्रहीन है तो उसको वस्त्र दे दिया, यह भी सेवा है। देश काल और पात्र देखकर सेवा की जाती है।
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह अर्जुन के वाणों से घायल होकर धराशायी हो गए। उनके शरीर में इतने वाण लगे कि वाणों पर ही शरीर लटक गया। वाण ही उनके लिए शय्या हो गए। उस दिन युद्ध समाप्त हो गया और कौरव-पाण्डव दल के मुख्य-मुख्य लोग भीष्म पितामह के पास उनके दर्शन के लिए पहुँचे भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा कि मेरा सिर नीचे लटक रहा है, तकिया दो। उन्होंने अपने नौकर से कहा, ‘जाओ, मखमल का खूब बढ़िया मुलायम तकिया ले आओ।’ यह सुनकर भीष्म पितामह बहुत दुःखी हुए और उन्होंने अर्जुन की ओर देखकर कहा, ‘अर्जुन! तकिया दो।’ अर्जुन ने तरकस से तीन वाण निकाले और उनके सिर में दे मारे। सिर जो लटक रहा था, वाणों पर अटक गया। पितामह ने कहा, वाह! शाबाश बेटा!! जिस तरह की शय्या है, उसी तरह का तकिया देकर तुमने शौर्य का सम्मान किया है। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि ‘तुम्हारी विजय हो।” यह है सामयिक सेवा। देश, काल, पात्र देखकर अर्जुन ने सेवा की। पुनः भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा कि प्यास लगी है, जल पिलाओ। दुर्योधन ने नौकरों से कहा, ‘सोने के पात्र में शीतल जल ले आओ।’ पुनः भीष्म निराश होकर अर्जुन से बोले, ‘बेटा! जल पिलाओ।’ अर्जुन ने पृथ्वी में तीर मारा, उससे जल की धारा फूट पड़ी और शीतल जल भीष्म पितामह के मुँह मे चला गया। पितामह ने कहा, ‘वाह बेटा! शाबास!! मेरा आशीर्वाद है।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
ईश्वर को किसी चीज की आवश्यकता नहीं है, तो उनकी सेवा कैसे करें? क्या ईश्वर का पैर दबाया जाय, खिलाया-पिलाया जाय, क्या किया जाय? उनको कोई आवश्यकता नहीं है।
हमारे गुरुदेव एक कथा कहते थे-‘एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, उसने जंगल में एक मुनि बालक को देखा। बालक छोटा था लेकिन देखने में बड़ा सुंदर था। राजा ने कहा-‘अरे! तू जंगल में भटक रहा है। चलो मेरे साथ, मैं इस देश का राजा हूँ, तुमको अच्छी तरह खिलाऊँगा, सुन्दर वस्त्र पहनाऊँगा, सो जाओगे तो पहरेदार पहरा करेगा, चलो।’
मुनि बालक था तो छोटा, लेकिन तीव्र बुद्धि का था। उसने कहा-‘राजन तुम्हारे यहाँ मैं नहीं जाऊँगा, अगर ले जाना चाहते हो तो इस शर्त पर ले चलो कि तुम नहीं खाना, मुझे खिलाना। तुम नहीं पहनना, मुझे पहनाना। तुम नहीं सोना मुझे सुलाना, तुम जल नहीं पीना मुझे पिलाना। मैं सो जाऊँगा तो तुम जगकर के मेरा पहरा करना। राजा ने कहा-‘ऐसा तो नहीं होगा जैसी व्यवस्था मेरे लिए होगा। वैसी व्यवस्था तुम्हारे लिए भी होगा, तब मुनि बालक ने कहा कि ऐसे मालिक के यहाँ मैं नहीं जाऊँगा। मेरा मालिक ऐसा है वह दुनिया को खिलाता है स्वयं खाता नहीं, दुनिया को रहने के लिए जगह दी है, उनके लिए जगह नहीं है। वह तो सब जगह हैं, वह जाएँगे कहाँ और आयेंगे कहाँ। न उनको भूख है न प्यास है। मैं सो जाता हूँ, वह जगकर पहरा करते हैं ऐसे मालिक को छोड़कर मैं तुम्हारे यहाँ क्यों जाऊँगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
उस परमात्मा को कोई चीज नहीं चाहिए, तो क्या चाहिए? बहुत-से लोग देवघर जाते हैं। कितने पैदल जाते हैं, कितने दंड-प्रणाम करते हुए जाते हैं, यह भी भक्ति है। इसी प्रकार ईश्वर-दर्शन के लिए जहाँ ईश्वर-दर्शन होंगे, वहाँ जाना भी ईश्वर की सेवा है। इसके लिए क्या करना होगा? इसी के लिए भगवान श्रीराम ने शबरी को नौ प्रकार की भक्ति बतलायी, ‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।’ संतों का संग करो, यह पहली भक्ति है।
आप फुलवारी में जाइए, बिना माँगे भी आपको सुगंध मिलेगी। फुलवारी में जो सुगंध है उस फुल का सुगंध है आपको मिलेगा। उसी प्रकार आप संतों के पास जाइए तो कुछ माँगिए नहीं, केवल बैठे रहिए तब भी आपके मन की बात को पूरा करेंगे। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
संत देने के लिए जानते हैं, लेने के लिए नहीं। संत सुंदरदासजी महाराज की वाणी है-
“ साँचो उपदेश देत, भली-भली सीख देत ।
समता सुबुद्धि देत, कुमति हरतु है ।।
मारग बताई देत, भाव भगति देत ।
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरतु है ।।
ज्ञान देत ध्यान देत, आतम विचार देत ।
ब्रह्म को बताई देत, ब्रह्म में चरतु है ।।
सुन्दर कहत जग संत कुछ लेत नाहीं ।
निशदिन संतजन देवो ही करतु है ।।”
संत सुंदरदासजी महाराज कहते हैं-संतजन देते हैं, कुछ लेते नहीं। इसीलिए इस ज्ञान को लेने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामजी ने कहा-
‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’
अभी हमलोग कार से आ रहे थे तो रास्ते में बातचीत हुई कि-
“ कबहु दिवस मह निविरतम, कबहु प्रगट पतंग ।
उपजै विनसै ज्ञान बिन, पाय कुसंग सुसंग ।।”
कल वर्षा हो रही थी, आज सूर्य का प्रकाश है। कभी दिवस में अंधेरा छा जाता है और कभी सूर्योदय होने से प्रकाश हो जाता है। उसी तरह से जब कुसंग होता है, जीवन अंधकारमय हो जाता है। जब सत्संग होता है, सत्संग के कारण से उसका जीवन प्रकाशमय हो जाता है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा ।’
दूसरी भक्ति है, साधु-महात्माओं के वचनों को प्रेमपूर्वक सुनना। ऐसा नहीं कि एक कान से सुने और दूसरे कान से निकाल दिए, बल्कि सुनकर उसपर मनन कीजिए और आचरण में लाइये, तब कल्याण होगा। जो भक्ति का भेद बतलानेवाला होते हैं, वे गुरु कहलाते हैं।
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
मान-रहित होकर गुरु की सेवा करो, तब तीसरी भक्ति होगी।
महाराष्ट्र में एक संत समर्थ रामदासजी थे। उनके बहुत से शिष्य थे। कुछ शिष्य उनकी सेवा में भी रहते थे। शिष्यों में एक शिवाजी राव भी थे। शिवाजी राव जब आते थे तो समर्थ रामदासजी आदर करते थे। जो संन्यासी साधु उसकी सेवा में रहते थे तो उनके मन में होता था कि ये राजा हैं, इसलिए आते हैं तो आदर मिलता है। हमलोग दिन-रात सेवा करते हैं, हमलोगों को कुछ भी नहीं। समर्थ रामदासजी जी महाराज तो ऊँचे दर्जे के संत थे वे सबके दिल की बात जानते थे।
रामकृष्ण परमहंस जी महाराज ने कहा है-‘तुमलोगों का हृदय कांच की आलमारी है। कांच की आलमारी में बाहर से चीज देखी जाती है उसी तरह जितना भी तुम कुछ छिपाओ, तुम्हारे भीतर जो है वह पहले मालूम पड़ेगा।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) तो समर्थ रामदासजी महाराज उनलोगों की भावना को समझ गये। उन्होंने क्या किया एक बहाना कर दिया कि पेट में बहुत जोरों का दर्द है। उनके जो सेवा करने वाले लोग थे, उन्होंने कहा कि गुरु महाराज इसकी क्या दवाई है? बोलिये न मैं ले आऊँगा। तो समर्थ रामदासजी बोले, दवाई ही इसके लिए नहीं है। अब तो मेरा अंतिम समय आ गया है। इसी बीमारी में जाऊँगा। तब शिष्यों ने कहा-‘गुरुदेव! बीमारी है तो दवाई भी कुछ-न-कुछ जरूर होगी।’ तब रामदासजी ने कहा-‘दवा क्यों नहीं है, दवा तो है लेकिन जिस दवा को कोई ला ही नहीं सकता है तो उस दवा के बारे में कहने से क्या लाभ?’ शिष्यों ने कहा-‘कौन सी दवा है?’ तब रामदासजी ने कहा-‘बाघिनी का दूध अगर आवे तभी हमारा यह पेट दर्द दूर होगा।’ अगर कोई बकरी का दूध, गाय का दूध, भैंस का दूध लाने के लिए कहे तो ले आवे मगर बाघिनी का दूध कौन लावे। सब शिष्य एक दूसरे का मूँह देखने लगे।
समर्थ रामदासजी ने कहा-‘देखो जी अब मेरा अंतिम समय है। शिवा को खबर दो कि गुरुजी का अब अंतिम समय है जाकर के भेंट कीजिए। शिवाजी को प्यार से शिवा कहा करते थे। शिष्यों ने शिवा को यह समाचार सुनाया। शिवाजी राव सुनते ही गुरुदेव के दर्शनार्थ आ गये। गुरुदेव को दर्द से छटपट करते हुए देखकर कहा-‘गुरुदेव! आपको क्या हो गया?’ तब रामदासजी ने कहा-‘शिवा मत पूछो अब मुझे संसार से जाना है। पेट में इतनी जोरो की दर्द है कि अब बचने का कोई उपाय नहीं है। कोई दवा है तो बतलाइये। दवाई है लेकिन लाना बहुत मुश्किल है, कोई ला नहीं सकता है। तब शिवा ने कहा-‘महाराज संसार में जहाँ कहीं दवाई होगा मैं ले आऊँगा, आप दवा तो बतलाइये। उन्होंने कहा-‘दवा है बाघिनी का दूध। अब बाघिनी का दूध लाने कौन जाय, लेकिन शिवाजी राव तैयार हो गये, तुरंत चले। बाघिनी तो कहीं गाँव-घर में मिलते नहीं है, वह तो जंगल में मिलेगी। घनघोर जंगल में प्रवेश कर गये। एक जगह बाघिनी के छोटे-छोटे तीन बच्चे खेल रहे थे। बाघिनी तो थी नहीं फिर भी मन में हुआ कि बच्चा है तो इसकी माँ कहाँ जाएगी। कहीं गयी होगी तो जरूर आयेगी यह सोचकर बच्चे को सहलाने लगे। इतने में बाघिनी आयी। बाघिनी ने देखा कि हमारे बच्चे को पकड़ रहा है तो वह शिवाजी के गले पर अपना पंजा दिया। तब शिवाजी ने कहा-‘माँ मैं तुम्हारे बच्चों को कष्ट देने नहीं आया हूँ। हमारे गुरुदेव बीमार हैं उसके लिए दूध चाहिए, थोड़ा दूध दे दो (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय और ऐसा कहते गुरुदेव रो पड़े)
अब शिवाजी के गर्दन पर बाघिनी ने जो अपना पंजा रखा था, उतार लिया और शांत हो गयी। सभी बच्चे दूध पीने लगे और ये दूध दूह लिया, वहाँ से चल दिया कुछ नहीं कहा।
अब इधर समर्थ रामदासजी कहते हैं देखो जी शिवा गया जंगल अब क्या हो गया जो अभी तक लौटा नहीं है चलो देखें शिवा कहाँ है। बाघिनी का दूध ढूंढने जंगल चला गया। ये शिष्यों के साथ जंगल की ओर जा रहे हैं और उधर से शिवाजी राव दूध लेकर आ रहे थे। तब शिवा ने कहा-‘गुरुदेव कैसे हैं। बेटा तुम्हारे जैसा सेवक है तो दूध की कोई आवश्यकता नहीं। दर्द तो स्वतः भाग जायेगा। (श्रोताओं की ओर श्रीसद्गुरु महाराज की जय) तो कहा है कि आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा। गुरु की सेवा करेंगे तो गुरु कुछ बतलाएँगे करने के लिए तो उनका संबंध है चौथी भक्ति से।
‘चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।’
बाहरी दिखावा नहीं, अंतर से प्रभु का गुणगान करो। छल-कपट छोड़कर ईश-स्तुति प्रार्थना करो, यह चौथी भक्ति होगी, बंगाल में जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज संत हुए, उसी तरह काली के भक्त रामप्रसाद सेन भी संत हुए। उन्होंने कहा-
“ मन तोर एत भावना केने। एक बार काली बले बसबे ध्याने।।
जाँक जमके कर्ले पूजा। अहंकार हय मने मने;
तूमि लूकिये ताँरे कर्बे पूजा। जानबे ना रे जगज्जने ।।
धातू पाषाण माटीर मूर्त्ति। काज की रे तोर से गठने;
तूमी मनोमय प्रतिमा करी। दे बसाऊ हृदि पप्रासने ।।
आलो चाल आर पाका कला, काज की रे तोर आयोजने;
तूमी भक्ति सुधा खाईये ताँरे, तृप्ति कर आपन मने ।।
झाड़ लण्ठन बातीर आलो, काज की रे तोर से रोस्नाइये;
तूमी मनोमय माणिक्य जेले, देउ ना जलूक निशिदिने ।।
मेष छागल महिषादि, काज की रे तोर बलिदाने;
तूमी जयकाली जयकाली बले, बलि दाउ षड़ रिपू गणे ।।
प्रसाद बले ढाके ढोले, काज की रे तोर से बाजने;
तूमी जय काली बलि, देउ कर तालि, मन राख सेई श्रीचरणे ।।”
तुम्हारे अंदर जो षट् रिपु-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि हैं, उनका बलिदान करो, न कि बकरी-भैंसे का। दूसरे को दिखाने के लिए पूजा नहीं करो।
एक पंडित जी नदी में स्नान कर रोज किनारे में बैठकर लोगों को दिखलाने के लिए कुछ पाठ करते थे कि मैं पण्डित हूँ, पाठ कर रहा हूँ। एक महिला बड़ी तेजी से चली और उसके आसन पर पैर रखते हुए चली गयी। पंडित जी पूजा पर बैठे हुए थे, क्रोध में आगबबूले हो गये, लेकिन कुछ बोले नहीं। कुछ समय के बाद महिला अपने पति के साथ लौटी तब पण्डित जी ने कहा मैं पूजा पर बैठा था तुम मेरे आसन पर पैर रखते हुए चली गयी। सूझता नहीं था तब महिला ने कही-महाराज जी बहुत दिन हो गये हमारे पति बाहर गये हुए थे। सुनने में आया कि श्रीमान् आ रहे हैं मैं उनकी अगुवानी के लिए जा रही थी तो आपकी आसन मेरी नजर में नहीं आयी। मैं तो जागतिक पति के प्रेम में इतना विह्वल थी कि आसन नहीं देखी, लेकिन आपने मुझे कैसे देख लिया। आप तो जगतपति को देख रहे थे। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) तब महिला ने कही-
“ नर राची सूझि नाहिं तु कस लखे सुजान ।
पढ़ि पुराण बउरै भये न राचा भगवान ।।”
भगवान को क्या देखा तूने जग से प्रेम किया
“ मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।”
दृढ़ विश्वास के साथ गुरुप्रदत्त मंत्र का जप करो। जपों में मानस जप सबसे श्रेष्ठ होता है। एकाग्र मन से जप करना, यह पाँचवीं भक्ति है।
“ छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धरमा ।।”
दमशील बनो, इन्द्रियनिग्रह का स्वभाव वाला बनो। दृष्टियोग-क्रिया से इन्द्रियनिग्रह होगा। इसके लिए गुरु से भेद लो। किसी किताब के पढ़ने मात्र से यह भेद नहीं मिलेगा।
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ,
है असंभव समझ लो किसी संत से ।”
जो सज्जनों का धर्म है, उस धर्म पर चलो। सज्जनों का धर्म है-झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो (मांस-मछली, अंडादि का सेवन नहीं करो) और पर-स्त्री, पर-पुरुष गमन नहीं करो; इन पंच पापों से अपने को बचाकर रखो। एक ईश्वर पर अटल विश्वास रखो। उनकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। ध्यान करो, सत्संग करो, यह है छठी भक्ति। सुख-दुःख, हानि-लाभ सबमें सम रहो। ईसा मसीह को क्रॉस पर लटकाया गया। वे क्रॉस पर लटके हुए थे, फिर भी दुश्मनों को लिए प्रार्थना करते थे, ‘हे प्रभु! जो मेरे साथ इस तरह का दुर्व्यवहार कर रहे हैं, वे अज्ञानी हैं, इसलिए उनको क्षमा कर दो।’ संत का हृदय कैसा है! स्वयं दुःख सहकर दूसरे को सुख पहुँचाते हैं। यही है सज्जनों का धर्म। महात्मा नरसी मेहता कहते हैं-
“ वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीड़ पराई जाणै रे ।
पर दुखे उपकार किए, तो मन अभिमान न आणै रे ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ पर उपकार वचन मन काया ।
संत सहज सुभाव खगराया ।।”
संतों का स्वभाव है, दूसरों का उपकार करना।
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।”
सातवीं भक्ति है-समता की प्राप्ति। इसके लिए शम-मनोनिग्रह की साधना करनी होगी। यह नादानुसंधान से होता है।
भगवान श्रीराम ने कहा, ‘मुझसे बढ़कर संत को मानो।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘राम से अधिक राम कर दासा।’ क्यों भाई, इसलिए कि-
“ राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चंदन तरु हरि सन्त समीरा ।।”
राम सिन्धु-समुद्र हैं। समुद्र का जल खारा होता है; लेकिन उसी से वाष्प उठता, जल बन जाता है, वर्षा होती है, तब वह पेय जल हो जाता है, जीवन दाता हो जाता है। उसी तरह ईश्वर का ज्ञाना खारा है; लेकिन संत जन उसको मीठा करके पिलाते हैं। संत नहीं होते, तो लोग ईश्वर को भूल जाते और याद ही नहीं करते। ईश्वर अव्यक्त है, इसी से कुछ कहते नहीं; लेकिन संत जन हमको उसके विषय में बताते हैं, समझाते-बुझाते हैं और सन्मार्ग पर चलाते हैं।
“ आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ।।”
आठवीं भक्ति है, जो मिल गया, उसमें संतोष करो, जागतिक पदार्थ के लिए हाय-हाय मत करो। कितना भी जमा करो, सब छोड़कर एक दिन जाना पड़ेगा। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।”
सुना कि अमेरिका में एक बड़े धनी थे। उनका खजाना जमीन के नीचे था। वे खजाने के पास नित्य लिफ्रट से जाते-आते थे। एक दिन वे खजाने के पास गए और एकाएक बिजली गुम हो गयी, ऐसा हुआ कि उसका दम घुट गया और वहीं मर गया। क्या कुछ ले गये वे? अरे! जब तन कही साथ नहीं जा सकता है, तो धन और परिजन कहाँ से जाएगा?
“ ऐसा प्यारा कोइ नहीं, जैसा जीव अरु देह ।
चलती विरिया रे नरा, डारि चला ज्यों खेह ।।”
दूसरे के दोषों को मत देखो। जो दूसरे को दोष देखते हैं, उनकी ओर अँगुली उठाते हैं, तो एक अंगुली आगे करते हैं और तीन अंगुली पीछे रखते हैं अर्थात् एक दोष दूसरे का देखते हैं और अपनी तीन दोष छिपाकर रखते हैं। अपने दोषों को देखो, दूसरे के दोषों को मत देखो।
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हिय हरष न दीना ।।”
भगवान श्रीराम कहते हैं-सबसे निष्कपट होकर रहो और एक मेरे ऊपर भरोसा रखो। इस तरह नौ प्रकार की भक्ति भगवान श्रीराम ने शबरी को बतलाया।
“ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख
हृदय पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद
लीन भइ जहँ नहिं फिरे ।।”
शबरी नवो प्रकार की भक्ति में पूर्ण थी। वह प्रभु के धाम में पहुँच गई, जहाँ से लौट करके आना नहीं होता है। जैसे गंगा की धारा समुद्र में चली जाती है, तो उसको समुद्र से निकाल नहीं सकते, वह एक हो जाती है। उसी तरह जीव पीव मिलकर एक हो जाता है। अवश्य ही, जो संत प्रभु धाम में पहुँच गए ओर उनकी इच्छा हो कि संसार में जाकर उपदेश करें, शिक्षा दें, लोगों का कल्याण करें, तो भले वे आ सकते हैं। इस तरह भक्ति से परमात्मा से जाकर एक हो जाओगे। भगवान श्रीकृष्ण का वचन श्रीमद्भगवद्गीता में है, ‘जो मेरे धाम में आ जाता है अर्थात् मुझको पा लेता है, तो फिर संसार में वह नहीं आता।’ नौ प्रकार की भक्ति जो भगवान श्रीराम ने शबरी माई से कहा। मैं संक्षिप्त में उसे कहा।
सत्संग में बाहर से जो लोग आये हुए हैं सबको अपने-अपने घर जाना है। मौसम कभी खराब करता है कभी अच्छा करता है तो इतने कष्टों को सहकर भी आपलोगों ने सत्संग से इतना प्यार रखा कि आपलोग गये नहीं, जमे हुए रहे। इसलिए आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद। इस सत्संग के लिए जिनलोगों ने जिस प्रकार का सहयोग दिया है। चाहे धन से, चाहे मन से, चाहे जन से, चाहे वचन से सबको बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके लिए जो बड़े हैं उनको प्रणाम है जो मुझसे छोटे हैं उनको आशीर्वाद है और बाकी सबको धन्यवाद। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 96वाँ वार्षिक महाधिवेशन बरारी, भागलपुर में 12-02-2007 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस का पाठ सुना। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने गुरुजन, पुरजन, ब्राह्मण, सज्जन; सबको बुलाकर उपदेश किया। रामचरितमानस में आया है-
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज्य काहूहि नहीं व्यापा ।।”
श्रीराम के राज्य में तो प्रजा सब तरह से सुखी-सम्पन्न थी ही, फिर उन्होंने उपदेश क्यों किया? वस्तुतः वे सोचते थे कि जबतक मेरे राज्यत्व काल में प्रजा है, तबतक सभी प्रकार से सुखी है, किन्तु सब दिन इस संसार में रहना नहीं होगा, एक-न-एक दिन इन्हें शरीर छोड़कर जाना ही होगा। हमारी प्रजा जहाँ जाएगी, वहाँ भी सुख से रहे, इसी की युक्ति बताने के लिए उन्होंने उपदेश किया। सबसे पहली बात उन्होंने कही-
“ बड़े भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।।”
मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। आपने कभी सोचा है कि इस शरीर में क्या विशेषताएँ हैं? मनुष्य-शरीर भाग्यवान क्यों है?‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’-कहकर भगवान श्रीराम ने स्पष्ट बतलाया है कि मनुष्य शरीर साधनों का भंडार है एवं इसके अन्दर मोक्ष में जाने का द्वार भी है। हमें खोज करनी चाहिए कि वह मोक्ष का द्वार कहाँ है।
ज्ञान संकलिनी तंत्र में आया है-
“ देहस्थाः सर्व विद्याश्च देहस्थाः सर्व देवता ।
देहस्थाः सर्व तीर्थानि गुरु वाक्येन लभ्यते ।।”
लौकिक और पारलौकिक जितनी भी विद्याएँ हैं, सभी मानव शरीर में भरी पड़ी हैं। इस शरीर में सभी विद्याएँ, सभी देवता एवं सभी प्रकार के तीर्थ विद्यमान हैं। हम देवालय में एक देवी या देवता की पूजा करने जाते हैं, जबकि समस्त देवी-देवताओं का निवास मनुष्य शरीर में है। हम दो-चार तीर्थों में जाते हैं; लेकिन इस शरीर में सभी तीर्थ भरे पड़े हैं। आप कहेंगे कि शरीर में इनका निवास रहते हुए भी हमें इनकी प्रत्यक्षता क्यों नहीं होती? समाधान स्वरूप निवेदन है कि दियासलाई में आग भरी हुई होती है, पर जबतक काठी घिसी नहीं जाती, तबतक उससे अग्नि नहीं निकलती। उसी तरह जबतक संत सद्गुरु नहीं मिलते, तबतक मानव शरीर की विशेषताओं का ज्ञान नहीं होता। ‘गुरुवाक्येन लभ्यते’। जिस तरह दूध को हम कितना भी औंटे मलाई बन जाएगी, खोवा बन जाएगा; लेकिन दही बनाने के लिए जामन की आवश्यकता होती है। दूध में थोड़ा-सा जामन दे देंगे, सब दही हो जाता है। उसी तरह जो जीवन में सफलता चाहते हैं, उसके लिए गुरु-कृपा आवश्यक है।
जब परमात्मा की असीम कृपा होती है, तब अनमोल मनुष्य शरीर की प्राप्ति होती है। यह देवताओं को भी दुर्लभ है। देवता स्वर्ग में निवास करते हैं और स्वर्ग के लिए कहा गया है-‘स्वर्गहु स्वल्प अंत दुःखदाई।’ वहाँ भी अंत में दुःख होता है। स्वर्ग में देव-शरीर की प्राप्ति होती है और नर-देह, सुर-दुर्लभ कही गयी है। इस कारण मनुष्य-देही यदि देव-देह के लिये यत्न करे, तो कहा जायेगा कि वह क्षति की ओर जा रहा है।
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव स्वर्ग से नर्क में आवै ।
भरमें चारो खान पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहै स्वर्ग पर करै खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
(तुलसी साहब, हाथरस वाले)
मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है, गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ नहिं ऐसो जनम बारंबार ।
का जान्यो कछु पुण्य प्रगट्यो, तेरो मानुषा अवतार ।।
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष ते फल टूटि पड़िहैं, बहुरि न लागत डार ।।”
जैसे वृक्ष से फल गिर जाए, तो कितना ही प्रयास करे, वह फिर उस डाल से जुड़ता नहीं। उसी तरह हमारे जीवन का जो अंश चला गया, वह जुड़ेगा नहीं। ‘घटत छिन-छिन बढ़त पल-पल’, का मतलब यह कि मान लीजिए किसी व्यक्ति की जन्मकालीन आयु एक सौ साल की हो और वह जब पाँच साल का हो गया, तो लोग यह भूल जाते हैं कि 100-5=95 अब 95 साल ही बचे। जब वह पचीस साल का हो गया तो यह नहीं समझता कि अब पचहत्तर साल ही बचे हैं। इस प्रकार उम्र बढ़ती जाती है और आयु घटती जाती है। घटते-घटते एक दिन जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ लख चौरासी भरमि कै, पौ पर अटके आय ।
अजहूँ पासा ना पड़े, फिर चौरासी जाय ।।”
मनुष्य शरीर से यदि भजन नहीं कर सके तो आवागमन के दुश्चक्र में भटकते रहना पड़ेगा। एक कवि ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ अति दुर्लभ है तन मानुष को ,
यह पारस ज्ञान विचारिये जी ।
गुरु मन्त्र दियो जो दया करके ,
सोइ श्वास में श्वास उचारिये जी ।।
प्रभु प्रीति की ज्वाल प्रज्वाल करो ,
अरु पाप के बीज को जारिये जी ।
दुख भंजन नाम निरंजन को ,
कबहूँ मति भूल बिसारिये जी ।।”
इनका कहना है कि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है। इसको प्राप्त करके मनुष्य को चाहिए कि गुरु-प्रदत्त मंत्र का जप प्रति श्वास में करे। परमात्म-प्रेम की ज्वाला प्रज्ज्वलित करके पाप के बीज को भूनकर भस्म कर डाले और दुःखभंजन निरंजन (माया-रहित) परमात्मा के नाम को भूलकर भी न भूले अर्थात् सतत् स्मरण करता रहे, तभी मानव-जन्म सार्थक है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन, नई दिल्ली स्थित राजपुर खुर्द, संतमत सत्संग आश्रम, में दिनांक 08-04-2007 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
दो मित्र थे। एक विद्वान और दूसरे धनवान थे। जो विद्वान थे, वे गरीब थे। उन्होंने अपने धनी मित्र के पास जाकर कहा-‘मुझे कुछ रुपये की जरूरत है। तुम मुझे दस हजार रुपये दो। मैं बाहर जाऊँगा और कमाकर तुम्हारे रुपये वापस कर दूँगा।’ धनी व्यक्ति ने कहा-‘मित्र! मैं जो तुम्हें इतने रुपये दूँगा, तो बदले में तुम्हें मेरे पास कोई कीमती सामान रखना होगा। जब तुम रुपये वापस कर दोगे, तो मैं भी तुम्हारा सामान लौटा दूँगा।’ विद्वान व्यक्ति ने कहा-‘मेरे पास कोई ऐसा सामान तो है नहीं जो मैं तुम्हें दे सकूँ। हाँ, एक उपाय है-मैं एक कागज पर कुछ लिख देता हूँ, तुम उसे मेरी अमानत समझ कर रख लेना।’ उसने कागज पर लिखा-
“ धीरज धरै तो कारज सरै ।
जल्दी करै तो कारज बिगड़ै ।।”
नीचे हस्ताक्षर करके उसने वह कागज दोस्त को दे दिया और कहा-‘इसे ठीक से रखना, जब मैं रुपये लौटा दूँगा तब मुझे यह कागज दे देना।’ कागज के बदले में उसे दोस्त से दस हजार रुपये मिल गये और वह विद्वान व्यक्ति कमाने के लिए बाहर चला गया।
इधर वह धनवान व्यक्ति घर आया और उस कागज को अपनी तिजोरी पर सामने में चिपका दिया।
समय बदला। वह धनी व्यक्ति गरीब हो गया। वह भी कमाने के लिए बाहर चला गया। जाते समय उसने अपनी पत्नी को कुछ भी नहीं बताया, कोई पता-ठिकाना नहीं दिया। उसकी पत्नी गर्भवती थी। कुछ ही महीने बाद उसे लड़का हुआ। बहुत वर्ष बीत गए, पर उस व्यक्ति ने घर की खबर नहीं ली। 18 वर्षों के बाद वह व्यक्ति धन कमाकर वापस घर आया। रात हो चुकी थी, सभी सो चुके थे। उसने किवाड़ खटखटाई, पर किवाड़ खुली नहीं। बहुत बार खटखटाने और आवाज देने पर उसकी पत्नी ने पति की आवाज पहचान कर किवाड़ खोली। अन्दर आने पर उस व्यक्ति ने देखा कि एक नौजवान लड़का खाट पर सोया हुआ था। उसके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। सोचने लगा कि इसी लड़के के प्रेम में पड़कर मेरी पत्नी किवाड़ नहीं खोल रही थी। उसकी पत्नी चौके में जाकर पति के लिए भोजन तैयार करने लगी, पर इसके मन में क्रोध के कारण प्रतिशोध की भावना उमड़ने लगी। वह तलवार निकाल कर ले आया और उस लड़के को कत्ल करना चाहा। ठीक उसी समय उसकी नजर तिजोरी पर चिपकी उस कागज के टुकड़े पर गई, जिसपर लिखा था-
“ धीरज धरै तो कारज सरै ।
जल्दी करै तो कारज बिगड़ै ।।”
वह सोचने लगा-मेरे विद्वान मित्र ने यह लिख कर दिया है, मुझे धैर्य रखना चाहिये। उसने तलवार रख दी और धैर्य धारण कर लिया।
रसोई बनकर तैयार हो गई। पत्नी ने उसे प्रेम पूर्वक भोजन कराया। इसके मन में यही बात घूम रही थी कि यह लड़का कौन है और मेरे घर में क्यों रहता है। आखिर उसने पत्नी से पूछ ही लिया-‘खाट पर सोया हुआ लड़का कौन है?’ पत्नी ने उत्तर दिया-‘आप ही का बेटा है। आपके जाने के बाद पैदा हुआ। आप ने तो कभी अपना पता-ठिकाना दिया नहीं, मैं किसको खबर करती। अब तो यह अठारह वर्ष का हो गया है।’
इसी बीच वह विद्वान व्यक्ति भी बाहर से कमाकर घर आ गया। वह अपने मित्र के पास आया और कहने लगा-‘मैंने आपसे दस हजार रुपये उधार लिए थे। वे रुपये आप ले लीजिए और हमारा कागज दे दीजिए।’ उसके मित्र ने कहा-‘कागज तो मैं आपको वापस दूँगा नहीं। रही रुपये की बात, वे भी नहीं लूँगा; क्योंकि वे वसूल हो गये हैं।’ विद्वान व्यक्ति ने पूछा-‘रुपये वसूल कैसे हो गए?’ मित्र ने सारी घटना कह सुनायी कि कैसे उस कागज के कारण वह पुत्र की हत्या करते-करते बच गया। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
धैर्य रखकर परिश्रम करना चाहिए। कोई भी काम अपने समय से होता है। अभी आम का मौसम है, आम पकने लगा है। यदि मौसम नहीं हो तो पेड़ को कितना भी सींचा जाय, उसमें आम नहीं फलेगा।
“ कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचो नीर ।।”
भजन करते हैं मन उकता जाता है, मन लगता नहीं। सोचने लगते हैं कि पता नहीं कुछ होगा या नहीं। इस तरह घबड़ाना नहीं चाहिए। मन में संदेह भी नहीं रखना चाहिए। धैर्य पूर्वक लगे रहना चाहिए। जगजीवन साहब का वचन है-
“ साधो सुमिरन भजन करो ।
मन महँ दुविधा आनहु नाहीं, सहजहिं ध्यान धरो ।।
धीरज धरि संसय नहीं राखहु, नाम भरोसे रहो ।
जगजीवन सतगुरु को भेंटो, भवजल पार तरो ।।”
जितना बन पड़े उतना ही कीजिए, पर भजन- ध्यान छोड़िये नहीं। एक-न-एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) कहा करते थे-‘किसी दिन एक शाम का भोजन नहीं मिले तो उतनी हानि नहीं है, जितनी हानि एक समय भजन नहीं करने से होती है।’ भोजन छूट जाये तो छूट जाये, पर भजन नहीं छूटना चाहिए। आपलोग नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करते रहिये। गुरु महाराज सफलता देंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंस का यह प्रवचन उनके जीवन का अंतिम प्रवचन है, जो उनके द्वारा अपने महाप्रयाण के एक दिन पूर्व (दिनांक 03-06-2007 ई0 को) महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर के सत्संग
प्रशाल में साप्ताहिक सत्संग के शुभ अवसर पर दिया गया था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 2007 ई0)
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गुरुवर! भक्ति अपनी दो, यही है प्रार्थना मेरी ।
लगा लो शरण में अपनी, यही है प्रार्थना मेरी ।।
मन है बड़ा चंचल, विषय में रम रहा पल-पल ।
छुड़ाकर चरण में ले लो, यही है प्रार्थना मेरी ।।
न तुम बिसरो कभी मुझको, न मैं बिसरूँ कभी तुझको ।
सतत उर में रहा करना, यही है प्रार्थना मेरी ।।
रहे नहिं जगत की आशा, हो आज्ञाचक्र में वासा ।
भजन में लगे प्रति श्वासा, यही है प्रार्थना मेरी ।।
प्रभु जी! षट् विकारों के, कभी आधीन न होऊँ ।
रहैं आधीन वे मेरे, यही है प्रार्थना मेरी ।।
दृष्टी थिर हो सुखमन में, सुरत धुर धार को पकड़े ।
जो पहुँचावे परम पद को, यही है प्रार्थना मेरी ।।
तेरा स्वरूप मेरा, हो मेरा स्वरूप तेरा ।
दुई का भेद मिट जाये, यही है प्रार्थना मेरी ।।
कह ‘संत’ दोउ कर जोड़ि, नाथ अब विनती सुनिये मोरि ।
दीजिये भव बंधन को तोड़ि, यही है प्रार्थना मेरी ।।

सर्वेश को भज ले सुजन, अखिलेश को तू पाएगा ।
उपलब्ध कर विश्वेश को, तू वही हो जाएगा ।।
मन से मन्त्रवृति करि कर, इष्ट विग्रह ध्यान भी ।
युग दृष्टि सूरत एक कर, घट ज्योति जुगनू पाएगा ।।
विद्युत सितारे बिन्दु शशि, ऊषा प्रभा रवि पूर भी ।
लख ज्योति अनुपम ब्रह्म की, अघ पुंज जल-भुन जाएगा ।।
ज्योति में सुन शब्द अनहद, धुन अनाहत को परख ।
सत्शब्द चेतन धार धरि, धुर धाम निश्चय जाएगा ।।
‘संतसेवी’ को बताया, संत मेँही ँ मर्म यह ।
है धर्म अब तेरा सुजन, कर कर्म उर प्रभु पाएगा ।।

मैं नहीं मेरा नहीं, यह ‘मैं’ किसी का है दिया ।
छीन लेगा कब इसे इसका पता हमको नहीं ।।
मैं नहीं मेरा नहीं, यह ‘तन’ किसी का है दिया ।
छीन लेगा कब इसे, इसका पता हमको नहीं ।।
मैं नहीं मेरा नहीं, यह ‘मन’ किसी का है दिया ।
छीन लेगा कब इसे, इसका पता हमको नहीं ।।
होश कर चेतो सबेरे, साँस की मत आस कर ।
कब निकल जाएगी यह, इसका पता हमको नहीं ।।
‘संतसेवी’ सत समझ, ‘जीवन’ किसी का है दिया ।
छीन लेगा कब इसे, इसका पता हमको नहीं ।।

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1 डॉ0 आर0 के0 पोद्दार, बरौनी (बेगूसराय) 11000
2 श्रीमति कल्याणी देवी, पति-श्री अशोक कु0 यादव; मायागंज (भागलपुर) 5100
3 श्रीसंजीव कुमार घोष (निदेशक-महर्षि मेँहीँ विद्यापीठ), लोहारडीह, कोलाकुसमा (धनबाद)
4 श्रीगजानन्द अग्रवाल, बैंक कॉलोनी (धनबाद) 5100
5 श्रीमहेन्द्र यादव, हाउसिंग कॉलोनी बरटॉड़ (धनबाद) 5100
6 श्रीमति सुधा देवी, पति-डॉ0 रामावतार यादव (शिक्षक); खैरा-गढ़िया (अररिया) 5100
7 श्रीओमप्रकाश साहु, खगड़िया 2100
8 श्रीमति सरस्वती देवी, पति-श्रीविन्देश्वरी प्र0 सिंह (से0नि0शिक्षक); गौराहा, कुशमौल (अररिया) 2100
9 श्रीमति पार्वती देवी, पति-श्रीपवन कु0 अग्रवाल; जेल रोड (राँची) 2100
10 श्रीमति अरूणा देवी, पति-श्रीरामावतार साह; चुटिया (राँची) 2100
11 श्रीमति सरस्वती देवी, पति-श्रीरमेश प्र0 सिंह; कनेरी (भागलपुर) 2500
12 कुमारी पार्वती (शिक्षक), पिता-श्रीडुलामणि देवांगन; कोतरा रोड, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 2100
13 श्रीमति फुलकुमारी (आँगनबाड़ी सेविका), पति-श्रीविरेन्द्र प्र0 यादव; थलहा, नरपतगंज (अररिया) 1500
14 श्रीमति शबनम देवी, पति-स्व0 पद्मानन्द यादव; महर्षि मेँहीँ नगर कठौतिया (मधेपुरा) 1500
15 स्वामी सकलानन्द, महर्षि मेँहीँ आश्रम, भुली (धनबाद) 1150
16 श्रीमति बसन्ती देवी, पति-श्रीराम कुमार गुप्त; डेहरी ऑन सोन (रोहतास)
17 माँ भद्रशीला दासीन (रघुपति जुट मिल) विराटनगर, मोरंग (नेपाल)
18 श्रीपंकज कुमार, नयाटोला जमरा (सहरसा)
19 स्व0 द्रोपदी देवी, पति-श्रीनित्यानन्द प्र0 सिंह (पूर्व मुखिया); बेलसरा (अररिया)
20 श्रीमति वीणा देवी, पति-श्रीब्रह्मदेव यादव (मंत्री-महर्षि मेँहीँ सत्संग मदिर) तेतरी (भागलपुर)
21 श्रीरौशन कुमार भगत, पिता-श्रीसुरेश प्रसाद भगत; पंजवारा (बाँका)
22 श्रीचन्द्रमोहन काबरा, मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
23 श्रीफतेहचन्द्र अग्रवाल, संरक्षक-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
24 श्रीसंजय पोद्दार, अपर बाजार (राँची)
25 श्रीराधेश्याम पोद्दार, अपर बाजार (राँची)
26 श्रीमति कजोमा देवी, पति-श्रीयोगेन्द्र प्र0 पोद्दार; अध्यक्ष-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
27 कुमारी कल्पना, पति-श्रीकमल किशोर ‘कमल’; कोषाध्यक्ष-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
28 श्रीमनोहर महतो, प्रचार मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
29 श्रीमति द्रोपदी देवी, पति-अजय कु0 जायसवाल; व्यवस्थापक-महर्षि मेँहीँ आश्रम, चुटिया (राँची)
30 श्री ए0 के0 ‘आलोक’, टाटीसिलवे; सदस्य-जिला संतमत-सत्संग समिति (राँची)
31 श्रीमति माधुरी प्रसाद, पति-श्रीराजकुमार प्रसाद (उप प्रबन्धक-भारतीय स्टेट बैंक) हरमु (राँची)
32 श्रीसरयु केशरी, पिस्का नगड़ी (राँची)
33 श्रीत्रिवेणी केशरी, मसौढ़ी (पटना)
34 श्रीकौशल किशोर प्रसाद, कुसई कॉलोनी डोरण्डा (राँची)
35 श्रीमति शैला देवी, पति-श्रीगोपाल प्रसाद (शीशा वाला), नवादा (बिहार)
36 श्रीप्रसादी मंडल, ईशाकचक (भागलपुर)
37 श्रीरामविलास सिंह, ईशाकचक (भागलपुर)
38 श्रीनरेश प्रसाद मंडल, बकसरा (गोड्डा)
39 स्वामी अभिषेकानन्द बाबा, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कनेरी (भागलपुर)
40 स्वामी कैलाश बाबा, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट (भागलपुर)
41 स्व0 लालपरी देवी, पति-श्रीविरंची भगत; पनसलवा (खगड़िया)
42 श्रीराम कुमार, मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
43 श्रीअरूण कुमार भगत, अध्यक्ष-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
44 श्रीउमाशंकर रजक, संरक्षक-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
45 श्रीचिरंजीवी कुमार, सहायक मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
46 श्रीराजेन्द्र सिंह, संगठन मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
47 श्रीगोपी यादव, सहायक मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
48 श्रीप्रदीप रामुका, कोषाध्यक्ष-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
49 श्रीगिरीश चन्द्र भगत, कोषाध्यक्ष-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
50 प्रो0 उपेन्द्र यादव, अंकेक्षक-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
51 श्रीपंकज बाबा, प्रचार मंत्री-जिला संतमत-सत्संग समिति (भागलपुर)
52 श्रीमति मंजु रानी, पति-श्रीअरूण कु0 भगत (अधिवक्ता), अध्यक्ष-जिला सं0-स0 स0 (खूँटी) 2500
53 श्रीसुरजलाल प्रसाद, मुरहू (खूँटी)
54 श्रीलक्ष्मण बाबा, महर्षि मेँहीँ आश्रम; मलियादा, मुरहू (खूँटी)
55 श्रीगौरीशंकर यादव, उर्दू बाजार (भागलपुर)
56 श्रीमति गुलाब देवी, पति-श्रीपुलकित प्र0 यादव (अधिवक्ता); भिरखी (मधेपुरा)
57 साध्वी सुनीता बहन, आजाद नगर (धनबाद)
58 श्रीमति कुमकुम देवी, पति-श्रीनवीन कु0 यादवेन्दु; यादव नगर, लीला (पूर्णियाँ)
59 श्रीमहेन्द्र प्र0 यादव (से0नि0शिक्षक) गाँधी नगर (पूर्णियाँ)
60 श्रीमति राधा देवी, पति-श्रीसत्यना0 मंडल (से0नि0शिक्षक); महर्षि मेँहीँ नगर, कठौतिया (मधेपुरा)
61 श्रीराज कुमार (सहायक राजभाषा) क्षेत्रीय कार्यालय कर्मचारी राज्य बीमा निगम, तृश्शूर (केरल)
62 श्रीचन्द्रिका प्रसाद यादव (से0 नि0 प्रा0 रक्ष0 अवर निरीक्षक) लैलख (भागलपुर)
63 क्तण् च्तवणि् ठंइपजं च्वककंतए टपेीांींचंजदनउ (क्तण् ।ससन त्ंउंसपहींउ भ्वउवमचंपजीपब डण्ब्ण्भ् )
64 श्रीमति सुचीता देवी, पति-स्व0 शिवानन्द लाल दास; हनुमान नगर, पुनाईचक (पटना)
65 श्रीमति देवयानी गुप्ता, पति-स्व0 रामलोचन गुप्ता; काँटाकोश, मनिहारी (कटिहार)
66 श्रीजगरनाथ प्र0 यादव, पत्नी-स्व0 सरस्वती देवी; संतनगर/जवारीपुर (भागलपुर)
67 श्रीनरेश मंडल, पत्नी-श्रीमति यशोदा देवी; चम्पा, मेहरमा (गोड्डा)
68 श्रीमति बैजन्ती देवी, पति-पं0 गणेश तिवारी; ग्रा0-कालापहाड़, मेदिनीनगर (पलामु)
69 श्रीमति यदुपति देवी, पति-श्रीविरंची प्र0 यादव; ग्रा0-भटगामा, चकला (अररिया) 1350
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